निर्लज्ज !: लघुकथा (सुशील कुमार भारद्वाज) सुशील कुमार भारद्वाज September 23, 2016 कथा-कहानी, लघुकथा 207 ‘सुशील कुमार भारद्वाज’ की लघुकथायें छोटी-छोटी घटनाओं के यथावत चित्रण के रूप में सामने आती हैं | जहाँ भूत-भविष्य की लेखकीय कल्पना और उपदेश उतने ही आच्छादित रहते हैं जितने जन सामान्य के बीच घटित होने वाली घटनाओं में छुपे होते हैं | सुशील, पाठक पर अपनी दृष्टि नहीं थोपते बल्कि विवश करते हैं उसे अपनी दृष्टि बनाने को …. कुछ इसी पैमाने से गुजरती उनकी एक और लघुकथा …..| – संपादक सुशील कुमार भारद्वाज निर्लज्ज ! वाराणसी – सियालदह एक्सप्रेस ज्योंहि आरा जंक्शन पहुंची, लोग प्लेटफोर्म पर धक्का-मुक्की करने लगे. दरवाजे तक लोग ठसे थे. उस भीड़ को चीरते हुए सलवार शूट में एक लड़की काफी जद्दोजहद के साथ आगे बढ़ी जा रही थी. उसका एक हाथ दरवाजे के रड को थामे था तो एक हाथ एक अधेड महिला को बेतरतीब खींचे जा रहा था. जबकि महिला भीड़ पर झुंझला रही थी – “सबके गेटे पर बैठेल रहता है, अन्दरवा जगहें न है का?” इतने में उस महिला को सहारा देते हुए एक आदमी सबको धकियाते हुए आगे बढ़ा– “अरे तुमको उससे क्या मतलब है कि कौन क्या कर रहा है? तुम अपना सीट पकडो ना?” महिला भी तुनक कर बोली- “चलिए न रहे हैं जी, भीड़ न दिख रहा है का?” आगे बढ़ने के बाद वह महिला, बहन जी- भाई जी करते किसी तरह जबरन अपने लिए जगह बना ली. फिर लड़की को इशारा करते हुए बोली- “आओ यहीं तुम भी बैठ जाओ”. लड़की इधर –उधर देखने के बाद सामने वाली सीट में किसी तरह अडजस्ट कर ली. फिर लड़की साथ खड़े आदमी से बोली – “पापा जी आप बैठ जाइये हम खड़ा ही रहेंगे.” वह आदमी बोला – “तुम माँ- बेटी ठीक से बैठो न हमरा टेंसन काहेला लेती हो? एकाध स्टेशन के बाद हमको भी कहीं न कहीं जगह मिल ही जाएगा.” गाड़ी खुली तो लड़की इधर – उधर तांक- झांक करने लगी. लगा जैसे किसी का इंतज़ार कर रही हो. अचानक खिडकी से दरवाजे की ओर नज़र पड़ते ही उसका चेहरा खिल उठा. उसकी माँ पूछ बैठी – “का है रे?” वह मुंडी हिलाते हुए बोली – “कुछो ना” और इधर-उधर देखने लगी. गाड़ी ज्योंहि अगले स्टेशन पर रूकी तो लड़की गेट की ओर चल पड़ी. उसके मम्मी –पापा एक दूसरे को देखने लगे, लगा आँखों –आँखों में वे एक दूसरे से सवाल – जबाब कर रहे हों. गाड़ी खुलते ही वह लड़की आकर अपने सीट पर बैठ गई. इशारे-इशारे में वह औरत उस लड़की को कुछ समझाने लगी, लेकिन वह अनसुना करते हुए सिर्फ मुस्कुराती रही. वह लड़की बिहटा स्टेशन पर फिर नीचे उतर गई. इस बार पीछे-पीछे उसके पिता भी भीड़ को चीरते हुए नीचे आ गए. नीचे आते ही उनकी आँखें फ़ैल गई. देखा कि लड़की एक लड़के का हाथ पकड़ कर हंस-हंस के बात कर रही थी. उन्होंने सख्त आवाज में कहा– “यहाँ क्या कर रही है? चलो अंदर.” लड़की कुछ पल अपने पिता को देखने के बाद फिर अपने गप्प में भीड़ गई. इतने में वह आदमी गुस्से से तमतमाता उठा और खिडकी के पास आकर चिल्लाया –“ले जाओ अपनी निर्लज्ज बेटी को अंदर…. निर्लज्जता की हद हो गई है” इतना सुनते ही धरफराते हुए वह औरत भीड़ से बाहर आयी और लड़की का हाथ खींचते हुए अंदर ले गई. और इधर उसके पिता उस लड़के से उलझ गए –“शर्म नही आती है आवारागर्दी करते?” लड़के ने तपाक से जबाब दिया – “प्यार करना आवारागर्दी नही है. और जब आपकी बेटी आपके वश में नहीं है तो मुझे कुछ भी बोलने का आपको क्या हक है?” गुस्से में वह आदमी बोला –“ढेर बोलता है. चलो पटना सब पता चल जाएगा.” लड़का – “पटना में का है….. ” लड़का और कुछ बोलता उससे पहले ही उस अधेड आदमी ने उसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ रशीद कर दिया. थप्पड़ की आवाज से आसपास में सन्नाटा छा गया और लोग अवाक् हो उसे ही देखने लगे. लोग अचानक इस घटना पर सिर्फ एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे और पूछ रहे थे कि आखिर हुआ क्या? इतने में गाड़ी ने सिटी दे दी और लोग चढ़ने के लिए गेट की ओर लपके. गाड़ी चलने लगी तो प्लेटफोर्म पर ही अपना गाल सहलाता उस लड़के ने गाड़ी के दरवाजे पर से ही उस आदमी को नीचे खींच कर पीटना शुरू कर दिया. जब तक झगडे की बात गाड़ी में गूँजती तब तक गाड़ी गति में आ चुकी थी और माँ – बेटी में से कोई नीचे नहीं उतर सकी. नीचे सिर्फ वह आदमी पिटता हुआ नजर आ रहा था. भीड़ से एक आवाज आयी – “जब बेटा–बेटी हाथ से निकल जाता है तो माँ-बाप का यही हाल होता है.” दरवाजे पर से आते ही महिला ने बेटी को एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा – “अब मन खुश हुआ न रे हरामजादी… मरयो का हे न गई? ढेर जवानी के जोश चढल है?” इतने पर तमक पर लड़की बोली – “मार काहे रही हो? हम क्या किये हैं? पापा उससे लड़ने काहे गए?… अपन जवानी के दिन भूल गई जो हमको बोल रही हो?” महिला – “हम तोरे जैसन छिन्नरपन नहीं करते थे. तुम्हरे जैसे निर्लज्ज नहीं थे. हमारे ज़माने में लोग शांति से अपने माँ–बाप की बात मानते थे. तुम्हरे जैसे कलंकनी नहीं थे. देखो तो इस निर्लज्ज को… कैसे जुबान लड़ाती है?” लड़की फटते हुए बोली –“तुमको मौका नही मिला तो उसमें मेरी गलती है? उसका कुंठा तुम मुझ पर उतारोगी? बहुत बोल ली. अब चुप रहो वर्ना…..” दांत पिसते हुए लड़की खिडकी की ओर देखने लगी. इतना सुनते ही सब अवाक् हो उस लड़की के व्यवहार को देखने लगे. सब के सब चुप. इतने में गाड़ी अगले स्टेशन पर रूकी और भीड़ के साथ वह माँ – बेटी भी नीचे उतर गई. फिर गाड़ी आगे की ओर बढ़ी और लोग बदले जमाना की बात करने लगे. Bio Social Latest Posts By: सुशील कुमार भारद्वाज जन्म – 1 मार्च १९८६ , गाँव देवधा , जिला – समस्तीपुर विभिन्न कहानियाँ तथा लेख पटना से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित सम्प्रति – मुस्लिम हाईस्कूल , बिहटा , पटना में कार्यरत पटना फोन – 08809719400 sushilkumarbhardwaj8@gmail.com इंतज़ार: कहानी (सुशील कुमार भारद्वाज)विकासोन्मुख गांव की जातिगत समस्या है : ‘चाँद के पार एक चाभी’ “समीक्षा”बिहार वाली बस : लघुकथा (सुशील कुमार भारद्वाज)क्लासिकल फिल्मों का समागम : पटना फिल्म फेस्टिवल 2016: रिपोर्टएक रचनाकार को उसकी रचनाएं जीवित रखती हैं पुरस्कार नहीं: हृषिकेश सुलभचकाचौंध, भौतिकवादी जीवन का स्याह पक्ष: समीक्षा (शुशील भारद्वाज)एक संस्कृति के उत्थान और पतन की कहानी, ‘कोठागोई’ (सुशील कुमार भारद्वाज)उस रात : लघु कथा (सुशील कुमार भारद्वाज)चकाचौंध, भौतिकवादी जीवन का स्याह पक्ष: समीक्षानई सांस्कृतिक पहल, मनोवेद फिल्म फेस्टिवल: रिपोर्ट See all this author’s posts Share this:Click to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on Twitter (Opens in new window)Click to share on Google+ (Opens in new window)Click to share on WhatsApp (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to email this to a friend (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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