महिला लेखन की वर्तमान पीढ़ी: स्त्री लेखन, एक पुनर्पाठ: समीक्षालेख (संजीव चंदन) संजीव चंदन October 28, 2016 विमर्श-और-आलेख 1457 हिंदी की पांच महिला रचनाकारों की कहानियों को पढ़ना और उनके आधार पर युवा पीढ़ी के लेखन के केंद्रीय स्वर और सरोकार को समझना एक तुलनात्मक आधारभूमि पर सम्भव हो सका है और सुकूनदाई भी है कि हिंदी की रचनाकार ‘स्त्रीवाद के नारों ‘ से प्रभावित हुए बिना ‘पितृसत्तात्मक समाज ‘ की जटिल संरचना को समझती हैं, अपनी पूर्वाजाओं की तुलना में इन रचनाकारों के समय का यथार्थ जटिल हुआ है, गाँव अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं, मध्यकालीन प्रवृतियाँ अपने को पुनर्जीवित भी कर रही हैं, ‘पितृसत्ता ‘ पर यदि कुठाराघात हुए हैं, तो उसके वर्चस्व की स्थितियां और भी सूक्ष्म हुई हैं। मध्यम वर्ग फैला है, तो गरीबी उसी तुलना में और विकराल हुई है।‘ हमारे समय की पांच महिला लेखिकाओं के साहित्यिक पुनर्पाठ पर ‘संजीव चन्दन‘ का समयानुकूल तुलनात्मक आलेख …. महिला लेखन की वर्तमान पीढ़ी: स्त्री लेखन, एक पुनर्पाठ संजीव चंदन एक ऐसे समय में जब , महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के खिलाफ एक व्यापक ‘जन -आक्रोश ‘ उभरता प्रतीत होता है, देश की राजधानी सहित शहरों , महानगरों में स्त्री के प्रति हिंसा के खिलाफ लोग सडकों पर हैं, नारे लग रहे हैं , सत्तर -अस्सी के दशक के ‘स्त्रीवादी आन्दोलनों ‘ का सा माहौल है, हिंदी की पांच महिला रचनाकारों की कहानियों को पढ़ना और उनके आधार पर युवा पीढ़ी के लेखन के केंद्रीय स्वर और सरोकार को समझना एक तुलनात्मक आधारभूमि पर सम्भव हो सका है और सुकूनदाई भी है कि हिंदी की रचनाकार ‘स्त्रीवाद के नारों ‘ से प्रभावित हुए बिना ‘पितृसत्तात्मक समाज ‘ की जटिल संरचना को समझती हैं, अपने लेखन से उसकी गुत्थियाँ खोलती हैं। यहाँ ‘स्त्रीवाद ‘ से मेरा तात्पर्य ‘शास्त्रीय अर्थों में स्त्रीवाद नहीं है, जो एक अनुशासन है और समाज को समझने की एक मुक्कम्मल दृष्टि है .यहाँ स्त्रीवाद से मेरा तात्पर्य स्त्रीवाद के उस अर्थ से है, जो पितृसत्ता की जगह पुरुष को ही अपना शत्रु मान बैठता है। या उससे भी जो समाज के वर्गीय , जाति -धर्म आधारित हकीकतों से अलग ‘स्त्रीवाद ‘ को एक नारे के रूप में कामनसेन्स में घर कर देता है। पांच कहानीकारों की लगभग 60 कहानियां ( सम्मिलित तौर पर ), 2012 में प्रकाशित कहानी संग्रहों में प्रकाशित हैं और एक अनुमान है , लेखिकाओं की लेखकीय सक्रियता के समय के आधार पर, कि ये सब 20वीं शताब्दी के बाद की कहानियां हैं, 21वीं शताब्दी के पहले दशक में लिखी गईं, इनके कथा का कैनवास भी लगभग इसी समय पर फैला है। इस आलेख में मेरा प्रयास है कि मैं इन कहानीकारो की और इनकी कहानियों की एक खास कालखंड में उपस्थिति को समझ सकूं और इनके कथा-वितान के माध्यम से ‘महिला-लेखन ‘ की नई पीढ़ी के विकास को समझ सकूं . यदि इन पांच रचनाकारों के उपन्यास मेरे ‘आलोच्य ‘ होते तो मेरे लिए ज्यादा सुविधा होती , लेकिन मुझे इनकी लगभग ६0 कहानियों को अपने सामने रखना है। गीतांजलि श्री , अल्पना मिश्र , जय श्री राय , मनीषा कुलश्रेष्ठ और अनीता भारती के कथा संग्रह क्रमशः ‘यहाँ हाथी रहते थे ‘, ‘कब्र भी कैद औ जंजीरें भी ‘, ‘तुम्हें छू लूं जरा ‘, ‘गन्धर्व गाथा ‘ और ‘एक थी कोटेवाली तथा अन्य कहानियाँ ,’ हिंदी कथा-साहित्य की युवा पीढ़ी की लेखिकाओं के लेखन का प्रतिनिधित्व करते हैं , जो पिछले 10-12 सालों में हिंदी साहित्य में प्रमुख रूप से दर्ज हुई हैं . हो सकता है कि इनमें से कोई शिल्प के स्तर पर ज्यादा महारत हासिल कर चुकी हो या कोई वर्तमान की राजनीतिक -सामाजिक जटिलताओं को दूसरे से बेहतर समझती हों, अभिव्यक्त करती हों, कोई अपनी जातीय वर्गीय यथार्थ को सीधे -सपाट और गहरे जुडाव के साथ अपनी कथा में व्यक्त करती हो तो कोई इन यथार्थों को दूर से देखते हुए , भागीदार न होने की सीमा के कारण व्यक्त करने में कभी थोडा चुक जाती हों , लेकिन पांच कहानीकार एक समूह के रूप में हिंदी के ‘महिला लेखन’ की युवा पीढ़ी की रचना-प्रवृत्तियों और उनके सरोकारों , उनकी शैली और कथ्य को प्रतिनिधित्व करती हुई मानी जा सकती हैं। अपनी पूर्वाजाओं की तुलना में इन रचनाकारों के समय का यथार्थ जटिल हुआ है, गाँव अपने अस्तित्व की अंतिम लड़ाई लड़ रहे हैं, पूँजी ने समाज और सत्ता पर अपना वर्चस्व पूरी तरह कायम कर लिया, अस्मिताओं का उभार और उनके बीच आपसी संवाद और टकराव की स्थितियां हैं, स्वतंत्रता , समानता और बंधुत्व के साथ आधुनिकता ने अपनी जडें जमाई हैं, तो पुराने मूल्यों और जड़ताओं के बने होने से उनसे प्रभावमुक्ति की जद्दोजहद भी बढ़ी है, मध्यकालीन प्रवृतियाँ अपने को पुनर्जीवित भी कर रही हैं, ‘पितृसत्ता ‘ पर यदि कुठाराघात हुए हैं, तो उसके वर्चस्व की स्थितियां और भी सूक्ष्म हुई हैं। मध्यम वर्ग फैला है, तो गरीबी उसी तुलना में और विकराल हुई है। ये लेखिकाएं भी ‘फैले मध्यम ‘ वर्ग से ही आती हैं, जो प्रायः महानगर केन्द्रित भी हैं। इनके पास सीमान्त पर जी रही बड़ी आबादी की स्त्रियों की तुलना में ‘ मुक्ति ‘ के बड़े और व्यापक अवसर हैं, तो इनके सामने ‘पितृसत्ता ‘, पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद से मिलती चुनौतियाँ भी ज्यादा सूक्ष्म और जटिल हुई हैं। सुखद है कि इनकी कहनियाँ इन जटिलताओं को अभिव्यक्त करती हैं , ‘यूटोपिया भी रचती हैं। ‘ इस आलेख में मैं इन कथा संग्रहों के जरिये ‘महिला कथा लेखन’ में ‘परिवार , विवाह और स्त्री यौनिकता’ तथा ‘विकास और राजनीति के सवाल’ को दो अलग-अलग खण्डों में देखने का प्रयास कर रहा हूँ. इस क्रम में ‘निजी और सार्वजनिक’ दोनों दायरे को महिला लेखन किस रूप में अभिव्यक्त कर रहा है, स्पष्ट होगा . यहाँ मैं यह भी स्पष्ट करता चलूँ कि निजी और सार्वजनिक का कोई अनिवार्य ‘विभाजन’ मैं नहीं कर रहा हूँ, और न ही यह ‘स्त्रीवादी व्याख्या पद्धति’ हो सकती है. इस आलेख में बस एक सुविधा के लिए इन दो उपशीर्षकों में मैं इन कहानियों को देखने की कोशिश करूंगा . परिवार, विवाह और स्त्री यौनिकता फ्रेडरिक एंगल्स ने अपनी बहुचर्चित किताब ‘द ऑरिजिन ऑफ दी फैमिली, प्राइवेट प्रापर्टी एंड स्टेट ‘ ( 1884) में स्थापित किया है कि निजी सम्पति के उदय और उस पर अधिकार की वंशानुगत व्यवस्था के क्रम में स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण प्रारंभ हुआ ,जो कि उन पर पुरुष वर्चस्व को तय करने का कारण बना। यह नियंत्रण उनकी गत्यात्मकता पर रोक, उनकी यौनिकता पर नियंत्रण और इस क्रम में अपनी ही देह तथा समाज के सभी संसाधनों ( आर्थिक तथा सांस्कृतिक ) से उनका वंचन करता है . स्त्रियों के लेखन में इसी वंचन से टकराव , उनका निषेध, केन्द्रीय विषय रहा है . 19 वीं शताब्दी के भारतीय महिला -लेखन , (जब सावित्री बाई फुले, तारा बाई शिंदे की राजनीतिक और सामाजिक तथा बाद में रुकैया शाखाबत की साहित्यिक अभिव्यक्ति के केंद्र में इस वंचन से मुठभेड़ केन्द्रीय तत्व रहा है), से लेकर अब तक ‘परिवार ‘ ‘विवाह ‘ ‘विवाह के भीतर सम्बन्ध ‘ , विवाह के बाहर स्त्री-पुरुष के रिश्ते आदि महिला लेखन के ‘प्रमुख विषयों ‘ में रहे है. खासकर प्रारंभिक दौर में हिंदी का महिला लेखन उन मध्यमवर्गीय महिलाओं का लेखन रहा है, जो ‘निषिद्ध शिक्षा ‘ का स्वाद चख चुकी थीं , गांवों से नगरो का मध्यमवर्गीय जीवन में शिफ्ट हुई थीं, स्वयं या उनके पति सरकारी /गैर सरकारी नौकरियों में तन्ख्वाह्याप्ता थे . इन्हें अपनी पूर्वजाओं की तरह रसोई में बंद , चौखटे के भीतर लेखन की बाध्यता नहीं थी , ये बाहरी संसार में आवाजाही कर रहीं थीं , हालाँकि ‘विनोदिनी दासी ‘ की तरह यह आवाजाही ‘बंद कपाट’ के बाहर की आवाजाही नहीं थी,जहाँ वे पुनः आ नहीं सकती थीं , बल्कि ‘अदृश्य चौखटे ‘ के विस्तार के भीतर ,अपनी पूर्वजाओं से आंशिक रूप से अधिक स्वतंत्र घूम सकती थीं, और इसी स्पेस से लिख सकती थीं . इस तरह स्वातंत्र्योत्तर महिला लेखन के विषय ‘परिवार’ के दायरे में स्त्री-पुरुष समानता से बढ़ते हुए , ‘परिवार और विवाह’ के बाहर स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, ‘बिखरते संबंधों ‘ के प्रभाव, उसके मनोविज्ञान, ‘बाहर –भीतर’ ( घर –घर के बाहर ) का द्वंद्व आदि रहे , जो धीरे-धीरे ‘देहमुक्ति , अर्थात देह पर अपने अधिकार ‘ जैसे विषयों को शामिल कर अधिक ‘बोल्ड’ होते गए. चुकी कवयित्री / लेखिका अनामिका के शब्दों में ‘ देह ही स्त्री शोषण का प्राइम साईट है ,’ इसलिए लाज़िम था कि ‘देह के सवाल’ हिंदी महिला लेखन का केन्द्रीय सवाल बनता , खासकर तब , जब हिंदी –समाज की महिलाएं ‘ वर्जित प्रदेशों’ में प्रवेश कर चुकी थीं. ‘ वर्जित प्रदेशों’ से मेरा तात्पर्य ‘शिक्षा’ सहित हर उस ‘संसाधन’ से है , जिनसे स्त्रियाँ ‘नियंत्रित यौनिकता’ के कारण वंचित की गई थीं . ‘ यथार्थवादी स्त्री –लेखन में सपनों के समावेश से उनके कथा संसार को एक नया आयाम मिला , जो खासकर १९५० के बाद ‘छिपी इच्छाओं’ और ‘ विरासती भय’ को उनके लेखन के केंद्र में ला सका’ ,यह बात , जितना इटली और यूरोप के ‘महिला –लेखन’ के संदर्भ में ओरियाना पौल्सी के हवाले से सत्य है उतना ही हिंदी के महिला लेखन के संदर्भ में भी. इस आलेख में ‘विवेच्य’ लेखिकाओं का लेखन हालांकि पांचवें दशक के बाद ५ और दशक बीत जाने के बाद का है , लेकिन परिवार , विवाह और स्त्री –यौनिकता के प्रसंग में उनका ‘विरासती भय’ और ‘छिपी इच्छाएं’ यथावत हैं. हालाँकि सपनो और यथार्थ का दायरा ‘ महिला –लेखन’ की उनकी पूर्वजा रुकैया शखावत हुसैन से काफी जयादा व्यापक हुआ है, इसीलिए ‘देहमुक्ति और यौनिकता’ के सवाल पर वे और भी अधिक स्पष्ट और ‘यथार्थवादी’ हुई हैं. उन्हें ‘रुकैया’ की तरह सपने में सबकुछ उलटे फ़ार्म में देखने की जरूरत नहीं है, बल्कि वे ‘ वर्जित सुख’ के आनंद के लिए तैयार पीढ़ी की कथा कह रही हैं, जिन्हें इसके लिए स्पेस भी उपलब्ध है. हाँ, ‘ विरासती भय और अपराध बोध की अनुकूलता से मुक्ति’ की जरूरत इस पीढ़ी को भी यथावत है. ‘ वर्जित सुख’ शीर्षक कहानी में जयश्री राय की नायिका विवाह से बाहर अपने व्यक्तित्व को आकार लेने से सुखी जरूर है , उसे अपने खो चुके व्यक्तित्व का अर्थ मिल जाता है , लेकिन खुद के द्वंद्व में घिरी उसे प्रेमी की ‘नंगी पीठ ‘ में ‘पति की चौड़ी छाती’ दिखती है. वह इस ‘वर्जित सुख’ की प्राप्ति के आन्दोत्सव के अवसर पर अपराधबोध से घिरी जा रही है, जिससे उसे मुक्ति तभी मिलती है , जब वह सुदूर विदेश में देर रात को पति के फोन पर एक महिला की नींद में डूबी आवाज और बगल से पति की ‘झल्लाहट’ सुनती है . जयश्री राय के इस संग्रह की नायिकाएं अपनी ‘यौनिकता’ के उत्सव की पक्षधर हैं. नायिकाएं अपने संबंधों में अपनी एजेंसी के साथ सक्रिय होती हैं, रिश्तों के प्रति , स्त्री-पुरुष रिश्ते में अन्तर्निहित ‘पितृसत्ता’ के प्रति वे सचेत हैं, बुद्धिमान समझदारी से लैस. रिश्तों में उपस्थित पुरुषवादी दंभ और स्वार्थ को ‘ औरत जो नदी है ‘ का नैरेटर अपने शब्दों में अभिव्यक्त करता है , ‘ उसे पूरी तरह पाने की , जीने की दुर्दांत इच्छा में मैं प्रायः उसे बिस्तर पर रौंद डालता था , उसमें गहरे उतरकर उसकी सीमा थाह लेना चाहता था . मैं कभी कितना नादान हुआ करता था , क्षितिज की धूमिल रेखा को आकाश की हद मान बैठा था . ……………………………………………. उसमें स्खलित होकर मैं उसके अन्दर इतना फ़ैल जाना चाहता था कि फिर वह न रहे ‘मैं बन जाए . ओह !मेरा विवेकहीन अहंकार , औरत को उसके स्त्रीत्व से बेदखल कर देने की पुरुष की ये सनातन साजिश !’ कहानी की नायिका अपने अन्तरंग पुरुष की स्व-लिप्तता के प्रति दुःख व्यक्त करती है, अपनी कामनाओं (कामनाएं जितना दैहिक है उतना ही देह से मुक्त भी ) का इजहार करती हुई कहती है , ‘ मेरा सबकुछ जस का तस रह गया है अशेष . तुम मुझे लेते क्यों नहीं ? मैं तुम पर पूरी तरह ख़त्म हो जाना चाहती हूँ. तुम मुझे सूद –मूल में कमा लो , मैं तुम पर पाई-पाई खर्च हो जाना चाहती हूँ.’ नायिका प्यार के प्रति रूमानियत से भरी भी नहीं है वह जानती है जन्नत की हकीकत और अपनी अंतरंगता के साथ ही अपने साथी को उसकी तुच्छता के अहसास से उसे भर भी देती है , वह विलाप कर उठता है , ‘ मैं स्तंभित खड़ा रह गया हूँ धीरे-धीरे स्वयं को एक लिंग में आपद-मस्तक परिवर्तित होते चले जाने के भयानक अनुभव के साथ .’ जय श्री ‘प्रेम की कहानियां’ लिखती हैं, स्त्री के उद्दाम प्रेम और निर्द्वंद्व वासना की कहानियां भी . ‘तुम्हें छू लूं जरा’ की नायिका उत्पीडन और विवाह में बलात्कार झेलकर , उससे मुक्त होती है और प्रेम की तलाश में , प्रेम पाने और देने की आकांक्षा में नायक से जुड़ती है, जिसे ‘देह’ से मुक्त प्रेम का सौगात सौपती है, ‘ अब कुछ मत कहना प्रणय ! जरूरत नहीं कि स्त्री –पुरुष के जिस्म हमेशा एक प्रार्थना में दो हथेलियों की तरह जुडें , वे एक ही दुआ में दो हाथ की तरह अलग-अलग रहकर भी एक सनातन साथ में हो सकते हैं .’ नायिका के लिए ‘देह’ एक त्रासदी सी रही है , जिसे अपने प्रेम से वह दूर रखना चाहती है . इन दोनों प्रसंगों में ‘देह’, ‘प्रेम, ‘वासना’ के स्तर पर कुंठा रहित स्त्री को रचते हुए लेखिका को स्त्रीवादी आलोचना के डंडे से पीटा भी जा सकता है. अपनी पूरी चेतना के बावजूद नायिकाएं ‘पुरुष’ के प्रेम में मिटने को तैयार हैं, ‘मीरा’ होना चाहती हैं. लेकिन वे एक आसान शिकार नहीं हैं. वे अपने पैरों पर खड़ी, उच्च मध्यमवर्गीय महिलाएं हैं, जो अपने ‘प्रेम’ का निर्णय और चुनाव स्वयं कर रही हैं, पहल कर रही हैं . ‘ द डायलेक्टिक ऑफ सेक्स’ की लेखिका श्लुमिथ फायरस्टोन के अनुसार . प्रेम स्त्री के शोषण के लिए शायद संतानोत्पति से अधिक दुखदाई ‘धूरी’ है . आलोच्य कहानियां ‘निर्वात’ की कहानियां नहीं हैं, उसकी नायिकाएं इस समाज की प्रतिनधि हैं, जहाँ पितृसत्ता स्त्री-पुरुष दोनों को गढ़ रही है , और यह कोई एकांगी प्रक्रिया नहीं है, निरंतर स्त्रीवादी आंदोलनों के साथ इसका संवाद , मुकाबला और तदनरूप ‘परिष्कार’ या ‘पुनः अविष्कार’ की प्रक्रिया है. इस पितृसत्तात्मक संरचना के विविध स्तरों से ‘विवेच्य’ लेखिकाओं की कहानियां आकार ले रही हैं, उनकी नायिकाएं , नायक आ रहे हैं. इनकी कहानियां कहते हुए लेखिकाएं एक खास स्पेस और टाइम में जीते पात्रों को सहानुभूति के साथ उपस्थित करती हैं. जयश्री राय के विवेच्य संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में से एक ‘पिंडदान’ के दो बुजुर्ग अपनी दमित यौनिकता के शिकार हैं और वह अपनी सेविका के साथ , जो कुछ भी कर रहे हैं, वह स्त्री –उत्पीडन के दायरे की घटना है. नायक बुजुर्ग अपनी ‘दमित –यौनिकता’ और पत्नी के प्रति अपने लगाव की स्मृतियों से संचालित हो रहा है, जिसे पढ़ते हुए जंतर –मंतर पर उसके खिलाफ नारे लगाने की इच्छा नहीं होती , उसके प्रति धिक्कार भी नहीं ,पाठक ‘करुणा’ और ‘दैन्य’ से भर जाता है. ‘निषिद्ध’ का कथा विन्यास हालांकि ‘लोलिता’ की याद दिलाता है, लेकिन लेखिका एक युवा होती लडकी के ‘विचलित यौन –आग्रह’ का शिकार पुरुष की कहानी का चुनाव कर समाज के जटिल संबंधों और समीकरणों को स्पष्ट करती हैं. कानून की भाषा में ‘पुरुष’ ‘नाबालिग लडकी’ के शोषण का इसलिए जिम्मेवार है कि वह उसकी ‘विचलित यौन इच्छाओं’ को देखते हुए एक अच्छे पिता की भूमिका न निभाकर ‘पुरुष’ की वासना के मनोविज्ञान में डूब-उतर रहा है . लेकिन ‘निषिद्ध’ के पुरुष से आपको सहानुभूति हो सकती है , क्योंकि वह इस दुरूह ‘पितृसत्तात्मक’ समाज का स्वयं भी उपज है और उसकी त्रासदी का शिकार है , ‘नाबालिग लडकी’ की आत्महत्या भी इस कहानी से उपजे दुःख में पाठकों को शामिल कर लेती है और एक सवाल भी कि ‘यौनिकता’ को हम किस रूप में समझे और उसे समाज की सहजता में शामिल करें. अल्पना मिश्र के विवेच्य कथा संग्रह ‘कब्र भी कैद औ ‘ जंजीरें भी’ की कहानियां चुकी दूसरी पृष्ठभूमियों पर लिखी गई हैं , इसलिए ‘ विवाह , परिवार और स्त्री यौनिकता’ को समझने के लिए यहाँ मैं उनके दूसरे कथा संग्रहों की कहानियों को देखने का छूट ले रहा हूँ, इसलिए भी कि ऐसा करने की सुविधा मेरे पास उन संग्रहों को मेरे पास उपलब्ध होने के कारण है. उनकी सम्बंधित कहानियां , निम्न मध्यमवर्ग के परिवेश पर लिखी गई हैं, जहाँ सघन पारिवारिकता और संश्लिष्ट शोषण में जीती पात्राएं –पात्र हैं, जो जयश्री राय तथा मनीषा कुलश्रेष्ठ के ‘मुख्य कथा परिवेश ‘ और कथा –पात्रों के वर्ग से भिन्न जीती हैं. अल्पना मिश्र की वे नायिकाएं बचपन से ‘यौन –शोषण’ की शिकार हैं, या साथी , रिश्तेदार पुरुषों की ‘यौन कुंठाओं’ से प्रताड़ित हैं, उनके साथ या उन जैसों के साथ जीने के लिए विवश भी. वे छोटी पूँजी से चल रही कान्वेंट स्कूलों की लड़कियां हैं या रोजमर्रा की जिंदगी में अनिच्छित निगाह और छुअन को झेलती महिलाएं, जिनके स्मृति लोक में भी ऐसी ‘लिजलिजे अहसास’ कैद हैं . अल्पना मिश्र के पहले कथा संग्रह ‘ भीतर का वक्त’ की कहानी ‘ कथा के गैर जरूरी प्रदेश में’ की अरुंधती की स्मृतियों में गंधाते ये अहसास उसके बचपन से ही जज्ब हैं, जो उसके ‘ कुंठित शिक्षक’ की उसके प्रति क्रूर अमानवीयता से बनी स्मृतियाँ हैं, जिनमें माँ-पिता की भयानक चुप्पी भी शामिल है, उसे अपनी पीड़ा के साथ अकेले छोड़ती हुई चुप्पी . यह पीड़ा उसके जीवन के साथ लग जाती है, जब ‘कुंठित यौनिकता’ का उसका पति वह सब दूसरी बच्चियों के साथ दुहराता हुआ दिखता है और उसकी ‘यौन –इच्छाओं’ को पूरा करने में असमर्थ साथ होने पर फंतासियाँ रचता है. ‘छावनी में बेघर’ की कहानी ‘ मुक्ति प्रसंग’ की अध्यापिका अपनी यात्रा के दौरान बस की भीड़ में पीढ़ियों के भेद के बगैर ‘स्त्री –देह’ के प्रति वासनात्मक निगाहों ‘छुअन’ से गुजरती है. नौकरी करते हुए इस यात्रा की विवशता में यह ‘देह-प्रसंग’ उसके साथ अनिवार्य नियति की तरह चस्पा है, जिससे गुजरते हुए उसे अपने पति की ‘ उसे नंगी देह’ में देखने की इच्छा, जिसमें वह शामिल नहीं है, की याद आती है. हालांकि बस के उनके दैन्दिन में शामिल वासनात्मक छुअनों में से एक युवा छुअन –आकर्षण ‘कोमलतम स्पर्श’ सा बन जाता है, यानी पीड़ा के भीतर भी सुख की तलाश कर लेती हैं वे. उन्हें इस स्पर्श में अपनी कुंठा की जगह ‘मुक्ति –प्रसंग’ का अहसास होता है. अल्पना मिश्र की इन नायिकाओं का परिवेश दो कमरों वाले कई सदस्यों के घरों का परिवेश है, जहाँ पति के साथ अपने अभिसार के लिए न समय है न स्पेस . इनकी कहानियों में बिना दरवाजों वाले कमरे के बाहर जागती-सोती सास की निगरानी में सोती हुए पति के द्वारा नंगी कर दिए जाने’ के बाद भय से दरवाजों को देखती ‘यौन -रूटीन’ से गुजरती स्त्री है ,तो निम्न मध्यमवर्गीय लड़कियां भी, जो विवाह –प्रेम के दायरे में अपने –अपने ‘टैगोरों’ या विवाहेत्तर दायरे में अपने –अपने ‘सिद्दिकियों’ के आकर्षण को अभिव्यक्त तक नहीं कर पाती हैं. अल्पना मिश्र के कथा –परिवेश से नितांत भिन्न , उनके लगभग विरोधी परिवेश में ‘मनीषा –कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘ एडोनिस का रक्त और लिली के फूल’ ( कथा संग्रह : गंधर्व ) की नायिका ‘नर्स ‘ है , जो युवा लेफ्टिनेंट और अपने पति न हो सके प्रेमी मेजर के साथ रात बिताती है. मेजर के जोश और जज्बे के प्रति स्नेह से भरी नर्स मेजर के विपरीत यह जानती है कि मेजर अपनी ‘प्रेमिका’ को लेफ्टिनेंट और अपने बीच सुलाकर, ‘रति’ के लिए प्रेरित कर ,देश के प्रति समर्पित युवा को कोई ‘अंतिम उपहार’ नहीं दे रहा है, बल्कि वह स्पष्ट करती है, ‘ कल रात जो था , प्रेम नहीं था. सेकण्ड वर्ल्ड वर के फ़्रांसिसी सैनिक इसे ‘मैनेज –ए त्रायोस’ कहते थे . यह पुरुष मनोलोक की अजीब सी –फंतासी है , अपनी प्रेमिका को किसी और के साथ देखना.’ ऐसा कहते हुए वह यह भी जानती है कि इस प्रक्रिया में वह किस तरह अलग और ऑब्जेक्ट है, जिसे वह मेजर को १३ वर्ष बाद लिखे अपने पत्र में स्पष्ट करती है, ‘ उस रात तुमने कहा था कि मैं एक रात तुम्हारी हर फंतासी को सच कर दूं , क्योंकि फिर तुम फैन्स के उस पर अनजानी जमीनों की तरफ चले जाओगे . युद्ध में काम आये तो अनजाने क्षितिजों के पार. तब मुझे पता नहीं था कि वह नई जमीन कहाँ होगी, मगर मैं जानती थी कि आसमान तो फिर भी एक ही होगा न, जिसके नीचे तुम जरूर लौटोगे. तुम लौटे. एकदम पड़ोस में मेरे अस्तित्व से अंजन तुम बूढ़े होने लगे . राजसी ढंग से , वीरता के तमगों के साथ. मैं जान –बूझ कर नहीं मिली तुमसे. जानती थी कि तुम मिलते ही ‘रायल’ सुनहरा लबादा उतारकर एक सलेटी क्लाक पहन लोगे और प्लूटार्क बन जाओगे. ‘ लाइफ ऑफ डिमीत्रियास’ का नाटक दोहराते हुए. जब यह नाटक ख़त्म होगा तो तुम क्लाक उतारकर चल दोगे, मुड़कर अपने अभिनय की दक्षता पर मुस्कराते हुए.’ संग्रह की कहानी ‘कालिंदी’ की न्यूड माडल माँ अपने बेटे के ऊपर वह सब राज खुल जाने देना चाहती है कि वह उसके जीने –पढ़ने के लिए कौन सा काम कर रही है, जो उस काम से अलग है, जो खुद कालिंदी की माँ उसे दरबेनुमा कमरे के छोटे पलंग के नीचे भेजकर ग्राहकों के साथ करती थी और उस काम से ख़राब भी नहीं, जो उसके फोटोग्राफर बने बेटे की ‘माडल’ करती हैं, जिनकी फोटोग्राफी की प्रदर्शनी लगाकर और उसका रिव्यू ‘आर्ट टुडे’ में छपने से उसका बेटा प्रसन्न होता है. कालिंदी अपने बारे में भी वहां पढ़ चुकी है. मनीषा कुलश्रेष्ठ की फांस की नायिका का परिवेश हालांकि अल्पना मिश्र की नायिकाओं के आस –पास है, जो अपने पिता के द्वारा ‘यौन –शोषण’ का शिकार होती है, और उस फांस से निकल भी नहीं पाती, पिता , बेटी और परिवार के कर्मकांड को ढोते हुए मृत पिता को ‘मुखाग्नि’ देती है हालाँकि ‘संस्कारों’ की परंपरा और दर्शन को मन ही मन प्रश्नांकित करती हुई. गीतांजलि श्री के संग्रह ‘जहाँ हाथी रहते थे’ की कहानी ‘लौटती आहट’ में स्त्री –पुरुष के प्रेम के बीच यांत्रिकता और औरत के अकेली होते जाने की कहानी है: ‘ रात वही सब हुआ था फिर से . सदियों से होने वाला पागलपन. वहीँ क्रियाएं , वही स्पर्श , वही शब्द ,आदम और हव्वा के ज़माने से दोहराए जाते और फिर भी कोई क्यों नहीं उकता गया है? इस अजनबियत ( अलियनेशन ) के बीच औरत के भीतर अख़बारों के रास्ते दैन्दिन के हिंसा , स्त्री के प्रति हिंसा का अहसास घर करता गया है. नायिका के भीतर जज्ब अजनबियत का यह अहसास उसकी ‘यौनिकता’ को भी प्रभावित कर रही है. वही इसी संग्रह की कहानी ‘मार्च , माँ और सकुरा’ में एक बूढी औरत के जीवन के प्रति उत्साह की कहानी कही गई है. वह प्रेम और उत्साह से सराबोर हो उठी है. नैरेटर बेटे ने अपनी सत्तर की माँ के भीतर फूट रहे प्रेम के सोते को अभियक्त किया है : ‘ ‘ जब माँ ने हंसते –हँसते उसके गाल पर हाथ रखा और रखे रही तब मुझे भान हुआ कि किसी ने कोई मजाक किया है. कुछ था माँ के यूं हाथ रखने में –शायद औसतन से एक क्षतांश जयादा देर के लिए रखे रही या औसतन से जयादा दवाब से रखे थी कि मैंने नजरें फेर लीं.’ और ….. और वह से माँ जो सत्तर की नहीं , एक तरुणी थी, साकुरा के नीचे मस्त –मस्त फुदकते नाचते हमें देखती गई …. देखती गई. अनीता भारती का कथा परिवेश ‘विवेच्य’ अन्य चार कहानीकारों से एकदम भिन्न है, एक थी कोटे वाली तथा अन्य कहानियां’ की प्रायः कहानियों में ‘दलित मध्यम वर्ग की नायिकाएं / नायक हैं’ उनके स्वप्न और संघर्ष हैं. ‘स्त्री -यौनिकता’ का उत्सव या ‘परिवार के मूल्यों से टकराती स्त्री यौनिकता’ उनकी कहानियों के केंद्र में नहीं है, जैसा कि जयश्री राय की कहानियों में या मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानियों में. ऐसा इसलिए भी है कि अनीता भारती ‘दलित स्त्रीवाद’ की आंगिक ( ऑर्गेनिक ) सदस्य हैं, जिनके सामने जातीय और आर्थिक समस्याएं स्त्री के शोषण के लिए जयादा जिम्मेवार कारण हैं. गैरदलित स्त्रियों के लिए अपने पति की जाति और वर्ग में होते हुए भी ( हालांकि यह होना एक अहसास भर है ) अपने ‘दोयम दर्जे’ और शोषण का सबसे बड़े कारणों में उसकी ‘जैविक भिन्नता’ दिखती है, अपनी ‘भिन्न यौनिकता’ दिखती है, जिसके कारण उस पर नियंत्रण और उसके शोषण की स्थितियां उसे दिखती हैं. उसके इसी ‘कॉमन सेन्स’ से ‘यौनिकता’ के प्रति उसका विशेष रुख होता है, उसपर अपना अधिकार , तमाम संसाधनों के साथ ही देह पर उसका अपना नियन्त्रण उसे अपनी ‘मुक्ति’ के लिए जरूरी दिखता है. जबकि दलित स्त्री अपनी बदहाल आर्थिक स्थिति, और जातीय भेदभाव को अपने परिवार के साथ ही भोगती है, उससे मुकाबला करती है , इसलिए ‘ देह’ उन अर्थों में उसके लिए विषय नहीं है. कारण एक और भी है ‘उसकी आर्थिक गत्यात्मकता ,’ जिसके कारण वह संसाधनों के मालिकों के देह केन्द्रित शोषणों से गुजरती रही है, इसीलिए उसके ‘कॉमन सेन्स’ में देह के प्रति पुरुष की कुंठाएं जाति और धन से इंटरमिक्स दिखती है, जिससे वह अपने परिवार के साथ मिलकर संघर्ष करती है. हालांकि यही वह बिंदु है , जहाँ वह अपने पुरुष से भी अलग जाकर प्राथमिकताएं तय करती हैं, वैसी प्राथमिकताएं , जो उसके पूर्वज सावित्री बाई फुले ,महात्मा फुले अथवा बाबा साहब आम्बेडकर ने तय की है. यह अनायास नहीं है कि उसकी परंपरा की चिंता में स्त्री –शिक्षा , जाति के खिलाफ संघर्ष , आर्थिक आजादी आदि केन्द्रीय विषय हैं , जबकि ‘द्विज स्त्री सुधारवाद’ विवाह , विधवा –विवाह सतीप्रथा आदि के इर्द –गिर्द केन्द्रित था, जहाँ स्त्री की देह केन्द्रीय विषय थी. ‘विवाह –पुनर्विवाह’ उसके लिए विषय नहीं थे, क्योंकि ‘पुनर्विवाह’ वहां कोई नैतिक मुद्दा नहीं था. दलित स्त्रीवाद इस परंपरा से अपनी चिंताएं अपना दर्शन विकसित करता है, और यही से वह ‘दलितवाद’ से भी अलग हो जाता है, क्योंकि ‘दलितवाद’ की एक धारा अपनी स्त्रियों की देह पर नियंत्रण , शुद्धता आरोपित करने की वकालत करती है और द्विज स्त्रियों से बदले के भाव में भी है. ‘ दलित स्त्रीवाद’ की यहाँ भी भूमिका दोहरी हो जाती है, जब वह अपने पुरुषों के इस बदले की भावना को ‘स्त्री-विरोधी’ करार देती है. अनीता भारती दलित स्त्रीवादी कार्यकर्ता और लेखिका दोनों हैं, इसलिए उनकी कहानियों में ‘यौनिकता’ केंद्रीय विषय नहीं है. यदि है भी तो ‘यौनिकता’ के सवाल से स्त्री आन्दोलन को प्रश्नाकित करती कहानियां हैं, जो जाति –घृणा की शिकार ‘खैरलांजी’ में ‘बलात्कार और हत्या’ के सवाल पर ईमानदारी से उद्द्वेलित नहीं है . संग्रह की ‘नई धार’ कहानी में स्त्रीवादी ‘अभिव्यक्ति’ का इलीट चुनाव स्पष्ट होता है, जो ‘खैरलांजी’ के मुद्दे पर ‘चयनित रुख’ अपनाती है. ‘नई धार’ में नायिका रमा के माध्यम से ‘दलित स्त्रीवाद’ का अपना संकल्प अभिव्यक्त होता है, ‘ ये कार्यक्रम जरूर होगा, महिला वक्ता भी जरूर होगी . हमें किसी के रहमोकरम की जरूरत नहीं , हम अपनी लड़ाई खुद लड़ सकते हैं.’ अनीता भारती उन स्त्रियों के यथार्थ को अपनी कहानी का विषय बनाती है , जिनकी ‘यौनिकता’ उनके लिए संकट की तरह रूढ़ हो गई और पीढ़ियों तक वे इसके लिए अनुकूलित भी होती गईं. लेकिन ‘तीसरी कसम’ की ‘नाचने वाली कौम’ के रूप में अभ्यस्त रमैनी अपनी बेटी की शिक्षा के मार्ग में आने वाली हर बाधा के खिलाफ कटिबद्ध है, क्योंकि उसे वहीँ से मुक्ति दिखाई देती है. हमारी ‘विवेच्य रचनाकारों’ में ‘पितृसत्तामक समाज’ की संश्लिष्ट संरचना और उसके प्रभावों के प्रति पूरी सजगता है , इसलिए अपने पात्रों के प्रति वे गहरी संवेदना से जुडी हैं, आक्रोश और बदले के भाव से मुक्त. २०१२ तक आते-आते इनकी कहानियां उन द्वंद्वों से भी मुक्त हुई हैं, जो इनकी पूर्वज रचनाकारों के यहाँ थी . आपका बंटी की नायिका ‘अपने प्रेम’ और संतति के द्वंद्व में फंसी है जबकि इन लेखिकाओं की नायिकाएं घर , पति और विवाह के घेरे से मुक्त होने में कोई गिल्ट से नहीं गुजरतीं. हालांकि इन ५ रचनाकारों के विस्तृत कथा संसार में वैसे पात्र और परिवेश भी हैं, जो आज भी ‘नैतिक –अनैतिक ‘ द्वंद्व से संचालित होते हैं. इनकी कहानियों में पुरुष की उपस्थिति ‘दूसरे’ के रूप में जरूर है, लेकिन उसके प्रति गहरी सहानुभूति के साथ, आक्रोश, बदले के भाव अथवा नारे से मुक्त. इनकी कहानियां सामजिक यथार्थ के साथ ‘स्त्रीवादी यूटोपिया’ की कहानियां हैं, जहाँ स्त्री –पुरुष का साहचर्य एक सखा की तरह , दोस्त की तरह है. कुछ कहानियों में ‘परिवार’ विवाह से मुक्ति के संकेत और जश्न भी हैं , लेकिन मूलतः ‘परिवार’ ‘विवाह’ के भीतर स्त्री –पुरुष समानता और निर्णय की स्वतंत्रता की वकालत करती यथार्थवादी कहानियां हैं . विकास और राजनीति के सवाल पाँचों लेखिकाएं दुरुह्तर समय में रचनारत हैं, जब विकास के नामपर गाँव , जंगल, जमीन की लूट हो रही है, साप्रदायिकता, जातिवाद अपने संश्लिष्ट स्वरुप में समाज को प्रदूषित कर रहा है, सरकारों की भूमिका ‘पूँजी और पूंजीपतियों’ के हित संरक्षण तक सीमित हो गई है. हालांकि यह वह समय भी है , जब भारत और खासकर हिंदी पट्टी में ‘सामन्ती आस्थाएं और मूल्य’ अपनी आखिरी लड़ाई लड़ रहे हैं, आधुनिकता से उनका अंतिम मुठभेड़ हो रहा है, सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध चुक जाने की कगार पर है. इस अंतिम लड़ाई के साथ सामंती व्यवस्थाएं अपने अवशेष ‘पूंजीवाद’ के संरक्षण में छोड़े भी जा रही हैं, जो और भी दुरुह्तर स्वरूप में सामने आ रही हैं, आयेंगी. अस्मिताओं की पहचान के साथ जागरूकता आई है, तो उनके आपसी संवाद और संघर्ष भी बढे हैं. इस समय की पहचान और इसकी कहानियां इन लेखिकाओं के ‘कथा –कैनवास’ में सुकून देती हैं , महिला रचनाकारों के सरोकारों के प्रति आश्वस्त भी करती हैं. गीतांजलि श्री गीतांजलि श्री के कथा संग्रह ‘यहाँ हाथी रहते थे’ की कहानियां अपनी कलात्मकता , शिल्प और भाषा के स्तर पर अलग कहानियां हैं . यथार्थ और जादुई यथार्थ के सम्मिश्रण के साथ अपने समय के ‘जटिल यथार्थ’ को अभिव्यक्त करती हैं. ‘यहाँ हाथी रहते थे’ शीर्षक कहानी शहर के ‘शंघाई’ बन जाने की कहानी है, जो दो पाटों में बटा है, स्पष्ट साम्प्रदायिक विभाजन रेखा से. कहानी में एक बूढी (पगलाई सी भौचक) अपने सबकुछ के मीठी छूरी के साथ छिने जाने के दर्द के साथ रहती है, जिसके आशियाने पर बड़ा ‘रिहायश’ खड़ा है, अट्टालिका. वहीँ एक यंत्रवत पुरुष है , ऐसा पुरुष, जिसकी दुनिया में सबकुछ की उपस्थिति सिर्फ उसके लिए है, और वह अपनी तमाम व्यस्तताओं , सफलताओं के बीच एक अजनबियत के साथ जी रहा है. दोनों बायनरी हैं, दोनों एक-दूसरे के होने में उपस्थित हैं: ‘ बहरहाल बात का निचोड़ यूं कि यहाँ है एक शहर, खून पचड़ों, क्रूरताओं पर खड़ा, नई घडी की तरह चलता , साफ़ बाँट में हसीन टिकटिकाता, और है उसमें रहती , फिरती , बैठती , जो चाहे करती, एक बूढी औरत, जो हर चीज के परे है, चाहे वह नियम –कानून , चाहे जीवन, चाहे लिंग, चाहे मौसम, चाहे रंग, चाहे बन-ठन, चाहे फन, और कोई उसे छूता छेड़ता नहीं .’ फिर ‘ मैं इसी तरह का देशी –विदेशी हूँ . मैं इस सारी राजनीति से परे रहना चाहता हूँ कि मैं कहाँ का और किधर का हूँ , देशी तो क्या, विदेशी तो क्या और नदी के इस पार का कि इस पार का ? मैं यहाँ काम करने आया हूँ , एक जानी –मानी इजरायली कंपनी के लिए , जो इन्श्योरेस्न्स बेचती है , और मुझे घर, टेलीफोन , मेडिकल , ट्रैवल, सब देती है. …………………..कि रहने दो मुझे अपने काम में, अपने सपनों में , सी.ई.ओ बनूँ , पैंटहाउसमें रहूँ और एक दिन एक मॉडल से शादी कर लूँगा , मगर वह मॉडेल दिखेगी , होगी नहीं, चूकी मैं अभी जवान हूँ, एकदम जवान .’ इस गाफिल युवा के शहर में एक सपने खो चुकी बूढी रहती है, जिसके बनने की कहानी ‘विकास की त्रासदी की कहानी है-अलियनेटेड युवाओं ,अलियनेटेड बूढियों की कहानी समेटे : ‘असल मसला मेंटेनेंस का है, वरना शहर में इस तरह की अनाप –शनाप इमारतें हुआ करती थीं, जब यहाँ हाथी रहते थे, मगर शंघाईकरण ने उन्हें पछाड़ दिया . हटा ही दिया. संग्रह की कहानी ‘आजकल’ साम्प्रदायिक तनाव की स्थितियों में ‘अजनबियत’ और ‘खौफ’ की कहानी है तो ‘इति’ मरते व्यक्ति की निरीहता और बदहवासी की कहानी. ‘ मैंने अपने को भागते हुए देखा’ का नायक अपने दादा के स्थापित मूल्यों से आक्रांत और उनकी विरासत की बोझ से उत्पीडित है, तो चक्करघिन्नी की नायिका समय के साथ ‘चक्करघिन्नी’ है , बदहवास भाग रही है, जिसे न अपनी गति की सीमा पता है और न उद्देश्य. ‘इतना आसमान’ विकास के साथ प्रकृति के नाश और ‘व्यक्ति’ के अलियनेट होने की कथा कहती है, जो यंत्रवत संचालित है. गीतांजलि की शिल्प, उनकी भाषा कई अर्थसंकेतों के शिल्प और भाषा हैं, जो समय की जटिलता की परतों से दो-चार हैं. हालांकि इन कहानियों की थाह के लिए एक जबरदस्त ‘बौद्धिक व्यायाम’ की जरूरत भी पड़ती है. अल्पना मिश्र अल्पना मिश्र के कथा संग्रह कब्र भी कैद औ’ जंजीरें भी’ की कहानियां निम्न मध्यम वर्ग और हाशिये के लोगों की ,गरीबों की, कहानियां कहती हैं. महानगरों के ‘ फील गुड ‘ के साथ गरीब खरोच -खरोचकर स्मृतियों से भी गायब कर दिये गये, देखते -देखते उनके रहने -जीने के स्थान, खेलगांव और मेट्रो स्टेशनों में तब्दील हो गये. अल्पना मिश्र की कहानियां पाठकों की स्मृतियाँ दुरुस्त करती हैं, उन्हें गरीबी और निम्न मध्यमवर्गीय जीवन से पुनः जोड़ देती हैं, उनके दैनंदिन, उनकी चिंताओं, उनके संघर्ष को की कहानियां कहते हुए, अन्यथा हम गरीबी को आकड़ों की भाषा में ही समझने लगे हैं, २० रुपये से २५ रुपये तक या ७० % से ८० % के आंकड़ों की भाषा. अल्पना मिश्र ने हाशिये के जीवन को यथार्थ के फार्म में और जहाँ जरूरत है वहां जादुई यथार्थ के संयोग से कोलाज की तरह पेश किया है. ये उखड़ती जिन्दगी , फैलते महानगरीय आडम्बर और ऊब , और मरती संवेदनाओं की कहानियां कहती हैं , जिनमें गरीब, बच्चे , बूढ़े, औरतें और अल्पसंख्यक मिसफिट से हैं , सॉफ्ट टार्गेट भी. संग्रह की कहानियां विद्रूपताओं को उजागर करती हैं, विडम्बनाओं का उद्घाटन. गुमशुदा की स्त्री अपनी ग्रामीण संवेदना और सहजता को मारने के लिए विवश है , क्योंकि उसका निम्न मध्यमवर्गीय पति महानगर के अनिवार्य आडम्बर में शामिल है, और उसे उसके पिछड़ेपन से मुक्त करना चाहता है ताकि उसके बेटे पर ‘ माँ ‘ और गाँव के संस्कार न हावी हो,बेटा यानी अगली पीढ़ी अपनी भाषा, संस्कृति से मुक्त ‘ नए जीवन ‘ में सरपट दौड़ सके. विडम्बना यह कि सभ्यता के नाम पर शांत और उजाड़ उस मध्यम वर्गीय कॉलनी में एक बछड़े की संदिग्ध मौत के बाद धार्मिकता उबाल लेने लगती है, पाखण्ड और आडम्बर किसी पिछड़ी सदी की तरह ही कॉलनी की निर्मित शांति को लील लेते है. रहड़ी-पटरी पर दूकान लगाने वाले रामसू और रहमत को पुलिस के द्वारा आंतकवादी घोषित करना या फिर साइनिंग इंडिया और जय हो वाले भारत में मिसफिट लेकिन फिट होने की कवायद में लगी प्रेग्नेंट रेशमा की हवाई जहाज में बेइज्जती या फिर रेशमा और उस जैसे अनेक बच्चों को तरबूज खिलाते ‘फूफा’ का एक पुलिस वाले की मदद से बच्चों को नशे के सामान बेचना और जमीर जागने पर उसी पुलिसवाले के द्वारा गिरफ्तार होना व्यवस्था और विकास की अमानवीयता , उसके गरीब और आम आदमी विरोधी चरित्र, को व्यक्त करते कथा प्रसंग हैं. विवेच्य कथा संग्रह की कहानियों में कथ्य और फ़ार्म के वैविध्य हैं. अपने अधिकार, निर्णय के अधिकार , आरोपित नियंत्रणों से मुक्त या मुक्ति के लिए संघर्ष रत स्त्रियों की कहानियां भी हैं वहां, तो ऐसी निम्न मध्यमवर्गीय स्त्री की कहानी भी, जो दुनियाबी तिकड़मों में शामिल है, डंडेवाले के साथ मिलकर अपने ही वर्ग के एक युवक से रुपये ऐठ लेती है. कथानकों में वह स्त्री भी शामिल है, जो तलाक के बाद सहज उपलब्धता के लम्पट पुरुष मानसिकता की शिकार है और अपने सहकर्मियों की कुंठा से संघर्ष कर रही है. मनीषा कुलश्रेष्ठ मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘स्वांग’ के नायक बहुरुपिया ‘गफ्फार खान’ के दर्द में अभिव्यक्त होता है वह दर्द, जो सांस्कृतिक ‘एकरूपीकरण’ के कारण लोक संस्कृति, लोक कला आदि के ‘अनावश्यक’ होते जाने का दर्द है. ‘स्वांग’ ‘अप्रासंगिक’ होते गए, कर दिए गए कलाकार की त्रासदी के बहाने सांस्कृतिक बहुलताओं के नष्ट होने की कथा कहती है. इस ‘सांस्कृतिक एकरूपता’ के दुष्परिणामों की पड़ताल तो है ही लेखिका के यहाँ , लेकिन वे इसके प्रति ‘सिनिकल अप्रोच’ नहीं रखतीं. कहानी ‘बिगडैल बच्चे’ के लड़के –लड़कियां तेज शोर के साथ ‘पॉप गायिकाओं को सुनते हैं,’ छोटे कपडे पहनते हैं, बिंदास जीते हैं. उनके साथ ट्रेन का सफ़र कर रही ‘बुजुर्ग होती पीढ़ी’ गिरते संस्कार पर चिंतित है लेकिन नैरेटर स्त्री के चोटिल होने पर गहरे मानवीय संवेदना का परिचय उन ‘बिगडैल लड़के लड़कियों’ ने ही दिया , ‘ बुजुर्ग दंपत्ति’ अपनी यात्रा में कोई व्यवधान नहीं चाहते थे. ‘कुरजां’ विस्थापन, राष्ट्रवाद की अतियों की शिकार स्त्री के जीवन का दर्द और ग्रामीणों में गहरे बैठे अन्धविश्वास की कहानी है, तो ‘खरपतवार’ एक हाशिये की जिन्दगी जीती एक ऐसी लडकी की कहानी, जो ‘मृत्यु’ का चुनाव करती है, यह जानते हुए कि अपने ‘संभ्रांत प्रेमी’ की दुनिया , उसके घर-परिवार के लिए ‘मिसफिट’ है. हालांकि ‘प्रेमी’, जो खुद को न समझे जाने का दर्द अभिव्यक्त करता है, अपने परिवार और ‘विवाह के भीतर की अपनी स्त्री’ तथा उसके बीच संतुलन बनाने की कोशिश तो करता है, लेकिन असफल होता है. ‘स्यमिज’ एक ‘स्त्री’ स्त्री के दो सेल्फ के आपसी संवाद से बुनी गई कहानी है – एक सेल्फ, जो उसकी गृहणी होने ‘रूपसी’ होने से बना है और एक उसके बुद्धिमती, कलाकार , प्रगतिशील , ‘ मानसी’ होने से बना है. कहानी में संवादों और पति के निर्देश के अनुसरण में स्त्री के यंत्रवत हो जाने के साथ जिस सत्य का उद्घाटन होता है, वह है, ‘ ……. असली कलाकार तो हमारा सूत्रधार है …….. पगली हम क्या सोचेंगी ? इस काठ के खोपड़े से ? अपनी तो जमीन तक नहीं है, जिस पर पूरा टिक सकें …….’ जयश्री रॉय जयश्री राय की कहानिया ‘सुख के दिन ’ और ‘सूअर का छौना’ हाशिये की जिन्दगी की कहानियाँ हैं, जिसमें नायक अपनी जातीय स्थिति और गरीबी का संयुक्त दंश झेल रहा है. हालांकि दोनों ही कहानियों में लेखिका अपने कथा –पात्रों और परिवेश के लिए ‘दूसरे’ (अदर) की भूमिका में हैं, जो शायद आंगिक होने की स्थिति में इस कहानी को लिखते वक्त कुछ और लिखती. ‘सुख के दिन ’ यद्यपि हाशिये की जिन्दगी जी रहे नायक के यथार्थ परिवेश पर बुनी गई है, लेकिन इसमें राजनीति से मध्यमवर्गीय मोहभंग हावी है, जो रघुनाथ के लिए सत्य नहीं हो सकता , क्योंकि आजादी के बाद लोकतंत्र और राजनीति के रास्ते ही उसकी , उस जैसों की जिन्दगी पटरी पर आ रही है, या आने की प्रक्रिया में है. यह कहानी उत्तरप्रदेश में ‘ मायावती’ की राजनीति की प्रतिक्रिया सी लगती है. ‘सूअर का छौना’ एक बेहद मार्मिक कहानी है, लेकिन ‘दलित पिता’ की चरित्र ‘दूसरे के पोजीशन’ से खड़ा किया गया है-क्रूर और असंवेदनशील पिता का चरित्र . वहीँ ‘हमजमीन’ में जयश्री ने अपनी जमीन, अपना तट,अपना रोजगार छीन जाने के बाद विकास और विस्थापन के शिकार व्यक्ति, परिवार और समाज की व्यथा-कथा को बेहतर ढंग से अभिव्यक्त किया है. अनीता भारती अनीता भारती की कहानिया स्पष्ट राजनीतिक सन्देश की कहानियाँ हैं. संग्रह की शीर्षक कहानी, ‘ एक थी कोटेवाली’ अकादमिक जगत में , अपेक्षाकृत सभ्य माने जाने वाले समाज में ,‘सूक्ष्म जातिवाद’ को स्पष्ट करती है कि कैसे जहीन , अपने काम में दक्ष सुसंकृत शिक्षिका के प्रति साथी शिक्षिकाओं का नजरिया बदल जाता है, जब वे यह जानती हैं कि वह ‘कोटा’ से आती है, यानी आरक्षित वर्ग से है, यानी दलित है. ‘ठाकुर का कुआँ पार्ट २’ प्रेमचंद की कहानी के इसी शीर्षक की कहानी के क्रम में हैः, जिसकी पृष्ठभूमि बदल चुकी है. क्योंकि राज्य और लोकतंत्र ने ‘गंगी’ के लिए वह स्पेस उपलब्ध कराया है, जिसके इस्तेमाल से वह अपने साथ हुई त्रासदी को दूसरे ‘गंगियों,’ ‘जोखुओं’ को न झेलने दे . गाँव उसके लिए कभी ‘भारत माता ग्राम वासिनी’ नहीं थी, वह शहर जाकर अपनी बच्ची को पढ़ाती है, उसकी नातिनि जल-संग्रहण पर पी. एच. डी कर रही है और गंगी अपने समुदाय के लिए पानी का प्रबंध सरकारी नलकूपों और पानी सप्लाई की व्यवस्था से करती है, ‘ ठाकुर का कुआँ ‘स्वतः अप्रासंगिक हो जाता है. अनीता भारती की कहानी का परिवेश तब का है, जब ‘गंगी’ की पीढियां, स्कूल कालेजों में अच्छा कर रही है, राज्य की योजनायें और उनकी मेहनत रंग ला रही है. यह कहानी स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य से लिखी गई है.अनीता हालांकि दलित और हाशिये के समाजों से बाहर आकर बने मध्यमवर्ग की हकीकतों को भी खूब पकडती हैं, हर कोई गंगी की राह पर नहीं है, ‘ पथभ्रष्ट’ इसी हकीकत की पड़ताल पर कहानी है. कथादेश के मीडिया विशेषांक में छपी कहानी ‘ सीधा प्रसारण’, जो इस संग्रह में भी शामिल है, मीडिया के जातीय और वर्गीय चरित्र को बखूबी सामने रखती है. हो सकता है कि अनीता भारती की ये कहानिया शिल्प और कहानी कला के स्तर पर दूसरी समकालीन कहानियों या इस संग्रह के उनकी अपनी ही कहानी ,’ नी हरामजादिये से थोड़ी कमजोर हों, लेकिन राजनीतिक स्पष्टता और पक्षधरता इन कहानियों की खासियत है. मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में ‘ आर्तनाद बांसूरी पर नहीं गाये जाते .’ ये कहानियां यद्यपि ‘आर्तनाद भी नहीं है, बल्कि मजबूत इरादे और राजनीतिक उद्देश्य की कहनियाँ हैं .’ पुनश्च ये पांच महिला रचनाकार और उनके पांच से सात कथा संग्रह, इस समय की हिंदी-महिला –रचनाधर्मिता को समझने के लिए यदि पर्याप्त नहीं हैं, तब भी इनके माध्यम से हिंदी में महिला –लेखन को एक ख़ास सीमा तक समझा जा सकता है. इनकी रचनधर्मिता किसी ‘रियायत’ की मांग नहीं करती है, जो कई बार विद्वान् आलोचकों के द्वारा चिंता के रूप में जाहिर हो चुकी है कि ‘रचनाओं को आरक्षण नहीं दिया जा सकता है .’ इनकी कहानियों में हमारे समय और उनके –—-स्त्री या पुरुष या व्यक्ति के अस्तित्व की जटिलताएं अपने सारे शेड्स के साथ ऊपस्थित होती हैं, जो किसी रचनाकार की सबसे बड़ी कसौटी होती है. Bio Social Latest Posts By: संजीव चंदन जन्म : बिहार के जहानाबाद जिले में, कर्तिक पूर्णिमा , 1977 कहानियां, साक्षात्कार , कथादेश , पाखी , संवेद, समालोचन सहित विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित बी बी सी सहित विभिन्न हिन्दी समाचार पत्रों के लिए सामयिक विषयों पर लेखन कहानी संग्रह ‘ 546 सीट की स्त्री’ और आलोचनात्मक लेखों का संग्रह ‘ स्त्री –दृष्टि’ शीघ्र प्रकाश्य . स्त्रीवादी पत्रिका ‘ स्त्रीकाल’ के संपादक, जिन दिनों: कहानी (संजीव चंदन)जिन दिनों…: कहानी (संजीव चंदन) See all this author’s posts Share this:Click to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on Twitter (Opens in new window)Click to share on Google+ (Opens in new window)Click to share on WhatsApp (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to email this to a friend (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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