एक जिप्सी चितेरे का जीवन संघर्ष: (राजेश चन्द्र) राजेश चन्द्र September 18, 2017 स्मरण-शेष 36 मुंबई के बीहड़ फुटपाथों पर रात गुज़ारते हुए हुसैन सिनेमा के होर्डिंग बनाने का काम शुरू करते हैं और उनकी गुमनामी के दिन तब समाप्त होते हैं जब वे 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल होते हैं। फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के नेतृत्व में चला यह आंदोलन भारतीय कला जगत में इसलिये एक ख़ास मुकाम रखता है, क्योंकि इसने न सिर्फ़ भारतीय चित्रकला को पारंपरिक और रूढ़ बंगाली शैली से मुक्ति दिलायी, बल्कि उसे एक आधुनिक पश्चिमी शैली से अनुप्राणित भी किया। कल 17 सितम्बर को भारत के पिकासो कहे जाने वाले चित्रकार ‘एम० एफ़० हुसैन’ के जन्मदिवस पर उनके जीवन के कुछ संघर्षरत पहलुओं से अवगत कराता ‘राजेश चन्द्र’ का आलेख…… एक जिप्सी चितेरे का जीवन संघर्ष राजेश चंद्र भारत का एक ख्यात सपूत, जिसे दुनिया भारत का पिकासो मानती है, उस मक़बूल फ़िदा हुसैन को अपनी आख़िरी सांसें भारत में लेने का अवसर नहीं मिला। यह उनकी आख़िरी इच्छा थी। एक हिन्दू के तौर पर तो यह और भी शर्मिंदा होने की बात है कि जिस धर्म की पहचान उसकी सहिष्णुता और सामंजस्य की वजह से थी, उसके कुछ तथाकथित झंडाबरदारों ने हुसैन की चित्रकला पर धर्मविरोधी होने का फ़तवा ज़ारी किया | भारतीय जनता ने मांग रखी थी कि हुसैन का पार्थिव शरीर भारत लाया जाये और उसे दिल्ली की जामा मस्जिद के निकट दफनाया जाये, पर सरकार का कहना था कि ऐसा करना सुरक्षा के लिहाज़़ से ख़तरनाक होगा। पर इस कृत्य से भारत के जनमानस में शीर्ष स्थान पर प्रतिष्ठित हुसैन का अपमान किया जाना कभी संभव नहीं होगा, जो उसे अपना आत्मीय और श्रेष्ठ चितेरा मानता है। साभार google से एम.एफ. हुसैन की जो छवि जनमानस में बसी है, उसमें वे एक जिप्सी नज़र आते हैं-साफ-शफ़्फ़ाक़ वस्त्रभूषा, लंबी-सी एक पारंपरिक कूंची, जिसे वे एक सोंटे की तरह उपयोग में लाते थे, और नंगे पैर चलने की उनकी सनक। उनका मनमौज़ी और दबंग व्यक्तित्व उनके चित्रों में भी प्रतिबिम्बित होता है। उनकी आश्चर्यजनक प्रसिद्धि के पीछे उन विवादों की भी बड़ी भूमिका रही जो साये की तरह उनके साथ लगे रहे और जिनकी वजह से उन्होंने आत्मनिर्वासन तक की यात्रा की। महाराष्ट्र के पंढरपुर में 17 सितंबर 1915 को जन्मे एम.एफ. हुसैन के वालिद साहब एक एकाउन्टेंट थे। हुसैन जब सिर्फ़ 18 महीने के थे, उनकी मां जुनैब दुनिया से रुख़सत हो गयीं थीं। उनकी कोई तस्वीर तक मौजूद नहीं थी और जब हुसैन बड़े हुए तो उन्हें मां का चेहरा तक याद नहीं था। यही वजह है कि हुसैन ने उम्र भर जितनी भी स्त्री छवियां गढ़ीं, कभी भी उनका चेहरा नहीं उकेरा। हुसैन की चित्रकला पर यूरोप के आधुनिकतावादियों का प्रभाव स्वीकार किया जाता है। उनके विषय, जो शृंखलाओं में अभिव्यक्त होते रहे हैं- उनमें इतनी विविधता पायी जाती है कि आश्चर्य होता है। महात्मा गांधी से लेकर मदर टेरेसा, रामायण, महाभारत, अंग्रेज़ी राज और भारतीय ग्रामीण तथा शहरी जीवन के चित्रणों से समृद्ध उनकी चित्रकृतियों की संख्या 60,000 से भी अधिक है। मुम्बई के ख्यात नाट्य-दल ‘एकजुट’ द्वारा विगत 13 से 22 अप्रैल, 2012 के बीच दिल्ली के श्रीराम सेंटर में आयोजित ‘एकजुट नाट्य समारोह’ के अंतर्गत 13 और 14 अप्रैल को वरुण गौतम द्वारा लिखित और नादिरा ज़हीर बब्बर द्वारा निर्देशित नाटक ‘पेंसिल से ब्रश तक’ का मंचन किया गया। फ़िल्म और टीवी की दुनिया के कई चर्चित अभिनेताओं की उपस्थिति वाले इस नाटक में अत्यंत सुरुचिकर और प्रभावशाली तरीके से चित्रकार एम.एफ. हुसैन के जीवन का प्रस्तुतीकरण किया गया। नाटक हुसैन के उस विलक्षण कला-जीवन को समेटने का एक स्तुत्य प्रयास है, जो एक छोटे से गांव पंढरपुर से शुरू होकर दुनिया की महानतम ऊंचाइयों तक फैला हुआ है। साभार google से नाटक में हुसैन के जीवन के तीन चरणों को क्रमशः अरुण गोंडारकर (बाल्यकाल), अनूप सोनी (युवावस्था) और टॉम आल्टर (उत्तरकाल) जैसे समर्थ अभिनेताओं ने प्रस्तुत किया। इनके अतिरिक्त अन्य सहयोगी भूमिकाओं में जूही बब्बरसोनी और हनीफ पटनी ने भी हुसैन के विविध जीवन प्रसंगों को रूपाचित करने में अहम भूमिका निभाई। नाटक ‘पेंसिल से ब्रश तक’ हुसैन के पंढरपुर गांव वाले पुश्तैनी घर से प्रारंभ होता है, जहां मातृहीन बालक मक़बूल अपने बाबा के आत्मीयता और वात्सल्य के गर्माहट भरे संरक्षण में पलते हुए कला और स्वाभिमानी जीवन का प्रारंभिक पाठ पढ़ता है। अपने वालिद की दूसरी शादी और नयी मां के आगमन से असहज स्थिति जीते हुए मक़बूल के कोमल और एकाकी मन पर तब एक और वज्रपात होता है, जब उसके एकमात्र भावनात्मक संबल बाबा भी उसे छोड़ जाते हैं। इस आघात के अवसाद से मक़बूल अभी मुक्त भी नहीं होता कि उसके वालिद उसे बोर्डिंग स्कूल भेजने का फैसला सुना देते हैं। इस नाटकीय घटनाक्रम में निर्णायक मोड़ तब उपस्थित होता है जब 19 वर्ष की उम्र में संभावनाओं की एक नई ज़मीन तलाशने मकबूल सपनों के शहर मुंबई चले आते हैं। मुंबई के बीहड़ फुटपाथों पर रात गुज़ारते हुए हुसैन सिनेमा के होर्डिंग बनाने का काम शुरू करते हैं और उनकी गुमनामी के दिन तब समाप्त होते हैं जब वे 1947 में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल होते हैं। फ्रांसिस न्यूटन सूज़ा के नेतृत्व में चला यह आंदोलन भारतीय कला जगत में इसलिये एक ख़ास मुकाम रखता है, क्योंकि इसने न सिर्फ़ भारतीय चित्रकला को पारंपरिक और रूढ़ बंगाली शैली से मुक्ति दिलायी, बल्कि उसे एक आधुनिक पश्चिमी शैली से अनुप्राणित भी किया। हुसैन ने इसके बाद कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा और 1952 में ज्यूरिख़ की एकल चित्र प्रदर्शनी ने विश्व स्तर पर एक महानतम चित्रकार के तौर पर उनकी विलक्षण यात्रा को नित नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाने की पटकथा रच दी। एम.एफ. हुसैन उन गिने-चुने व्यक्तियों में आते हैं, जो आजीवन भारतीय सभ्यता की बहुधार्मिक, समन्वित संस्कृति और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के प्रति समर्पित रहे। अपनी हरेक सांस में वे आधुनिकता, प्रगति और सहिष्णुता जीते रहे। उनके निर्वासन का संपूर्ण कथासार हमारी प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था की असफलता को उजागर करता है, जिसने उनकी सुरक्षित वतन वापसी को असंभव बना दिया। यह पूरी कथा अभिव्यक्ति की आज़ादी, सृजनात्मकता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों की पराजय-कथा रही है। Bio Social Latest Posts By: राजेश चन्द्र Theatre Critic, Playwright, Poet & Editor, Samkaleen Rangmanch See all this author’s posts Share this:Click to share on Facebook (Opens in new window)Click to share on Twitter (Opens in new window)Click to share on Google+ (Opens in new window)Click to share on WhatsApp (Opens in new window)Click to share on Pinterest (Opens in new window)Click to share on LinkedIn (Opens in new window)Click to share on Tumblr (Opens in new window)Click to email this to a friend (Opens in new window)Click to print (Opens in new window)Like this:Like Loading... 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