मेरा रुझान विजुअल आर्ट और लेखन दोनों के प्रति रहा है: “असग़र वजाहत” साक्षात्कार

बहुरंग साक्षात्कार

अनीता 513 11/17/2018 12:00:00 AM

अपनी किताब ‘असग़र वजाहत –चुनी हुई कहानियां’ के पर एक चर्चा के लिए कानपुर आये लेखक डाक्टर असग़र वजाहत | वैसे कानपुर शहर उनके लिए अजनबी नहीं है । ननिहाल होने के नाते उनके ताल्लुक के तार यहाँ के एक मोहल्ले राम नारायण बाज़ार से जुड़े रहे हैं। इसलिए उन्हें कानपुर की उस गली के खस्ते ,समोसे, जलेबी ….सब याद रहते हैं | शायद कानपुर यात्रा के दौरान वे यह सब खाना पसंद भी करते हैं। उनका औरा इतना वाइब्रेंट है कि सारा माहौल गर्मजोशी से भर जाता है । जितने लोग भी मौजूद हों सब श्रोता होते हैं और वो वक्ता ..सबको लगता है कि उन्हें वजाहत साहेब ने बहुत तवज्जो दी क्योंकि वो सबसे बराबर मुखातिब होते रहते हैं । ये उनकी सहजता है कि अगर सामने वाले ने बहुत पढ़ा लिखा ना भी हो तो बात करने के दौरान किस्से, चुटकुले सुनाते हुए वो किसी को अपने बड़े लेखक होने से आतंकित नहीं करते हैं । यहीं उनसे साहित्यिक, राजनीतिक और सामाजिक विभिन्न पहलुओं पर लम्बी बातचीत की ‘अनीता मिश्रा’ ने……

मेरा रुझान विजुअल आर्ट और लेखन दोनों के प्रति रहा है 

अनीता मिश्रा

मैं बहुत हैरत से अपने ही शहर कानपुर का शब्द चित्र उनसे सुन रही थी । सोच रही थी कि मैंने इस नज़रिए से अब तक अपने शहर को नहीं देखा था । ये डाक्टर असग़र वजाहत की कमाल की किस्सागोई है जो मुझे अपना शहर कुछ अनोखा और नया सा लगा । उनके बात करते  हुए सोचना पड़ता है कि ये ‘मैं हिन्दू हूँ’ , ‘शाह आलम कैम्प की रूहें’ , ‘जिस लाहौर नहीं देख्या…..’, ‘सात आसमान’ लिखने वाला राइटर है या कोई पेंटर ….जब कोई लिखता भी हो और पेंटिंग भी करता हो तो उसके डिस्क्रिप्शन भी किसी कोलाज़ जैसे होते हैं । अलग –अलग टुकड़ों में भी कोई ऐसी बात जिसके सिरे आपस में जुड़ जाते हैं ।

 उनका औरा इतना वाइब्रेंट है कि सारा माहौल गर्मजोशी से भर जाता है । जितने लोग भी मौजूद हों सब श्रोता होते हैं और वो वक्ता ..सबको लगता है कि उन्हें वजाहत साहेब ने बहुत तवज्जो दी क्योंकि वो सबसे बराबर मुखातिब होते रहते हैं । ये उनकी सहजता है कि अगर सामने वाले ने बहुत पढ़ा लिखा ना भी हो तो बात करने के दौरान किस्से, चुटकुले सुनाते हुए वो किसी को अपने बड़े लेखक होने से आतंकित नहीं करते हैं ।

   वैसे कानपुर शहर उनके लिए भी अजनबी नहीं है । ननिहाल होने के नाते उनके ताल्लुक के तार यहाँ के एक मोहल्ले राम नारायण बाज़ार से जुड़े रहे हैं। इसलिए उन्हें याद हैं उस गली के खस्ते ,समोसे, जलेबी ….और वो कानपुर यात्रा के दौरान ये सब खाना पसंद करते हैं।

 गुरु –शिष्या के संबंध होने के नाते ( जामिया में पढाई के दौरान मेरे टीचर थे ) मेरे सामने एक चुनौती थी उन तीखे प्रश्नों की जो मैंने तय किये थे कि मुझे बिना झिझक के पूछने हैं। मुझे उनके सेंस आफ़ हयूमर का अंदाजा है जिसमें वो बात को बहुत खूबी से टालकर सामने वाले की ही चुटकी ले लेते हैं । या आपकी बातचीत को अपने किस्सों से कोई मनचाहा मोड़ दे सकते हैं । लेकिन वही तो चैलेन्ज था कि बिना असहिष्णु हुए सारी बातचीत रोचक तरीके से हो जाए । अपनी किताब ‘ असग़र वजाहत –चुनी हुई कहानियां ‘ के ऊपर एक चर्चा के लिए कानपुर आये लेखक डाक्टर असग़र वजाहत के साथ एक लम्बी बातचीत हुई । ये बातचीत उनके व्यस्त शिडयूल की वजह से उनकी ही आर्ट के एक फॉर्म इंस्टालेशन आर्ट ( आजकल वो इस आर्ट फॉर्म पर काम कर रहें हैं ) की तरह हुई अलग  अलग बेतरतीब सी पर जिसको जोड़ कर कुछ नया अर्थपूर्ण बन जाए ……टुकड़ों में कलेक्ट की गई एक मुकम्मल आर्टपीस …….

आपकी गुरु चेला सीरीज और गुरु हरिराम सीरीज की कहानियां बहुत पसंद की जा रही हैं। मैंने भी इस सीरीज की कुछ कहानियां फेसबुक पर शेयर की हैं। लोगों की बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली इस पर। क्या आप और भी काम कर रहें हैं ऐसी कहानियों पर ?  

  • देखिये इस मामले में हमारा कॉम्पटीशन कवियों से है। कवि अपनी कवितायेँ लिए घूम रहें हैं उन्हें जब मौका मिला दो मिनट में अपनी कविता सुना दी । अब कहानी वाला क्या करेगा बेचारा …वो एक को पकड़ कर लाया तो दूसरा चला गया …तो ये सोचा कि कुछ ऐसा होना चाहिए जो मौखिक परंपरा से जुडा हुआ हो । और हमारी अपनी कहानी की जो परंपरा है जिसमे प्रतीक होते हैं, बिम्ब होते हैं ..जो पश्चिम से थोडा अलग हो ऐसा कुछ लिखा जाये । एक बात और बताऊँ जो बहुत रोचक हो सकती है शायद बहुत लोगों को पसंद ना आये । प्रेमचंद ने अपने समय में क्या किया कि पश्चिम का पूरा फार्मेट ले लिया । वो यूरोपीय कहानी का फार्मेट है । सोजे वतन के बाद का फार्मेट अलग है । जैसे पश्चिमी कहानी का है कथानक हो , कथोपकथन हो, चरमोत्कर्ष हो आदि ..आदि ..ये फार्मेट हमारी कहानी का नहीं है । हमारे कहानी, नरेशन की कहानी है। ….यूरोप की कहानी का फार्मेट अपनाने का परिणाम ये हुआ कि हमारी कहानी अपनी परंपरा से कटकर वेस्टर्न ढांचे में ढल गई । आज हम लोग जो कहानी लिखते हैं वो पश्चिम की परंपरा है ।

तो इस ढांचे से अलग होकर कुछ करना है ये सोचकर इसकी शुरुआत हुई थी इमरजेंसी के ज़माने से ..फिर उसमें संवाद शैली भी जुडती चली गई ,फिर उसमे कविता का प्रभाव उसमें और भी टेक्निक आती चली गई । इस तरह लघुकथा भी आयी …अच्छा मैं उसको लघु मानता भी नहीं क्योंकि लघु आकार में नहीं होता लघु विचार में होता है । अगर कोई कहानी छोटी है पर बड़ा विचार दे रही है तो आप उसको लघु कैसे मानोगे । तो इस तरह की कहानियों का ये सिलसिला है। अभी नहीं लिख रहा हूँ पर और भी इस तरह की लिखने का विचार है ।

लघु में भी एक और शुरू हुआ है तीन –चार लाइन की कहानी जैसे कि रवीश कुमार ने लिखी थी लप्रेक ..इस तरह के फार्मेट भी आजकल शुरू हुए हैं । क्या लम्बी कहानियों के पाठक कम हो रहें हैं? छोटी कहानियों का दौर आएगा ?

मुझे लगता है कि अगर छोटे आकार की कहानियां है जो सिर्फ घटना पर आधारित हैं, उनमे कोई प्रतीक नहीं है ,कोई बिम्ब नहीं है वो व्यापक अर्थों में नहीं जोडती है तो उसे हम उस श्रेणी की कहानी नहीं मान सकते हैं । मान लो किसी ने कहानी लिखी मैं जा रहा था , मेरा पर्स छिन गया ,किसी को मिल गया उसने मुझे दे दिया । ये कहानी नहीं है क्योंकि ये घटना आपको कोई विजन नहीं देती है । ये कहानियां चुटकुले टाइप है ..अब अच्छे चुटकुले किसी को कभी याद भी रहते हैं तो ये वैसी ही कहानियां है ।

अभी आपने प्रेमचंद की बात की थी पश्चिमी कहानी फार्मेट को लेकर ..आपने किसी किताब की भूमिका में लिखा है कि हमारी कहानी गोबर के नगर में आने के बाद की कहानी है । तो क्या कहानियों में एक आभिजात्य आ गया है। अब सिर्फ नगरों की कहानियां कही जाती हैं ।

  • देखो ऐसा है कि गाँव की कहानी का जहाँ तक सवाल है मेरा ख्याल है हमें किसी परिवेश की डिमांड नहीं करनी चाहिए । ये हमें लेखक पर छोड़ देना चाहिए। आपने कहा भई इसमें दलित विमर्श नहीं है , अल्पसंख्यक विमर्श नहीं है।….तो कहानी पीछे छूट जायेगी विमर्श पहले आ गया । ऐसी कहानियां स्वत: निकल कर आ रही हैं। जैसे अभी बिहार के बहुत से ऐसे लेखक है जो नए युवा लेखक हैं तो उन्होंने गाँव को दूसरी तरह से देखा और लिख रहे हैं । ये हिन्दी कहानी की उपलब्धि मानी जायेगी कि उसके अन्दर विविधता बढ़ी है । हर लेखक का एक परिवेश होता है..रेअलिसटिक कहानी वो तभी लिख  पायेगा जब उसका कोई अनुभव होगा…वर्ना लिख तो लेगा पर प्रतीकों में ,बिम्बों में होगी यानि जिसको नई कहानी वाले कहा करते थे ‘भोगा हुआ यथार्थ’ वो बात नहीं आ पायेगी।

असगर वज़ाहत के साथ अनीता मिश्रा

कुछ दिन पहले लेखिका मैत्रयी जी ने किसी पत्रिका के लिए गाँव से जुडी रचनाएँ माँगी थी उनका कहना था कि उन्हें बहुत निराशा हुई कि गाँव से जुडी बहुत रचनाएँ नहीं आयीं ।

  • अब यहाँ प्रश्न है कि गाँव क्यों प्रमुख था ..और गाँव के बारे में लोग क्यों लिखते थे अब क्यों नहीं लिखते हैं । पहले गाँव में एक सामाजिक संस्कृतिक स्थायित्व था वो गाँव से ख़त्म हो गया । अब लड़का पांचवी या हाई स्कूल पास करता है तो गाँव से निकल आता है । पढ़ा -लिखा आदमी गाँव जाता नहीं है । एक तरह से गाँव आइसोलेशन में चले गए हैं । तो अब गाँव की समस्याएं, वहां का जीवन कौन, किस प्रकार लिखेगा । आप जानते होंगे कि ये बड़ी बड़ी पत्रिकाएं माधुरी आदि पुराने ज़माने वाली पत्रिकाएं गाँव तक जाती थी क्योंकि वहां एक ऐसा वर्ग था जो कला ,संस्कृति इन चीजों को महत्त्व देता था । और ये थे छोटे जमीदार जिनके अन्दर इस तरह की रूचि थी वो अब ख़त्म हो गए । अब जैसे मेरे यहाँ फतेहपुर में एक गीतकार थे । पास में ही प्रयाग शुक्ल का भी गाँव है और भी आसपास के कई लोग मिलकर वहां एक कवि गोष्ठी हो जाती थी ।  पर अब वहां कविता के नाम पर शून्य है । तो गाँव से सारा परिवेश ख़त्म हो गया। शहर और गाँव के बीच की दूरी बढ़ गई तो गाँव के ऊपर रचनाएँ आना ख़त्म हो गईं । गाँव अब पचास साल पहले वाले गाँव नहीं रह गए ..और सबसे बड़ी बात है कि ये इंसिस्ट भी नहीं करना चाहिए कि गाँव की कहानी आये ,छोटे शहर की आये या महानगर की आये । अच्छी कहानी आये ये ज्यादा जरूरी है ।

मार्केज कहते हैं कि एक रचनाकार को कारपेंटर की तरह होना चहिये कि वो गढ़ के कुछ नया बना दे ।

  • देखिये रचनाकार जो है वो हमेशा एक प्रकार का प्रतिसंसार रचता है । जिस संसार में है उससे वो असंतुष्ट है और वो एक ऐसा संसार चाहता है जिसमें उसकी मान्यताएं या मानवीय सरोकार हैं वो प्रमुख हों। ..वो एक दूसरे संसार की खोज में रहने वाला व्यक्ति है। वो एक सामानांतर दुनिया में रहने वाला व्यक्ति है, जिससे इस दुनिया में कुछ बदला जा सके । लोग सोचें और दूसरी दुनिया की तरफ बढ़ें
  • कहानी में भाषा किस तरह की होनी चाहिए ? एक भाषा प्रेमचंद की है जो सहज और आम जीवन से जुडी हुई है । एक निर्मल वर्मा की भाषा है जो कलात्मक है । कौन सी भाषा है जो पाठक को खुद से ज्यादा जोड़ पाती है ।
  • देखो भाषा होती है विषय ,कंटेंट या पात्रों के हिसाब से । अगर तुम एक लेखक की भाषा को दूसरे से बदल दो यानि अगर प्रेमचंद की भाषा को निर्मल वर्मा से बदल दो तो तुम्हे बड़ा अटपटा लगेगा । हो सकता है ,बड़ा हास्यपूर्ण हो जाये । जैसे तुम कह दो …होरी अन्दर से इस तरह से कांपा जैसे पत्ते पर पड़ती हुई छाया..उसकी शिराएँ खुल गईं हों । अब लोग कहेंगे कि होरी ऐसे कैसे कर सकता है । और मान लो लतिका इस तरह बोले जैसे होरी बोलता है तो वो भी अजीब लगेगा । तो भाषा का स्टैण्डर्ड तय होता है विषय से । अच्छी या बुरी भाषा कोई नहीं होती है । जो पात्र बोलते हैं, जो परिवेश बोलता है वही भाषा होनी चाहिए । अब मान लो कोई तुम्हारे ऊपर कहानी लिख रहा हो और वो तुम्हारी दादी की भाषा डाल दे तो बड़ा अटपटा लगेगा कि ये तो इस युग की भाषा नहीं हैं । तो युग की भाषा ,पात्र की भाषा ,परिवेश की भाषा …इस तरह से जो भाषा का खेल है, वो पात्र और परिवेश का खेल है ।

कहानी में कौन सा तत्व ज्यादा महत्वपूर्ण है ? कथ्य जरूरी है या फॉर्म  ?

  • देखिये एक चीज है कम्पोजीशन वो बहुत जरूरी है । जैसे कोई आपसे कहे कि पेड़ में क्या जरूरी है पेड़ या फल ? तो महत्त्व दोनों का है । कंटेंट और फॉर्म दोनों एक दूसरे के साथ मिलकर चलने वाली चीज हैं । दोनों में से कुछ कम अच्छा होगा तो बात बनेगी नहीं । जैसे आपके पास विषय नहीं है केवल भाषा है तो भाषा के आधार पर क्या -क्या कहेंगी । और केवल भाषा है लेकिन कंटेंट नदारत है तो वो भाषण हो जायेगा इसलिए कंटेंट और फॉर्म दोनों की सही कम्पोजीशन जरूरी है ।

 अगर हम रचना प्रक्रिया की बात करें तो किसी कहानी को कहानी कला के जो तत्व हैं उनपर कितना खरा उतरना चहिये ? क्या लेखक को लिखते वक़्त कहानी कला के तत्वों का भी ध्यान रखना चहिये ?

  • ऐसा है कि बहुत सारी चीजे आपके अनकांसश माइंड में चली जाती हैं । आप उनके बारे में सोचते नहीं हैं । जैसे कि तुमसे कहा जाए कि यहाँ से अपने घर जाओ तो तुम्हे ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं पड़ेगी । क्योंकि तुम्हारे दिमाग में यहाँ से जाने का रोड मैप है। इसी तरह कहानी लिखने वाले के दिमाग में विषय को लेकर एक रोडमैप बन जाता है । उसकी गाइडेंस में वो कहानी पर काम करता रहता है। कहाँ पर विवरण आएगा ,कहाँ पर द्वंद आएगा ,कहाँ चरमोत्कर्ष आएगा क्या अंत होगा ये अपने आप रोडमैप के हिसाब से बनता रहता है ।

शीर्षक के बारे में क्या कहेंगे ?  कभी दिमाग में कोई शीर्षक पहले आ जाता है या कहानी पूरी होने के बाद आता है ?

  • आम तौर से तो लिखने के बाद आता है । क्योंकि कहानी कहाँ बदल जायेगी ,कैसे बदल जायेगी ये कहना मुश्किल है । बदल जाने से मेरा आशय है कि उसको जिस डायमेंशन में आप निकालना चाहते हो उसी डायमेंशन के अंतर्गत क्या रूप ले लेगी फिर उसका नाम उसको कितना सार्थक बनाएगा ये बात बाद में पता चलती है।

 आप कह रहें हैं कि बदल जाती है …यानि कि कभी ये भी होता है कि पात्र लिखने वाले के हाथ से निकल जाते हैं । आपने प्लानिंग कुछ की होती है ..हो कुछ जाता है ।

  • निकलते इस रूप में हैं कि आगे जाने की दिशा में कभी आपने सोचा नहीं होता है कि इतना आगे जायेंगे और वो उस कल्पना से आगे चले जाते हैं ।

तो क्या मान लिया जाए कि पात्र अपनी नियति खुद तय कर लेते हैं ?

  • हाँ …कभी –कभी ऐसा भी हो जाता है । पात्रों को आप रोकेंगे तो बात बिगड़ जायेगी । नाराज हो जायेंगे पात्र ।

एक आलोचक कितना महत्वपूर्ण होता है रचनाकार के लिए ? आजकल लेखकों में आलोचक के प्रति कुछ असहिष्णुता बढ़ती जा रही है । अगर आलोचक कोई कमी निकल दे तो लेखक नाराज हो जाता है । तो क्या आलोचक की कोई जरुरत नहीं है

  • मुझे लगता है कि आज हिन्दी में आलोचना की स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय है । दयनीय इसलिए कि आपकी आलोचक से मित्रता है तो वो आपकी प्रशंसा कर देगा दुश्मनी है तो वो आपकी निंदा कर देगा । लेकिन ना दोस्ती है न दुश्मनी है तो वो आपकी उपेक्षा कर देगा । तो इस तरह से आलोचक के बजाय पाठक की ज्यादा भूमिका है । पाठक आपको पसंद कर रहा तो आलोचक से कोई फर्क नहीं पड़ेगा । मान लो आलोचक कह दे कि मैं बहुत महान लेखक हूँ और पाठक मुझे पसंद नहीं करते तो इसका क्या फायदा ।

  तो यानि कि आलोचक एक गैरजरूरी प्रजाति है ?

  • जरूरी उनके हिसाब से है । वो मानते हैं कि हम बहुत जरूरी हैं । अब कोई खुद को ही जरूरी ना माने ये तो मुमकिन नहीं है

 आजकल, जो टी वी चैनल की भाषा है हिंगलिश है कई समाचार पत्र भी ऐसी भाषा में आने लगे हैं । अभी एक कविता की भाषा पर काफी बात हुई जिसको अवार्ड भी मिला । ये भाषा युवा वर्ग को ज्यादा जोड़ने का काम करेगी या इससे हिन्दी साहित्य को कोई नुकसान है ?

  • ऐसा है कि तरह -तरह की कविता होती है । एक कविता मनोरंजन के लिए होती है । एक प्रशंसा के लिए होती है । एक आपकी भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए है । इन सबकी अपनी -अपनी आयु है बहुत कविताएँ ख़त्म हो जाती हैं बहुत कालजयी होती हैं। आप जिनका उल्लेख कर रही हैं आज चर्चा है पर कुछ दिन बाद लोग भूल जायेंगे ..फिर कोई चटखारेदार आन्दोलन चलेगा । लोग इसमें मजा लेंगे ।

 आपने कालजयी रचना की बात की है । एक ऐसे ही कवि हैं तुलसीदास आप आजकल उन पर  नाटक भी लिख रहें है । आपको क्या सूझी , क्यों आपने तुलसीदास को चुना नाटक लिखने के लिए ?

  • हाँ लोग पूछ सकते हैं कि आपका तुलसीदास से क्या लेना देना है? ऐसा है कि तुलसीदास जी के काम में , उनकी मानस में, उनके व्यक्तित्व में दो बातें मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगी । तुलसीदास से जुड़े दो ऐसे मुद्दे हैं जो आज भी उठाये जा सकते हैं। एक है विचारों का लोकतंत्रीकरण यानि डेमोक्रेटाइज़ेशन ऑफ़ एन आईडिया ।..रामकथा को उन्होंने डेमोक्रेटाइज किया ..आमजन तक पहुचाया ।..वर्ना पहले जो संस्कृत जानते थे, पंडित थे, वही पढ़ सकते थे । उन्होंने उस माध्यम को तोड़ दिया और लोगों से कहा कि अब आप अपनी भाषा में पढ़ सकते हैं। सोलहवी शताब्दी में ये काफी क्रांतिकारी कदम था । आज भी हमारे समाज में जो विचार है, आईडिया है वो लोगों तक नहीं पहुच पाता या नहीं पहुचाया जाता तो इस सन्दर्भ में तुलसीदास को इस नाटक में देखा जायेगा। दूसरी बात है कि तुलसीदास अपने समय के इतने प्रसिद्ध कवि थे और सम्राट अकबर ने उनका नाम ना सुना हो ये संभव नहीं है । अकबर को दरबार में नवरत्न रखने का शौक था, वो दस भी हो सकते थे । उसने अब्दुलरहीम खानखाना और टोडरमल को रखा था, जो अकबर के बहुत निकट थे और तुलसीदास के भी बहुत निकट थे । अकबर ने एक सोने का सिक्का जारी करवाया था जिसमे राम और सीता बने थे, जिसको ‘रामटका’ कहा जाता था । इसका मतलब रामकथा से अकबर बहुत प्रभावित था तो ऐसा असंभव है कि उसने तुलसीदास पर धयान ना दिया हो । उसने तुलसीदास को बुलाने की कोशिश की जरूर होगी ( अब ये एक कल्पना है ) । तुलसीदास कभी दरबार नहीं गए । तो यहाँ क्या है कि जो राजसत्ता और कला है, इसके जो सम्बन्ध है और ये बड़े रोचक सम्बन्ध हैं। इस नाटक में उन संबंधों की भी बात है ..खैर तुलसीदास अकबर की राजसत्ता के आश्रय में नहीं गए। अकबर और तुलसीदास कभी नहीं मिले । पर मेरे नाटक में ये दोनों स्वप्न में मिलते हैं । रात का समय है तुलसीदास घाट की सीढ़ियों पर लेटे हैं….अचानक घोषणा होती है कि सम्राट आ रहें है और तुलसीदास उठ जाते हैं और पूछते हैं कि अरे महाबली आप यहाँ ? अकबर खुद को महाबली कहलाना पसंद करता था और अपने से ज्यादा बली वो किसी को देखना नहीं चाहता था।

तो अब यहाँ बात है कि तुलसी बलवान हैं या अकबर ..ये डिबेट भी पूरी तरह से उसमें आयी है । ( मैं बीच में बात काटते हुए कहती हूँ …कि ये तो बहुत ही रोचक नाटक लग रहा है )

हाँ ..ये इतिहास और कल्पना का मिश्रण है।.. ..तो होता इसमें ये है कि अकबर कहते तुलसीदास से कि यहाँ राज दरबार नहीं है। अब तुम सच –सच बताओ कि तुम क्यों नहीं आये दरबार में ? तुलसीदास ने उन्हें जवाब दिया कि आपने मुझे बुलवाने का साहस कैसे किया । क्योंकि हमेशा बड़ा आदमी छोटे को बुलाता है …छोटा तो बड़े को नहीं बुलाता है।  मै तो आपको बुला सकता था जो मैंने नहीं बुलाया ..लेकिन आप मुझे कैसे बुला सकते हो। तुलसीदास कहते हैं आपका शासन लोगों के शरीर पर है मेरा भावनाओं पर है ,मन पर है । शरीर पर शासन करना बहुत आसान है ।

    तो इस नाटक में इस तरह की बातें हैं।  साथ ही तुलसीदास की जो समन्वयवादी दृष्टि रही है उसकी भी बात है। दरअसल अकबर का ‘दीन ए इलाही’ और तुलसीदास के राम दोनों में समानता है । दीन ए इलाही कहता है ‘सुलहकुल’ यानि कि सब लोगों से सुलह सबसे शांति….तुलसीदास भी सारे मतों के लोग यानि अलग -अलग हिन्दू आस्थाएं थी, उन सबमें समन्वय चाहते है । राम उन सबका प्रतीक हैं । आप देखिये कि एक युग में दो महान व्यक्ति की सोच एक जैसी है । कह रहें है कि विविधता  में एकता पैदा करो । शांति ,सहयोग ,भाई चारा की बातें हैं। तो राज्यसत्ता और कला के बीच के संबध उनके माध्यम से इस नाटक में आयेंगे।

 आजकल व्यावसायिकता हर चीज में है ..यानि कि प्रोडक्ट का आना ही काफी नहीं है उसकी मार्केटिंग भी जरूरी है । यही वजह है कि आजकल लेखक भी अपनी किताब की सूचना ,उसका विमोचन आदि की जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से सबको देता है । आपको लगता है ऐसा करना अब जरूरी हो गया है ? यानि अब बेचना सिर्फ प्रकाशक का काम नहीं है लेखक को भी इन्वोल्व होना पड़ता है ।

  • देखो इसमें कोई बुरी बात नहीं है । कोई ख़राब चीज तो नहीं बेच रहे हो । कोई गंदी चीज नहीं है। साहित्य ही है…. तो बेच लो । पहले लोग अख़बार में विज्ञापन देते थे कि मेरी किताब छप गई है । अब सोशल मीडिया में सूचना डाल देते हैं । उससे कोई लेखक बड़ा हो जाएगा ऐसा कुछ नहीं है ये केवल जानकारी की बात है ।

आपने लेखन के आलावा दूसरी विधाओं में भी काम किया है । पेंटिंग ,इंस्टालेशन आर्ट आदि । क्या लगता है एक माध्यम में खुद को व्यक्त करना काफी नहीं है ?

  • शायद दूसरी चीजे भी अपील करती हैं । मुझे लगता है ये भी अभिव्यक्ति का एक तरीका है । अभिव्यक्ति के तरीकों की खोज में और विधाओं में लोग जाते हैं । ऐसा सब लोगों को नहीं लगता है।  उन्हें लगता है कि बस लिख रहे हैं वही काफी है । ये इत्तफाक़ है कि मेरा रुझान विजुअल आर्ट और लेखन दोनों के प्रति रहा है ।

ये जो कहा जाता है दलित साहित्य ,महिला साहित्य क्या ऐसा है कि दलित,महिला,अल्पसंख्यक ही अपनी –अपनी बात बेहतर तरीके से कह सकते हैं ?

  • देखिये ये गलत है ऐसा नहीं होना चाहिए क्योंकि साहित्य या कलाएं हैं जो लेखक या कलाकार को व्यापक आधार देती हैं ..अब जैसे महिलाएं लिखेंगी महिलाओं के बारे में हो सकता है अच्छा लिखे पर ये कोई नियम नहीं है वही लिखेंगी तो ही अच्छा होगा ।

महिला लेखन पर कुछ बात करते हैं। राजेन्द्र यादव स्कूल की एक विचारधारा थी जो देह विमर्श को बहुत महत्वपूर्ण मानती थी और बहुत सारी लेखिकाओं ने उस विमर्श पर केन्द्रित होकर लेखन भी किया हैं । बहुत बोल्ड कहानियां लिखी गईं हैं लेकिन क्या उन कहानियों में स्त्रियों के रोजमर्रा जीवन की समस्याएं हैं ? जैसे अभी हाल में एक बुकर प्राइज़ विनर लेखिका हान कांग ने अपने नावेल में एक मुद्दा लिया वो वेज खाने को  लेकर है। क्या हमारे यहाँ इस तरह की रोजमर्रा की बातों का संघर्ष लेखन में है ?

  • सिर्फ देह विमर्श की बात तो शायद पत्रिका को बेचने के लिए या एक आकर्षण पैदा करने के लिए हो । भारत की या तीसरी दुनिया की स्त्री की स्वतंत्रता सीधी -सीधी आर्थिक या समाजिक स्थितियों से जुडी हुई है । वो देह से जुडी हुई नही है । तो स्त्रियों से जुड़े उन मूल मुद्दों को उठाने के बजाय इन मुद्दों को उठाया गया जो शायद पुरुषों के लिए ज्यादा रोचक थे । ज्यादा मजेदार थे। स्त्री के मुद्दें मुझे लगता है आर्थिक और सामाजिक स्थिति से जुड़े हुए हैं ।

google से साभार

क्या लेखक और साहित्यकार पर समाज के कोई नैतिक नियम नहीं लागू होने चाहिए ? जैसे कि अक्सर उनके बहुत सारे प्रेम सम्बन्ध होते हैं। तमाम कंट्रोवर्सी होती है।

  • देखो ऐसा है, समाज में जो आदमी रह रहा है उसको समाज ही तय करता है कि कितनी लिबर्टी दी जाये । पर कोई नियम ना लागू हो ये मुश्किल है । जैसे कि आप कहते हैं हम समाज में रहते हैं पर हम कपड़े पहने हम पर ये नियम ना लागू किया जाए। तो समाज या देश तत्काल आपको पकड़ लेगा या स्वीकार नहीं करेगा । तो उसकी एक लिमिट होती है कलाकार या चित्रकार का अपना एक औरा होता है। जैसे कि पिकासो सत्तर या अस्सी के थे तब उन्होंने विवाह किया, अब कहा जाये कि लडकी ने उनके साथ क्यों विवाह किया या उन्होंने क्यों किया ये बात सोचने की है । लेकिन ये उन दोनों के बीच की बात है । कुछ वजहों से समाज उनको किसी सीमा तक कुछ रिलेक्सेसन दे सकता है पर ये टोटल होगा ये मुश्किल है ।

आजकल जो पाकिस्तान के आर्टिस्ट पर बैन की बात हो रही है क्या आप सहमत हैं?

  • कलाकार को आप बाँट नहीं सकते हैं। ना वो पाकिस्तानी होता है ना हिन्दुस्तानी । जिस तरह से आक्रामक राजनीति हमारी बन रही है उससे रास्ता निकलना मुश्किल है । आक्रामकता रास्ता नहीं निकालती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुत समझदारी की बात की थी । उन्होंने कहा था कि दोस्तों को आप बदल सकते हैं पड़ोसियों को नहीं बदल सकते हैं । तो पड़ोसी के साथ संवाद ख़त्म नहीं होना चाहिए। आपसी बातचीत से ही समस्या सुलझ सकती है । नफरत से कुछ भी हल नहीं होता है ।

 क्या असहिष्णुता बढ़ गई है ? रियल से लेकर सोशल मीडिया तक में ?

  • जी बिलकुल बढ़ गई है। आप देखते हैं लोग छोटी- छोटी बात पर हत्या कर दे रहें हैं। दो ढाई साल हो गए हैं शुरू में आप कह सकते थे कि एकाध घटनाएँ हो गईं हैं लेकिन अब लगातार ऐसा हो रहा है, इससे पता चलता है कि कहीं कुछ गड़बड़ है और ये बात हमारे प्रधानमंत्री जी ने खुद कही है कि लोग गोरक्षा के नाम पर गुंडागर्दी ना करें ।

—तो ऐसे माहौल में लेखक और कलाकार की क्या भूमिका हो जाती है ?

  • लेखकों की जिम्मेदारी यही बनती है कि वो जो शांति ,सहयोग और भाईचारे की बात करते आ रहें हैं वही करते रहें । वो सड़क पर निकल नहीं सकते , वो लड़ाई झगडा नहीं कर सकते, वो मुकदमें लड़ नहीं सकते ,वो किसी और तरह से रोक नहीं सकते तो यही बचता है कि वो अपने लेखन से अपना विरोध दर्ज करते रहें । आपने देखा होगा कि कुछ लोगों ने इस माहौल के विरोध में अपने पुरस्कार सम्मान लौटाए। ये सोचकर कि इससे कोई दबाव बनेगा समाज पर पर ऐसा हुआ नहीं, असहिष्णुता कम नहीं हुई।

माफ़ करिए मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ …वो एक प्रतीक था विरोध दर्ज करने का कि लोगों ने अपने सम्मान लौटाए । आपने क्यों नहीं लौटाया ?  

  • देखिये मेरे पास कोई ऐसा सम्मान नहीं था कि मै उसे लौटाता जैसे कि साहित्य अकादमी का सम्मान आदि ।

पर आपने स्वीकार तो किया इस दौरान……क्यों कर लिया ?

  • देखिये विरोध जताने का कोई एक तरीका नहीं होता है । ऐसा होता तो मै बहुत आसानी से कह सकता हूँ कि आपने विरोध नहीं किया । मतलब मै विरोध करूँ तो आप कहेंगी कि नहीं भई ये सही विरोध नहीं है जब तक आपने सम्मान नहीं लौटाया आपका विरोध नहीं माना जायेगा । इसका मतलब है आप विरोध को सीधे -सीधे जोड़ रहें है पुरस्कार से जिसने नहीं लौटाया उसने विरोध नहीं किया । यानि कि जो लोग इतने साल से जातिवाद ,परिवारवाद के विरुद्द लिख रहें हैं उनको आप रेकोगनाइज़ नहीं कर रहें हैं आप केवल उन्हें कर रहें हैं जिन्होंने लौटाया ।

     अब जहाँ तक पुरस्कार लेने का सवाल है देखिये कि पुरस्कार किसको दिया जाता है क्यों दिया जाता है । वो एक व्यक्ति को नहीं एक लेखक को दिया जाता है । अगर किसी ने साम्प्रदायिकता ,जातिवाद के विरुद्द लिखा है तो उसको अगर कोई पुरस्कार दिया जा रहा है तो इसका मतलब है कि उसके जो सरोकार हैं उसको रेकोगनाइज़ किया जा रहा है। अब अगर आप लौटाते हैं तो क्या साबित करना चाहते हैं कि मैंने जो लिखा था वो गलत था अब उसको मैं लौटा रहा हूँ ।

आपकी एक दिलचस्प कहानी भी है ‘मै और पद्मश्री’ जिसमें बहुत बड़ा व्यंग है जुगाड़ करके पुरस्कार पाने वालो पर 

  • देखिये कोई भी चीज ब्लैक एंड वाइट नहीं होती है। अच्छी और बुरी के बीच में भी बहुत सी चीजे होती हैं । हमें उनके लिए भी स्पेस रखना चहिये । अगर हम कहें कि सारे पुरस्कार जुगाड़ लगाकर दिए जाते हैं तो वो बात भी सही नहीं होगी । और ये कहें कि एकदम फेयर होते हैं तो वो भी सही नहीं है । स्थितियां दोनो हैं तो सिर्फ सिंगल माइंड होकर सोचना ठीक नही है । वर्ना हमारे सामने सच्चाई आ नहीं पायेगी  ।

 आजकल गांधी की किसी न किसी रूप में बहुत चर्चा है । आपने भी गांधी पर एक नाटक लिखा है गोडसे@गांधी .कॉम, क्या लगता है अचानक गांधी की इतनी चर्चा की वजह क्या है ?  

  • देखिये ऐसा है कि गांधी के सामने इस देश का एक विजन था । एक उनकी अपनी दृष्टि थी कि भारत को इस प्रकार का देश बनना है । आज़ादी के पचास साल से ऊपर हो गए तो अब हमने देखा कि हमारा देश कैसा बन गया है ? तो हमें वो सारे लोग याद आये जिन्होंने भारत के बारे में कोई सपना देखा था । तो सबसे बड़ा सपना गांधी जी ने देखा था । यहाँ पर लोकतंत्र होगा पर उसका स्वरुप कोई दूसरा होगा। हमने लोकतंत्र  का पश्चिमी माडल अपना लिया । उनके विकास की धारणा थी कि लोगों के बीच से निकले हमने लोगों पर लादना शुरू कर दिया  । तो इस प्रकार से जब हमने पचास- सत्तर साल के समाज को समझने की कोशिश की तो गांधी सामने आये कि अगर गांधी जीवित होते तो हमारा समाज कैसा होता ।

आपने अपने नाटक को बा के नजरिये से लिखा है कि उन्होंने गांधी के साथ रहकर किस तरह का जीवन जिया ?

  • सिर्फ बा के मध्यम से नहीं है । बा का एक सीन है । गांधी के विवाह ,प्रेम ,नारी , ब्रह्मचर्य के बारे में जो विचार हैं उनका भी जिक्र है और इस मामले में नाटक थोडा-थोडा क्रिटिकल है इसलिए कि गांधी बाद में स्वयं ये स्वीकार करते हैं कि उनके प्रेम संबंधी विचार सही नहीं हैं इसलिए वो नाटक में लड़की की शादी करातें हैं । नाटक में गांधी को सिर्फ सराहा नहीं गया है । उनकी क्रिटिकल स्टडी है।

 फिल्मो में जैसा बदलाव आया है क्या साहित्य में आया है ?

  • साहित्य में कोई नया विचार या बात आती है उसकी उतनी चर्चा नहीं होती है जितनी कि फिल्म की होती है । जबकि साहित्य में ऐसी बात पहले कही जा चुकी होती है । अब जैसे कि फिल्म ‘पिंक’ सिर्फ एक कहानी होती तो लोग कहते कि हाँ–हाँ अच्छी है पर उस तरह से चर्चा नहीं होती। फिल्म मास मीडिया है साहित्य मास मीडिया नहीं है । इसलिए साहित्य में जो कहा गया उसका पता सबको नहीं चल पाता ना उतनी चर्चा हो पाती है ।

क्या उर्दू कहानी हिन्दी कहानी से ज्यादा प्रोग्रेसिव रही है ?

  • आप ये जानती हैं सैतालिस से पहले यानि आज़ादी से पहले उत्तर भारत की जो मुख्य साहित्यिक भाषा थी वो उर्दू थी । हिन्दू ,मुस्लिम ,सिख ,ईसाई सब उसी भाषा में लिखते थे । इसी तरह जैसे मध्यकाल की संभ्रांत भाषा थी वो फारसी थी । सब उसी में लिखते थे । उर्दू की केन्द्रीय स्थिति थी और इस नाते उसमें अच्छा साहित्य लिखा गया इसलिए ये कोई आश्चर्य की बात नहीं है । हिन्दी की केन्द्रीय स्थिति आज़ादी के बाद बनी इसलिए आज़ादी के बाद हिन्दी कहानी ने उन चीजों को सामने लाना शुरू किया जो उर्दू कहानी ला चुकी थी और कोई बात नहीं है ।

 आपकी रचनाशीलता को किन –किन लोगों ने प्रभावित किया है ?

  • मेरी रचनाशीलता को उन लेखकों ने प्रभावित किया जिन्हें मैंने पढ़ा जैसे कि चेखव ,टोलस्टाय ,दोस्तोवस्की यूरोपीयन क्लासिक्स ने काफी प्रभावित किया। भारत में उर्दू क्लासिक्स ने बहुत असर डाला है । हिन्दी की बात करें तो रेणु बहुत प्रभावित करते हैं। पचतंत्र और कई मौखिक परंपरा की कहानियों ने काफी प्रभावित किया है ।

आप उत्तर प्रदेश के एक जनपद फतेहपुर से ताल्लुक रखते हैं फिर आपने विश्व के इतने देशों का भ्रमण किया, एक रचनाकार के रूप में आप इस सफ़र को कैसे देखते हैं ?

  • देखिये ऐसा है कि रचनाकार के अनुभव जैसे -जैसे बनते हैं, बदलते हैं उसकी सोच में परिवर्तन आता है और ये परिवर्तन उसकी रचना में रेफलेक्ट होता है। इसे विकास की यात्रा कह सकते हैं। ये यात्रा अनजाने तरीके से होती है । आपको पता नहीं चलता कि आपके ऊपर क्या -क्या प्रभाव पड़ता है और वो पड़ता रहता है ।

आजकल सोशल मीडिया का ट्रेंड हैं आप काफी एक्टिव हैं वहां पर कैसा अनुभव है क्योंकि बहुत बार विपरीत विचार वाले से झगडा हो जाता है तब दिक्कत आती है । आपको क्या लगता है इसमें टाइम ख़राब होता है ? लेखक को अपनी ऊर्जा यहाँ नहीं बर्बाद करनी चाहिए ?

  • देखिये एक लेखक जो है वो कहीं गहरे में एक्टिविस्ट भी होता है । वो लिखता ही इसलिए है कि जो समाज में हो रहा है उससे वो सहमत नहीं है । और सोशल मीडिया का एक्टिविज्म बड़े मजे का है। वहां रिस्पांस तुरंत मिल जाता है । अखबार और किताब में रेसपोंस शून्य मिलता है । यहाँ तुरंत मिलता है । इसलिए आप समझ जाते हैं कि लोग आपकी बात को कितना समझ रहें है या विरोध कर रहें । बहस किस दिशा में जायेगी । तो इससे एक्टिविज्म को संतोष मिलता है । इससे आप चार्ज भी होते हैं ।

 

google से

कुछ दिन पहले मेरी राजेश जोशी जी से बात हुई थी उन्होंने कहा था कि सोशल मीडिया में  बहुत एक्टिव होने का कोई फायदा नहीं है । यहाँ चीजें तेजी से स्क्रॉल करती हैं । बहुत शार्ट  टर्म मेमोरी होती है । इससे हम कोई बड़ा बदलाव नहीं कर सकते हैं ।

  • ये बिलकुल गलत बात है क्योंकि सोशल मीडिया में जो लोग आपके सामने आते हैं उनके बड़े पक्के विचार होते हैं । उनमे जल्दी बदलाव नहीं आता है । उससे आपको अपने देश के समाज के लोगों की विचारधारा का ,सोचने की क्या नब्ज है उसका पता चलता है । अगर फंडामेंटलिज्म है बढ़ रहा है तो वो आपको वहां भी नज़र आता है । उसके महत्त्व को आप कम करके नहीं आंक सकते हैं ।

युवा रचनाकारों को कोई लेखकीय टिप्स देना चाहेंगे ?

  • युवाओं को जो ख्याल रखना चाहिए वो है कि प्रॉपर तैयारी के बिना काम ना करें। तैयारी का मतलब है अच्छा पढ़ा , अच्छा देखा, देर तक सोचा तब लिखा । उनके दिमाग में उनकी जो रचना है ,उनका काम ऐसा बैठना चहिये कि उसके सिवा कुछ और ना हो । आपने सुना होगा कि कहा जाता है लेखक थोडा एब्सेंट माइंडेड होते हैं । क्यों होते हैं ? क्योंकि उनके माइंड में अपने काम की प्रक्रियाएं चलती रहती हैं । अब ये कैसे चलती हैं इसका एक उदाहरण देता हूँ। कहते हैं कि टॉलस्टॉय एक होटल में सीढियां उतर रहे थे। सीढियां इतनी पतली थी कि एक आदमी उतर सकता था । और एक चढ़ सकता था । नीचे से एक आदमी चढ़ रहा था तब ये उतर सकते थे लेकिन ये उतरे नहीं तो वो आदमी जब ऊपर आ गया तो उसने कहा कि श्रीमान जी, जगह तो थी आप तो अकेले थे ,उतर सकते थे आप उतरे क्यों नहीं ? तो टॉलस्टॉय ने कहा मैं अकेला कहाँ था।  मेरे साथ अन्ना करेनिना भी थी । तो लेखक के लिए उसके पात्र जीवित होते हैं । वो उनके साथ होता है । ऐसे ही एक किस्सा है, एक हंगेरियन कवि थे। उनको भारत आना था । अशोक बाजपेयी बुला रहे थे उनको । मेरी उनसे बात हुई तो उन्होंने कहा कि मैं एक मिनट के लिए भी मैं अपना देश ,अपना शहर, अपना परिवेश छोड़ नहीं सकता । मैं जो कुछ लिख रहा हूँ उसके लिए ये परिवेश ,ये मानसिकता जरूरी है अगर मै इससे बाहर निकला तो मै लिख नहीं पाउँगा । मेरे लिए सबसे जरूरी है मेरी रचना। कहने का मतलब है कि अपने लेखन से इस कदर जुड़ाव होना चाहिए कि उसके सिवा कुछ और ना हो ।

अनीता द्वारा लिखित

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