मदारी: लघुकथा (दिलीप कुमार) दिलीप कुमार May 19, 2017 लघुकथा 191 हमरंग हमेशा से ही उभरते नए कलमकारों का स्वागत करता रहा है बिना उनकी शिल्प और शैली पर ज्यादा ध्यान के हाँ किन्तु विषय-वस्तु और वैचारिक प्रवाह के साथ उसमें एक संभावनाशील कलमकार दिखाई देता हो | हमरंग के इस प्रयास की अगली कड़ी के रूप में आज प्रस्तुत है एक ऐसे ही संभावित नवांकुर ‘दिलीप कुमार’ की लघुकथा ……. मदारी दिलीप कुमार छुट्टी का दिन अक्सर किसी न किसी किताब के सहारे गुजरता है, आज भी गुजरा, हमेशा की तरह। हल्की बूंदा-बांदी ने मौसम खुशनुमा बना दिया था, ठंडी-ठंडी हवा बडी से बडी थकावट उतारने को काफी थी। बच्चों का झुण्ड, गली में हवा का खजाना लूटने निकल पड़ा था। पसीने से तर बच्चे खेल में मस्त थे, उन्हें इस बात की ज़रा भी परवाह नहीं थी कि पैरों में चप्पल हैं या नहीं, बस चिल्लाये जा रहे थे ’’पोसम्पा भई पोसम्पा, लाल किले में क्या हुआ’’। बच्चों को खेलते देखकर सोचने लगा कि बचपन कितना स्वतंत्र होता है, हर चिन्ता और फिक्र से। न आज की चिन्ता न कल की फिक्र, न काम की चिन्ता न कमाने की फिक्र, न सम्मान की चिन्ता न अपमान की फिक्र, न कुर्सी की चिन्ता न घोटालों की फिक्र, न हथयारों की चिन्ता न धमाकों की फिक्र, न मंदिर की चिन्ता न मस्जिद की फिक्र, न पाप की चिन्ता न पुण्य की फिक्र। काश! इंसान का सारा जीवन ऐसे ही गुज़र जाता, बिना चिन्ता और फिक्र के, हसते-खेलते। तभी शर्मा जी को गली में आते देखा। शर्मा जी, मुझे देखकर मुस्कुराए, मैंने भी मुस्कुराकर शर्मा जी की मुस्कुराहट का अभिवादन किया। खेल में मग्न बच्चे ज़ोर से चिल्लाये ’’सौ रूपये की घड़ी चुराई अब तो जेल में जाना पड़ेगा’’। शर्मा जी, अपने दोनों हाथ कानों पर रखकर बच्चों को घूरते चले आ रहे थे। आंगन में कुर्सी डालकर हम दोनों बतियाने लगे, राजी-खुशी से शुरू हुई बातें सामाजिक, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं की गलियों में विचरने लगीं। पत्नी ने पानी लाकर दिया फिर दो कप चाय। शर्मा जी ने कप उठाया ही था कि एक ज़ोरदार आवाज आई ’’जेल की रोटी खानी पड़ेगी, जेल का पानी पीना पड़ेगा’’। शर्मा जी ने एक घूँट चाय का लिया और बोले अंदर चलें। कमरे में आकर शर्मा जी ने गहरी सांस ली, उनके माथे की लकीरें साफ झलक रही थीं। शर्मा जी कुछ कहने ही वाले थे कि बेटा, पास आकर खड़ा हो गया। मैंने पूछा क्या बात है, बेटा बोला पापा मैं खेलने जाऊँ, मैंने हाँ में सिर हिला दिया। शर्मा जी, बेटे को गली की ओर जाते देखते रहे और मैं शर्मा जी को। कप रखते हुए शर्मा जी बड़े चिंतित स्वर में बोले यार, बच्चों को इतनी आज़ादी देना ठीक नहीं, अपने बेटे को कंट्रोल में रखा करो, मेरा मतलब है ये गली में चीखना-चिल्लाना, ऊधम मचाना, उछलना-कूदना सब बेकार की चीजें हैं। बिना किसी मतलब। अपने बच्चे को दूर रखो इन सबसे, वरना बिगड़ जायेगा। शर्मा जी का एक शब्द मेरे दिमाग में बार-बार गूंज रहा था ’’कंट्रोल’’। दिमाग सोचने पर मजबूर हो गया ’’कंट्रोल’’। कंट्रोल तो मशीनों को किया जाता है, इंसान को तो समझाया-बुझाया जा सकता है या डराया-धमकाया । मेरा बेटा इंसान नहीं सिर्फ और सिर्फ एक मशीन है, जिसे कंटोल करने की जरूरत है चीखना-चिल्लाना, उछल-कूद वास्तब में बेकार की चीजें हैं और क्या कहा था शर्मा जी ने ’’सब बिना मतलब’’। क्या संसार में बिना मतलब के कुछ नहीं होता ? क्या इंसान इतना मतलबी है ? लेकिन बच्चों के खेलकूद में कैसा मतलब ? शर्मा जी ने तो कह दिया अपने बच्चे को दूर रखो इन सबसे, वरना बिगड़ जायेगा। आखिर किन चीजों से दूर रखूँ। उसके हमउम्र बच्चों से, पडोसियों से, खेलकूद से, उछल-कूद से या गली से। इन सबसे दूर रखकर बच्चे का मानसिक स्वास्थ्य, शारीरिक विकास, सामाजिक चेतना ? शर्मा जी की आवाज ने ध्यान भंग कर दिया, बोले अब मेरे बेटे को ही लीजिए। घर से कभी बाहर नहीं निकलता, घर से स्कूल और स्कूल से घर। घर में अकेला बैठा रहेगा लेकिन क्या मज़ाल जो बाहर खेलने चला जाये। शर्मा जी के बेटे को किस अपराध की सज़ा मिल रही है ? समझ से परे था। घर न हुआ जेलखाना हो गया। बिना हवा और धूप के तो पौधे भी मुरझा जाते हैं। बिना दोस्तों के जीवन कितना अधूरा होता है, बिल्कुल खाली-खाली। शर्मा जी की हिदायत ने फिर ध्यान तोड़ा। चेहरे पर गर्व का पुट झलक रहा था, सीना तान कर बोले मेरा बेटा मेरी आवाज़ के साथ चलता है, अगर ज़ोर से डांट दिया तो उसका खून सूख जाता है। समझे दोस्त, इसे कहते हैं ’’कंट्रोल’’, देखना बड़ा होकर इंजीनियर बनेगा। शर्मा जी तो चले गये लेकिन मैं अभी तक ’’कंट्रोल’’ और ’’मतलब’’ से उलझ रहा था। शर्मा जी, अपने बेटे को वास्तब में इंजीनियर बनाना चाहते हैं ? शर्मा जी, पिता न हुए मदारी हो गये जो छड़ी के डर और रंस्सी के इशारे पर करतब दिखाता है। डुगडुगी की आवाज पर बंदर उछलता है, कूदता है, गुलाटियां मारता है, लेट जाता है, गाड़ी चलाता है। सब मदारी के इशारे पर, अपनी मर्जी से नहीं। ना जाने कितने घरों में मदारी हैं, ना जाने कितने घरों में डुगडुगी बजती है, ना जाने ये खेल……….? डुगडुगी की आवाज़ मुझे बहरा बना देती कि बेटे ने पीछे से आकर अपने छोटे-छोटे से हाथों से मेरी आँखे बंद कर लीं और बोला बताओ कौन ? मैंने मुस्कारकर कहा ’’ बंदर तो बिल्कुल नहीं’’…………………….. Bio Social Latest Posts By: दिलीप कुमार सम्पर्क- शहजाद पुर सोनईटप्पा, मथुरा See all this author’s posts Share this:Click to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on Twitter (Opens in new window)Click to share on Google+ (Opens in new window)Click to share on WhatsApp (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to email this to a friend (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Like this:Like Loading... Related Leave a Reply Cancel Reply Your email address will not be published.CommentName Email Website Notify me of follow-up comments by email. Notify me of new posts by email.