मोहित बाबू का परिवार: कहानी (प्रेमकुमार मणि) प्रेमकुमार मणि October 11, 2016 कथा-कहानी, कहानी 505 रोमान्टिज्म के साथ वैचारिक आरोहण वर्गीय चरित्र के उस केंचुल चढ़े सांप की तरह हो जाता है जो दलितों, पिछड़ों के सामाजिक और राजनैतिक उत्थान और मानव समानता और जन क्रान्ति की बात करते-करते कब अपना केंचुल उतार अपने असल स्वरूप में आ जाएगा | इसे कहना और समझना हमेशा से ही आसान नहीं रहा है …. फिर “प्रेमकुमार मणि” की कहानी के ‘चंदू‘ की क्या विसात है …… | अनेक सामाजिक, राजनैतिक विचार और सहज वहस के साथ इंसानी वर्गीय चरित्र की रचनात्मक व्याख्या करती कहानी ….| – संपादक “परिवार में जितने लोग हैं उतने मिजाज़ हैं। कोई धर्म परायण है तो कोई नास्तिक, कोई वामपंथी है तो कोई दक्षिणपंथी। लेकिन अपने किस्म का एक जनतंत्र वहां कायम है। सबके बीच संवाद रहते हैं और सुबह-शाम की बैठकों में कुछ न कुछ राजनीतिक सरगर्मी भी होती है। मोहित बाबू विचारों से कांगे्रसी रहे हैं, नेहरुवादी कांगे्रसी। वह सुभाष के साहस के प्रशंसक भी रहे हैं किन्तु उनके आदर्श नेहरु ही रहे। उनके सेल्फ में नेहरु की तीनों किताबें- ग्लिम्प्सेज आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री, आटोबायोग्राफी आॅफ नेहरु और डिस्कवरी आॅफ इंडिया आज भी बनी हुई हैं। नेहरु का प्रसिद्ध भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ उन्हें जुबानी याद है और जब वह मिजाज में होते हैं, तब इसका कविता की तरह पाठ करते हैं। साठ के दशक में ही उन्होंने अपनी जमीन का एक अच्छा-खासा हिस्सा उन लोगों को दे दिया, जो उस पर खेती करते थे क्योंकि उनका मानना है जमीन पर अधिकार जोतने वालों का ही होना चाहिए। विनोबा भावे जब भूदान-आंदोलन के सिलसिले में सूबे में आए, तब भी उन्होंने भूदान का पुण्य कमाया, अखबारों की सुर्खियां भी बटोरीं। कुछ साल पहले तक चंदू की इन कहानियों में दिलचस्पी होती थी। लेकिन अब तो वह इन्हें सुनना भी नहीं चाहता। वह प्रायः गांव आता-जाता-रहता है और जब कभी गांव जाता है, कहानियों का पिटारा लेकर लौटता है। मुखिया- सरपंच के चुनाव में कैसे गांव के बड़े-बबुआनों के एकजुट होने के बावजूद गरीब-कमजोर तबके के लोग जीत गए। इससे बड़ी कहानी क्या होगी। अगर होगी भी, तो चंदू को अब उन सबमें कोई रुचि नहीं रह गई है। अब तो वह कई दफा प्लान बना चुका है कि इस कोठी से अपना नाता तोड़ ले और इसी मोहल्ले में साग-भाजी की दुकान खोल ले। पुख्ता आमदनी वाला धंधा है। कोठी के लोग तो खुद तबाह होते जा रहे हैं। अपना ही खर्चा संभालने में हांफ रहे हैं लोग। रात-दिन किच-किच मची रहती है। गई लाटशाही। कब कोठी ढह जाएगी, कोई नहीं जानता? अनुभव भइया तो कह रहे थे, दादाजी का जीवन देख रहे हैं हमलोग। संसार से उनके विदा होते ही यहां अपार्टमेंट खड़ा हो जाएगा। चंदू इस बार गांव गया तो उसके भाई ने उसे छोटी-छोटी दो किताबें दींµ‘बाबासाहेब का जीवन संघर्ष’ और ‘गुलामगिरी’। कहाµ ‘‘इसे पढ़ना। जीवन सुधर जाएगा।’’ चंदू ने किताबें रोहण बाबू को दिखलाईं। वह खुश हुए बल्कि ‘गुलामगिरी’ वाली किताब पढ़ने के लिए रात भर अपने पास रख ली। चंदू के आउटहाउस में अब दो किताबें भी थीं। वह इन्हें जल्दी ही पढ़ गया। अपने पिता को भी पढ़कर सुनाया। सुनकर पिता रोने लगे। कहाµ ‘‘भाई ने ठीक कहा था बेटा। इस किताब की बातें सुने बिना मर जाता तो सचमुच मुक्ति नहीं मिलती। अब इत्मीनान से मरूंगा। अब हमको विश्वास हो गया एक रोज दुनिया में नियाव जरूर आएगा। गुलामी बहुत जल्दी खत्म होगी बेटा। बहुत जल्दी।’’ (कहानी से ) मोहित बाबू का परिवार प्रेमकुमार मणि शहर का यह मोहल्ला अपनी कुछ खासियतों के लिए जाना जाता है। पुराने रईस लोग यहां पीढ़ियों से जमे हैं। जितनी कोठियां हैं, उतने किस्से। सबका अपना-अपना इतिहास है | अपनी-अपनी त्रासदी भी। इन्हीं कोठियों में एक कोठी मोहित बाबू की है। मोहल्ले की सबसे शाही और पुरानी कोठी, जिससे जुड़ा एक बाग! अस्सी पार के मोहित बाबू की सब मिलाकर मोहल्ले में साख है, इसलिए जब कभी वह घर से बाहर निकलते हैं, तब उन्हें सम्मान प्रकट करने वालों का तांता लग जाता है। बच्चे से लेकर बूढ़े और रिक्शा-मजूर से लेकर ऊंचे ओहदेदार तक उनका सम्मान करते हैं। खूब लंबे, गोरे-चिट्टे मोहित बाबू की आंखों पर सुनहला चश्मा और होठों पर शांत मुस्कान हमेशा बनी रहती है। शायद यह कहा जा सकता है कि ये दोनों उनके व्यक्तित्व के स्थायी तत्व हैं। मोहित बाबू के पिता बाबू बृजराज शरण प्रसाद सिंह ही शहर आए थे। गांव में उनकी अच्छी-खासी जमींदारी थी, रुतबा था। शानो-शौकत ऐसी कि शादी व विवाह ( के उत्सव व भोज के किस्से इलाके भर में लंबे अरसे तक किंवदंती बने रहते। बृजराज बाबू के पिता को अंग्रेजी सरकार से रायबहादुर का खिताब मिला हुआ था। लेकिन कहते हैं बृजराज बाबू को इस जमींदारी ठसक और ताम-झाम से चिढ़ थी। वे बिरले मिजाज़ के आदमी थे। बैरिस्टर बने और इस कोठी में जम गए, जिसे उनके पिता ने इनकी पढ़ाई के दौरान ही काफी रुचि लेकर बनवाया था। खान-पान, पहनावे से लेकर बोलने-बतियाने और अन्य व्यवहारों में, उन पर अंग्रेजियत हावी थी। वह चुप्पे किस्म के आदमी थे, पर नियम-कायदों के पक्के। तय फीस से ज्यादा स्वीकार करना उन्हें हमेशा रिश्वत की तरह लगा। वे इससे दूर रहे। कभी कोई तोहफा भी स्वीकार नहीं किया। वचन के इतने पाबंद कि जो कह दिया, उस पर हमेशा पूरी तरह कायम रहे। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने खूब धन भी कमाया और शोहरत भी। वकालत खाने से लेकर पूरे शहर में उनका नाम आदर के साथ लिया जाता था। शौकिया तौर पर वह आजादी के संघर्ष में भी शामिल रहे, लेकिन इतने गहरे नहीं उतरे कि जेल वगैरह जाना पड़े या सरकार का विशेष कोप झेलना पड़े। हां, सामाजिक सुधारों पर उनका खास जोर होता था। पर्दा और अन्य दकियानूसी ख्यालों के वे तीखे विरोधी थे। पूजा-पाठ में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी। आधुनिकता और विज्ञान के वे इतने कायल कि उन्होंने अपने बेटे के विवाह का बाकायदा रजिस्ट्रेशन करवाया। राय बहादुर खानदान की ताम-झाम वाली पूरी परंपरा को ध्वस्त करते हुए उन्होंने विवाह का इतना संक्षिप्त उत्सव किया कि लोग कहने लगे बृजराजबाबू खासे कंजूस हो गए हैं। उन्होंने एक झटके से अपने ही परिवार के सामंती तौर-तरीकों को बदल दिया था। उनके विचारों ने कुछ नए तौर-तरीकों की बुनियाद भी रखी और वे तौर-तरीके ही धीरे-धीरे इस परिवार की परंपरा बनने लगे। इसलिए मोहित बाबू का परिवार एक खास परंपरा-बृजराज बाबू की परंपरा-और कुछ खास ख्यालों से बंधा है। वैचारिक और एक हद तक सामाजिक उदारता इस परिवार की पहचान है। मसलन मोहित बाबू के चार बेटों में से दो ने जात-पात के बंधनों को तोड़कर विवाह किया है और बेटी जब पढ़ने के लिए अमेरिका गई, तब उसने वहीं एक कैथेलिक युवा को पसंद किया और विवाह कर के ही लौटी। इन सौ वर्षों में यह परिवार एक ठेठ-सामंती-ग्रामीण परिवार से एक शहरी-आधुनिक परिवार बन गया। लेकिन संयुक्त परिवार का एक ढांचा बना रहा। इसके कारण हो सकते हैं। जैसे नई पीढ़ी के रोहण का कहना हैµ ‘‘हमारे परिवार के संयुक्त रहने का आधार, यह विशाल कही जाने वाली कोठी और हमारे परिवार में पड़ी वह सौ बीघे जमीन है, जिस पर परिवार का कोई आदमी खेती नहीं करता। हमने आज तक जमीन की चैहद्यी तक नहीं देखी, लेकिन उसके मालिक बने हुए हैं। इस कोठी और उस जमीन की बदौलत ही मेरे परिवार के नालायक लोगों के लिए भी रिश्ते आ जाते हैं। सबसे बढ़कर तो यह कि इसी की बदौलत आज भी इलाके में हमारा थोड़ा-ही सही रुतबा है। कम-से-कम पुराने ख्याल के लोगों के बीच आज भी हमारी काफी इज्जत है। हालांकि इस ‘इज्जत’ का उच्चारण रोहण एक खास अंदाज में करते और ऐसा करते हुए हमेशा उनके चेहरे पर एक शातिर मुस्कान तैर रही होती। रोहण इस परिवार का वाल्तेयर है, जिसके अजीबोगरीब ख्यालों से सब यानी पूरा परिवार परेशान रहता है। मोहित बाबू के बेटे दिवाकर बाबू का वह छोटा बेटा है, जिसने दिल्ली के सेंट स्टीफंस काॅलेज से अर्थशास्त्र में डिग्री ली है। हरफनमौला रोहण इतनी चीजें करना चाहता था कि अंततः कुछ न कर सका, सिवाय भू-संबंध और समाज पर इसके प्रभाव से संबंधित एक किताब लिखने के। उसने तय कर लिया कि नौकरी नहीं करनी है। अपनी जरूरतों के लिए अखबारों में लेख- टिप्पणियां लिखकर कुछ रकम हासिल कर लेता है। उसने अपनी जरूरतें सीमित रखी हैं और विवाह नहीं करने का फैसला किया है। सब मिलाकर अपने ख्यालों में जीने वाला वह इंसान है। अपने परिवार की विशाल कोठी में उसने अपने लिए एक कमरा लिया हुआ है और इसे ही अपनी दुनिया मानता है। यूं, पूरे परिवार का वह दुलारा है, खासकर अपनी काकियों और भाभी शुभांगिनी का। घर का नौकर चंदू उसका खूब ख्याल रखता है, क्योंकि वह जानता है, रोहण बाबू के रहते उसका कोई बाल-बांका नहीं कर सकता। परिवार में जितने लोग हैं उतने मिजाज़ हैं। कोई धर्म परायण है तो कोई नास्तिक, कोई वामपंथी है तो कोई दक्षिणपंथी। लेकिन अपने किस्म का एक जनतंत्र वहां कायम है। सबके बीच संवाद रहते हैं और सुबह-शाम की बैठकों में कुछ न कुछ राजनीतिक सरगर्मी भी होती है। मोहित बाबू विचारों से कांगे्रसी रहे हैं, नेहरुवादी कांगे्रसी। वह सुभाष के साहस के प्रशंसक भी रहे हैं किन्तु उनके आदर्श नेहरु ही रहे। उनके सेल्फ में नेहरु की तीनों किताबें- ग्लिम्प्सेज आॅफ वल्र्ड हिस्ट्री, आटोबायोग्राफी आॅफ नेहरु और डिस्कवरी आॅफ इंडिया आज भी बनी हुई हैं। नेहरु का प्रसिद्ध भाषण ‘ट्रिस्ट विथ डेस्टिनी’ उन्हें जुबानी याद है और जब वह मिजाज में होते हैं, तब इसका कविता की तरह पाठ करते हैं। साठ के दशक में ही उन्होंने अपनी जमीन का एक अच्छा-खासा हिस्सा उन लोगों को दे दिया, जो उस पर खेती करते थे क्योंकि उनका मानना है जमीन पर अधिकार जोतने वालों का ही होना चाहिए। विनोबा भावे जब भूदान-आंदोलन के सिलसिले में सूबे में आए, तब भी उन्होंने भूदान का पुण्य कमाया, अखबारों की सुर्खियां भी बटोरीं। जमीन दान करते वक्त मोहित बाबू की आर्थिक हैसियत कुछ और थी। अपने पिता की तरह तो वह ख्यातिप्राप्त नहीं थे, लेकिन कानून के पेशे में भी कुछ चीजें उत्तराधिकार में मिल जाती हैं। जमी-जमाई लाइब्रेरी, मुकदमेबाज मुवक्किल और हुनरमंद पेशकार-सहायक वगैरह। यह सब मोहित बाबू को सहज उपलब्ध था, इसलिए अपनी औसत मेघा के बूते भी उन्होंने अच्छी कमाई का एक सिलसिला बनाया और पिता की ऐशोआराम वाली विरासत को बनाए रखा। लेकिन उनके चारों बेटों में से कोई कुछ ऐसा नहीं कर सका जिससे परिवार का वह कुछ-कुछ नवाबी-सा दिखने वाला सिलसिला चल सके। आमदनी घटने लगी तो नौकरों की संख्या में कमी कर दी गई। दरबान की क्या जरूरत है और फिर चैबीसों घंटे ड्राइवर रखने की हमारी हैसियत अब नहीं रही, जैसे फैसले लिए गए। अंततः खानसामे की भी छुट्टी कर दी गई। फैसला हुआ महिलाएं खुद से यह काम कर लेंगी। महिलाओं ने भी कोई विरोध नहीं किया। चाकरों में कुल मिलाकर चंदू और उसके पिता रह गए। भीतरी काम चंदू और साग-भाजी लाने से लेकर गाड़ी धोने-पोंछने आदि का काम उसके पिता के जिम्मे रह गया। दोनों कोठी के दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर बने एक आउटहाउस में रहते थे। धीरे-धीरे मोहित बाबू की वकालती-प्रैक्टिस भी पझाने ;खत्म होने लगी थी। नए-नए वकील आए थे, नए-नए जज। मुवक्किल भी नए थे, मुकदमों के सब्जेक्ट भी पफौजदारी और दीवानी से अधिक वैधानिक दांव-पेंचों के होने लगे। एक तय मिजाज में चलने वाले मोहित बाबू को यूं भी शानो-शौकत और पैसा कमाने में अधिक रुचि नहीं थी। जल्दी ही उन पर आचार्य रजनीश का प्रभाव गहराने लगा और उनकी बैठकी में विमर्श के प्रमुख तत्व रजनीश के विचार रहने लगे। यही वह समय था, जब परिवार में उनके खिलाफ स्वर सुनाई पड़े। बड़े बेटे दिवाकर ने, एक इतवारी पारिवारिक बैठकी में, पिता से कहाµ ‘‘आपको इतनी जमीन दान देने की कोई जरूरत नहीं थी। आपने यह भी नहीं सोचा कि आप अपने पिता के इकलौते थे और हम चार हैं। इस दान ने हम लोगों को जमींदार से चैकीदार बना दिया। हमारे परिवार की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई। आपको यह सब करने का कोई अधिकार नहीं था। अखबार में एक रोज की सुर्खी के लिए आपने हमारी विरासत खत्म कर दी। यह सनक नहीं तो और क्या था?’’ साभार google से दिवाकर के वक्तव्य के बीच वहां उपस्थित अन्य सदस्य चुप रहे, मानो इस वक्तव्य को उन सब का अनुमोदन प्राप्त हो। बहुत पहले यदि यह बात उठी होती तो मोहित बाबू अपना पक्ष रखते, लेकिन रजनीश के प्रभाव में आने के कारण उनका स्वभाव बहुत कुछ वीतरागी हो गया था। यह सब सुनते हुए वह इस तरह चाय की चुस्कियां लेते रहे, मानो कुछ हुआ ही न हो। उनके इस वीतरागेपन पर उनकी पत्नी और दिवाकर की मां सुलोचना बिफर उठीं। अपने पति का पक्ष लेते हुए दिवाकर पर उन्होंने मानो हमला ही कर दियाµ ‘‘अपनी नालायकी मत छुपाओ दिवाकर। तुम्हें दिल्ली पढ़ने के लिए भेजा गया। पढ़ाई पूरी किए बिना लौट आए। आज तुम्हें खानदान की इज्जत की फिकर हुई है। हमारे खानदान में यह कभी नहीं हुआ था बेटे-बाप से हुज्जत करे। तुम हुज्जत कर रहे हो। कैफियत पूछ रहे हो। शर्म करो कुछ।’’ पत्नी सुलोचना की बात पर भी मोहित बाबू विचलित नहीं हुए। चर्चा के विषय को मोड़ देने की कोशिश करते हुए, उन्होंने पोते रोहण से गुन्नार मिर्डल की किताब ‘एशियन ड्रामा’ पर उसकी राय पूछी, जिसे उन्होंने उसके जन्मदिन पर तोहफे के रूप में, हाल ही में दिया था। दिवाकर भी चुप लगा गया। मोहित बाबू ने गौर किया कि उसके परिवार में नए विचारों का प्रवेश हो रहा है। उनके चारों बेटों में से किसी ने कुछ खास नहीं किया था, लेकिन खानदान की फिकर इन सबको कुछ ज्यादा थी। सबसे बड़े दिवाकर और सबसे छोटे प्रभाकर तो घर पर ही बने रहते और हमेशा कोई बड़ी योजना बनाते रहते। प्रभाकर ने कभी-कभार गांव जाना शुरू किया था। वह इस संभावना की हमेशा तलाश में थे कि क्या वहां से चुनाव लड़ा जा सकता है? बीच के दो रत्नाकर और सुधाकर बैंक की नौकरी में थे, और ऐसे पद पर थे कि शहर से दूर तबादला कभी नहीं होना था। इन्हीं दोनों ने अपनी मर्जी से शादियां की थीं। दोनों का जीवन बिल्कुल रुटिन की तरह था। समय से दफ्रतर जाना और समय से घर आना। जीवन में कोई खास हलचल नहीं थी। हां, मोहित बाबू के सुपुत्र होने का एक गौरव जरूर था। कभी-कभार अपने सहकर्मियों को छोटी-खुशनुमा पार्टियां आयोजित कर बुलाते और उन्हें बतलाते कि वे कौन-सी विरासत संभाल रहे हैं। सबसे छोटे प्रभाकर पर बहुत कुछ दक्षिणपंथ का असर था। उनकी रुचियां अजीबो-ग़रीब थीं जैसे वे यह कहते कि फैजाबाद के रहने वाले गुमनामी बाबा ही सुभाष बोस हैं, या फिर कि ताजमहल कभी शिवमंदिर था। ‘नेहरु खानदान की असलियत’ शीर्षक से उन्होंने एक लेख लिखा, जो कई समाचार-पत्रों से लौटकर उनकी आलमारी में पड़ा है। उन्होंने ही प्रयासपूर्वक ढूंढकर अपने परदादा की तस्वीर निकाली, उसे डेवलप करवाया, फिर खूबसूरत फेम में सजा कर बैठक खाने की दीवार पर लगवाया। तस्वीर के नीचे बड़े अक्षरों में रायबहादुर, कृष्ण बहादुर प्रसाद, नारायण सिंह जी लिखा था। मोहित बाबू द्वारा लगाई अपने पिता बृजराज बाबू की तस्वीर इसके सामने छोटी पड़ गई थी। प्रभाकर का मकसद भी यही था। उसने अपने परिवार का इतिहास भी लिखना शुरू किया था। इसके एक हिस्से का जब उसने एक रोज परिवार की बैठकी में पाठ किया, तो मोहित बाबू और रोहण को छोड़कर सब वाह-वाह कर रहे थे। प्रभाकर ने बतलायाµ ‘‘हमारे दादा बृजराज बाबू की पश्चिमपरस्ती ने हमारे परिवार को कैसे परंपरा की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से काट दिया। हमारा परिवार यदि गांव से पूरी तरह विच्छिन्न नहीं होता, तो जनतंत्र की इस व्यवस्था में हम राजनीति की ऊंचाइयों पर हो सकते थे। हम कहीं के नहीं रहे। न पूरे पश्चिमी बने, न ही भारतीय। हम त्रिशंकु बन गए।’’ प्रभाकर की दिलचस्पी नवगांधीवाद में भी थी। गांधी की किताब ‘हिन्द- स्वराज’ की वह भूरी-भूरी प्रशंसा करते। उनकी मानें, तो इसी विचारधारा के आलोक में एशियाई समाज एक नई ऊंचाई पर पहुंच सकता है। सावरकर के हिन्दुत्व और हिन्द-स्वराज के बीच उसने एक सेतु भी बनाया और एक रोज घोषणा की कि इसे केन्द्र में रखकर वह जल्दी-ही एक किताब लिखने वाले हैं। हिन्द-स्वराज ही एक कदम आगे बढ़कर ‘हिन्दू-स्वराज’ हो जाता है। धीरे-धीरे प्रभाकर ने घर में अपना आधार मजबूत कर लिया। रोहण की देखा-देखी उसने भी स्वयं को पठन-पाठन में झोंक दिया। वह अपने परिवार को ही संसार समझता था। उसका कहना था, हम अपने परिवार के माध्यम से पूरी दुनिया को समझ सकते हैं। परिवार दुनिया की सबसे पुरानी संस्था है और यह हमारे पुरखों के पुण्य-प्रताप का ही नतीजा है कि इस विरल समय में भी हमारा परिवार बना हुआ है। यह हमारी धरोहर है, जिस पर हमें नाज़ है। जरूरत है इसे मजबूत करने की, जिसका पहला तरीका परिवार में वैचारिक एकता कायम करना है। एक रोज बैठकी में उसके भाषण से ऊब कर मोहित बाबू ने प्यार से कहाµ ‘‘कुछ कमाई-धमाई की भी सोचो प्रभाकर बाबू! बच्चे बड़े हो रहे हैं। पढ़ाई महंगी हो रही है। कैसे संभालोगे सब कुछ। ये विचार वगैरह भरे पेट और भरी हैसियत पर ही शोभा देते हैं। यह सब और कुछ नहीं, भजन है भजन, और तुमने सुना ही होगाµ‘भूखे भजन न होहि गोपाला’। मैं किसी के लिए और जीने के तरीके पर टिप्पणी करना नहीं चाहता, लेकिन अनुभव से जो समझा है, वह कहना चाहता हूं कि खाली पेट वालों के विचार भी कुंठित होते हैं। सिदार्थ सुजाता की खीर खाकर ही स्वस्थ हुए और विचारक बने, सम्यक सम्बुक बने।’’ यह दूसरा अवसर था, जब मोहित बाबू को घर में ही करारा जवाब मिला, जो प्रश्न रूप में ही थाµ ‘‘आप कहना क्या चाहते हैं?’’ प्रश्न इस तेवर में था कि मोहित बाबू क्षणभर के लिए शर्मिन्दा हो गए। वह उठकर अपने कमरे में चले गए, जहां उनकी पत्नी सुलोचना आर्थराइटिस से पीड़ित बिछावन पर पड़ी थीं। हताश मोहित बाबू को लगा बेटी से बात करनी चाहिए, जो वाशिंगटन डीसी में रह रही है लेकिन फिर समय का ख्याल आया कि अभी वहां रात होगी और संभवतः बिटिया नींद के आगोश में होगी। कोठी के कोने के आउटहाउस में रहा चंदू का परिवार भी इस पूरे बदलाव से अछूता नहीं था। चंदू तीन पीढ़ियों से मोहित-परिवार की चाकरी कर रहा है। चंदू के दादा ही इस परिवार की चाकरी में आए थे। इसके एवज में उन्हें गांव में जमीन का एक टोपरा या टुकड़ा मिला था। अभी भी वह खेत चंदू, परिवार के कब्जे में है। चंदू के दो बड़े भाई गांव में ही रहते हैं, जिनमें से एक बीच वाले यानी मंझले, अब गांव के सरपंच हो गए हैं। सब से बड़ा गांव के हाईस्कूल में अनुसेवक है। मोहित बाबू की कृपा से ही उसे यह नौकरी मिली थी। चंदू अपने पिता से बृजराज बाबू के जमाने की घटनाएं कहानियों की तरह सुनता है। अजूबे इनसान थे बृजराज बाबू। इंसान को अपमानित करना अपराध समझते थे। किसी गरीब-गुरबे को कभी सताया नहीं। लोग कहते थे, उनकी अंगे्रजी सुनकर एक अंगे्रज नरभसा गया था… और इसी तरह की अनेक कहानियां। कुछ साल पहले तक चंदू की इन कहानियों में दिलचस्पी होती थी। लेकिन अब तो वह इन्हें सुनना भी नहीं चाहता। वह प्रायः गांव आता-जाता-रहता है और जब कभी गांव जाता है, कहानियों का पिटारा लेकर लौटता है। मुखिया- सरपंच के चुनाव में कैसे गांव के बड़े-बबुआनों के एकजुट होने के बावजूद गरीब-कमजोर तबके के लोग जीत गए। इससे बड़ी कहानी क्या होगी। अगर होगी भी, तो चंदू को अब उन सबमें कोई रुचि नहीं रह गई है। अब तो वह कई दफा प्लान बना चुका है कि इस कोठी से अपना नाता तोड़ ले और इसी मोहल्ले में साग-भाजी की दुकान खोल ले। पुख्ता आमदनी वाला धंधा है। कोठी के लोग तो खुद तबाह होते जा रहे हैं। अपना ही खर्चा संभालने में हांफ रहे हैं लोग। रात-दिन किच-किच मची रहती है। गई लाटशाही। कब कोठी ढह जाएगी, कोई नहीं जानता? अनुभव भइया तो कह रहे थे, दादाजी का जीवन देख रहे हैं हमलोग। संसार से उनके विदा होते ही यहां अपार्टमेंट खड़ा हो जाएगा। चंदू इस बार गांव गया तो उसके भाई ने उसे छोटी-छोटी दो किताबें दींµ‘बाबासाहेब का जीवन संघर्ष’ और ‘गुलामगिरी’। कहाµ ‘‘इसे पढ़ना। जीवन सुधर जाएगा।’’ चंदू ने किताबें रोहण बाबू को दिखलाईं। वह खुश हुए बल्कि ‘गुलामगिरी’ वाली किताब पढ़ने के लिए रात भर अपने पास रख ली। चंदू के आउटहाउस में अब दो किताबें भी थीं। वह इन्हें जल्दी ही पढ़ गया। अपने पिता को भी पढ़कर सुनाया। सुनकर पिता रोने लगे। कहाµ ‘‘भाई ने ठीक कहा था बेटा। इस किताब की बातें सुने बिना मर जाता तो सचमुच मुक्ति नहीं मिलती। अब इत्मीनान से मरूंगा। अब हमको विश्वास हो गया एक रोज दुनिया में नियाव जरूर आएगा। गुलामी बहुत जल्दी खत्म होगी बेटा। बहुत जल्दी।’’ कुछ इन्हीं दिनों की बात थी कि पार्लियामेंट में प्रधानमंत्राी ने समाज के पिछड़े तबकों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की घोषणा की। इस घोषणा ने समाज में कुछ समय के लिए भूचाल ला दिया। मोहित बाबू के परिवार में भी रोज़ इसकी समीक्षा होने लगी। घोषणा के तीसरे दिन ही ‘टाइम्स आॅपफ इंडिया’ में रोहण का एक लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उसने इसका जोरदार समर्थन किया था। मोहित बाबू भी इस मामले पर चुपचाप रहे क्योंकि उनके रजनीश ने कभी आरक्षण के समर्थन में एक भाषण दिया था। यूं भी उनका मानना था कि समाज में बदलाव तो होते ही रहेंगे। होते रहने चाहिए भी। रोहण के तर्कों से वह लगभग सहमत थे। लेकिन बाकी पूरा परिवार एकबारगी इसके विरोध में उतर आया। चूंकि रोहण ने अपना पक्ष प्रदर्शित कर दिया था, इसलिए सब, जब-न-तब उस पर कटाक्ष करते रहते। प्राइममिनिस्टर सनकी हैं, बिला-वजह उसने मुल्क को गृहयुद्ध की ओर धकेल दिया है।’’ दिवाकर बाबू ने बहुत आहत होकर एक रोज कहा। रोहण मंद-मंद मुस्कुराता रहता। और-तो-और, उसकी भाभी शुभांगिनी, जो हमेशा रोहण के बारे में बहुत ऊंचा ख्याल रखती थी, ने एक रोज़ चाय की प्याली बढ़ाते हुए कहाµ ‘‘रोहण बाबू! आपके लेख की भाषा तो बहुत खूब है, लेकिन कन्टेन्ट पर आपको पुनर्विचार करना चाहिए, सोचना चाहिए। सरकार के इस फैसले से इतनी हिंसा फैल गई, इस पर आपको कुछ कहना चाहिए। कुछ सोचिए, इस दिशा में।’’ ‘‘सोचा है भाभी, खूब सोचा है। आप ही कहिए न, हिंसा कौन कर रहे हैं? किनका स्वार्थ आहत हो रहा है, इसे भी तो देखिए।’’ शुभा सहमत नहीं थी। अनुभव भाई और उसने देर तक इस विषय पर मगज़मारी की और कुल मिलाकर इसे जातिवादी कार्रवाई माना। चुपचाप मूरत की तरह बैठी इरावती की बेटी दीप्ति और अर्चना के बेटे अविनय ने भी मुंह खोलाµ ‘‘हमारे कालेज में भी इस पर बहस होती है भईया। हमारे सर कहते हैं तुम लोगों को झाडू देने और बूट पालिस करने के लिए तैयार रहना होगा। अब यही सब काम तुम लोगों के लिए बचेगा।’’ रोहण ने दोनों को पास बुलाया। प्यार से कहाµ ‘‘कोई काम खराब नहीं होता अविनय। हमने चुनौती भरे कामों के लिए पारिश्रमिक कम और नज़रिया नीचा तय कर दिया है। इन कामों के लिए ज्यादा मजदूरी मिलने लगेगी, तब बड़े-बड़े लोग ये काम करने लगेंगे। कलम चलाना ही दुनिया का सबसे बड़ा काम नहीं है भई! सुबह-शाम इसे लेकर तंज सुनना रोहण की नियति हो गई थी लेकिन एक रोज़ इस विषय को लेकर घर में सचमुच बावेला मच गया। इससे भी कुछ ज्यादा। हुआ यह कि तब शाम की बैठक में चंदू चाय की बड़ी-सी ट्रे लेकर आया, तब प्रभाकर की पत्नी इरावती ने कहाµ ‘‘कहिए चंदू बाबू! अब आप ही मालिक होंगे, और हम लोग आपके सेवक।’’ रत्नाकर की पत्नी अर्चना ने जोड़ाµ ‘‘भई, मैं तो कल से ही चंदू के आउटहाउस में सुबह की चाय पहुंचाया करूंगी। अभी से आदत डालनी होगी। इसका भाई गांव का सरपंच हो गया है, कौन जाने कल चंदू मिनिस्टर हो जाए?’’ इतना भी नहीं था कि चंदू इन वक्रोक्तियों को समझता नहीं था। काम से खाली बचे समय में अखबार का कोना-कोना चाट जाता था। उसे पता था कि इस सरकारी फैसले से कोठीदार लोग बेचैन हैं। वह इन लोगों की बेचैनी से ही सरकारी फैसले की गुणवत्ता आंकता था। कुछ तो है इस फैसले में कि ये बड़े लोग तिलमिला गए हैं। उनकी बेचैनी और तिलमिलाहट चंदू को आश्वस्त करती थी, कुछ सुकून भी देती थी। इसलिए सबको चाय थमाते हुए वह लगातार मुस्कुरा रहा था। लेकिन प्रभाकर की पत्नी मनीषा ने जब पूछाµ ‘‘क्या चंदू बाबू, जानते हो देश में क्या होने वाला है?’’ तब चंदू पहली दफा सधी आवाज में बोला मानो कोई उद्घोषणा कर रहा होµ ‘‘हम लोगों का राज आने वाला है मैडम! गरीबों का राज आने वाला है।’’ वह खिल-खिलाकर हंसने भी लगा। इरावती, अर्चना, रोहण ने इस खिलखिलाहट में उसका साथ दियाµ ‘‘अरे… ररे… यह चंदू तो बहुत चालू चीज़ है।’’ इरावती की खिलखिलाहट कुछ तेज़ हो गई। ‘‘सब समझता है चंदू।’’ अर्चना ने तस्दीक की। रोहण ने गौर किया प्रभाकर काका जल-भुन गए हैं। उनका चेहरा कुछ विवर्ण हुआ जा रहा था। चंदू की हंसी मानो उनके कलेजे पर हंसिया चला रही थी, ऐसा महसूस किया। वह अचानक उठे, अभी-अभी मिली चाय की प्याली को ड्राइंगरूम के सेंट्रल टेबल पर रखा, चंदू की तरपफ बढ़े और तमतमाहट से भरा एक जोरदार तमाचा उसे जड़ दियाµ ‘‘हरामी! स्साला! मुंह लड़ाता है। बदतमीज कहीं का। खी-खी करता है मादरचो…’’ देखते-देखते ऐसा हो जाएगा, किसी को उम्मीद नहीं थी। सब-के-सब एकबारगी सकते में आ गए। दिव्या, अनिकेत को भी लगा कि उसके पापा ने कहीं कुछ गलत कर दिया। लेकिन वे चुप रहने के सिवा और कर ही क्या सकते थे? वे हतप्रभ थे कि उनके पापा ने अपने जेहन में कब से ये गालियां बचाकर रखी थीं अन्यथा इस परिवार के बात-व्यवहार में गालियां शामिल नहीं थीं। सबको यह जरूर लगा कि कुछ गलत हुआ है, लेकिन आवाज़ रोहण ने उठाईµ ‘‘कक्का! आप को चंदू से मुआफी मांगनी होगी। बहुत गलत किया है आपने बहुत! चंदू कोई बच्चा नहीं है, दो बच्चों का बाप है, आपकी तरह। उसकी भी इज्जत है।’’ इरावती और अर्चना को भी लगा कि हंसी-ठिठोली के बीच चंदू को मारना नहीं चाहिए था। प्रभाकर बाबू ने तो चाय का मज़ा ही किरकिरा कर दिया। बैठक के शोर-शराबे को सुनकर बुजुर्ग मोहित बाबू भी आ गए। दिवाकर बाबू भी। दरवार भर गया। बीच दरवार में चंदू रुआंसा और कुछ-कुछ तमतमाया सा खड़ा था। प्रभाकर और रोहण में अब तक नोक-झोंक शुरू हो गई थी। मोहित बाबू कुछ समझ पाते कि उससे पहले ही रोहण की तर्जनी प्रभाकर बाबू की ओर उठी। ‘‘लाॅर्ड समझते हैं अपने को। ठीक है चंदू नहीं रहेगा इस घर में। इसे सैकड़ों घर मिल जाएंगे, लेकिन आपको-हम लोगों को चंदू नहीं मिलेगा। आपकी तरह के लोगों ने ही गांव वालों को नक्सली बनाया है। हिप्पोक्रेट कहीं के…’’ पिता को देखकर प्रभाकर को मानो शह मिल गई। वह जानता था, रोहण उनका दुलारा है। वह बिफरते हुए बोलेµ ‘‘हां, हां, अभी चला जाए हरामी की औलाद। इस पाजी को लोगों ने सिर चढ़ा रखा है। बहुत मिल जाएंगे चंदु-भंदु। मुंहलगी बात करेगा, तो थप्पड़ खाएगा ही। हमारी रगों में भी हमारे पुरखों का लहू है।’’ ‘‘हमने कौन-सी मुंहलगी की है काका। हम तो…’’ ‘‘फिर बोलता है… फिर बोलता है अब तुम मुझसे बहस करेगा?’’ ‘‘बहस नहीं, बात करता हूं काका ।’’ ‘‘तुम बात करेगा मुझसे? तुम्हारी हैसियत मुझसे बात करने की हो गई? बात करेगा मुझसे? तुम्हारी ऐसी हैसियत?’’ कहते-कहते प्रभाकर एक बार फिर चंदू पर टूट पड़े। लेकिन इस बार उनका गट्टा चंदू की मजबूत हथेली में था। प्रभाकर बाबू कुछ कहते या करते कि चंदू ने गुस्से और नफरत से उन्हें ज़ोर से पीछे धकेला। वह लड़खड़ाते हुए सोफे पर गिरे लेकिन उनका चश्मा छिटक कर फर्श पर गिरा और एक धीमी-सी आवाज़ गूंजीµ ‘चन्न…’ घर में कोहराम मच गया। इस परिवार में अब यह भी होना था। मनीषा और इरावती ने प्रभाकर बाबू को संभालने की कोशिश की। वह चोट से ज्यादा अपमान से आहत थे। नौकर ने मालिक को धकिया दिया था। अब असमंजस आने ही वाले थे कि दिवाकर बाबू उठे और चंदू से भिड़ गए। दिवाकर बाबू ने उस पर दो-तीन घंूसे ही चलाए होंगे कि चंदू ने उनका गट्टा भी मजबूती से पकड़ लिया। दिवाकर बाबू ने किसी हाथी की तरह चिंघाड़ लगाईµ ‘‘देख रोहण देख! अपने चंदू की हरकत। साला तीन पीढ़ियों से हमारे ही कुल का नाज़ घेंप कर मेरी ही हत्या करना चाहता है। नक्सलाइट बनता है स्साला और सब तुम्हारी ही शह पर हो रहा है। वे कांपने-थरथराने लगे। उनका चेहरा उच्च रक्तचाप से अचानक ऊंचा हो जाने से लाल-भभूका हो गया। नथुने लुहार की भट्टी की तरह लगातार फड़फड़ा रहे थे। आवाज़ फटी जा रही थीµ ‘‘मार! मार दे मुझे, सुअर की औलाद! यही दिन देखना था, इस उमर में। अब यही सब होगा, इस घर में…’’ रोहण की मां ने छाती पीटना शुरू कियाµ ‘‘हो गया अनर्थ… हो गया। अब क्या बाकी रखा है रोहण। देख। अरे निकाल बंदूक और मार दे बाप को गोली। इज्जत तो मिट ही गई माटी में।’’ इरावती, अर्चना सहित सभी महिलाओं को भी लगा कि चंदू ने प्रभाकर बाबू को धकेल कर और दिवाकर बाबू का हाथ पकड़ कर अच्छा नहीं किया है। रोहण चुपचाप खड़ा था, स्थितियों को निहारता हुआ। …कि अचानक उसके तेवर गरम हुए। पूरी ताकत से वह चिल्लायाµ ‘‘चंदू!! हाथ छोड़ बाबूजी के।’’ वह तेजी से चंदू की ओर लपका और उसका झन्नाटेदार तमाचा उसके गाल पर ‘सड़ाक की आवाज़ के साथ जमा। चंदू ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। उसकी आंखों में बस एक छोटा-सा सवाल कौंधा- ‘‘रोहण बाबू! …तुम भी……?’’ Bio Social Latest Posts By: प्रेमकुमार मणि प्रेमकुमार मणि (जन्म: 25 जुलाई, 1953)ःहिंदी के प्रतिनिधि कथाकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि के चार कथा संकलन ‘अंधेरे में अकेले‘ (1990), घास के गहने, (1993), खोज तथा अन्य कहानियां (2000), उपसंहार(2008) और एक उपन्यास ‘ढलान‘ (2000) प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त उन्होंने साहित्य, सांस्कृति तथा समसमायिक सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर भी विपुल लेखन किया है। उनके लेखों के तीन संग्रह ‘खूनी खेल के इर्द-गिर्द (2000), ‘सच यही नहीं है‘(2003) तथा ‘चिंतन के जनसरोकार‘ (2016) भी प्रकाशित हैं।कथा लेखन के लिए श्रीकांत वर्मा पुरस्कार से सम्मानितण् उनकी पहचान उत्तर भारत के एक प्रमुख समाज-राजनीतिकर्मी के रूप में भी है। See all this author’s posts Share this:Click to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on Twitter (Opens in new window)Click to share on Google+ (Opens in new window)Click to share on WhatsApp (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new 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