ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…?: संपादकीय (हनीफ मदार)

अपनी बात अपनी बात

हनीफ मदार 543 11/17/2018 12:00:00 AM

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…? हनीफ मदार हनीफ मदार इधर हम छियासठवें गणतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं | अंकों के लिहाज़ से इस गणतंत्र वर्ष के शुरूआत 1 जनवरी २०१६ से पूरे हफ्ते हमरंग पर एक भी पोस्ट या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी | जबकि न लेखकों की कमी थी और न ही उनकी बेहतर रचनाओं की | तब ज़ाहिरन उनके ताने-उलाहने और शिकायतें सुननी ही थीं और मैं सुन भी रहा था ‘संपादक जी मेरी कविता, कहानी, व्यंग्य, आलेख, नाटक, रपट या अन्य विधाओं की रचनाएं जो रहीं कब तक प्रकाशित करेंगे | मेरी रचना तो नए साल के लिए ही थी और आपने पढ़ी होगी बेहद प्रासंगिक भी थी’ | और यकीन मानिए निश्चित ही वे सभी रचनाएं सामाजिक, राजनैतिक और खासकर साहित्यिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थीं जो इस पूरे हफ्ते में निरंतर प्रकाशित होनी थीं | किन्तु हमारी बिडम्बना कि हमारे पास इन तमाम लेखक साथियों के सामने अफ़सोस ज़ाहिर करने, खुद में खिन्न होने और खीझने के अलावा कुछ नहीं था |

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…? 

हनीफ मदार

हनीफ मदार

इधर हम छियासठवें गणतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं | अंकों के लिहाज़ से इस गणतंत्र वर्ष के शुरूआत 1 जनवरी २०१६ से पूरे हफ्ते हमरंग पर एक भी पोस्ट या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी | जबकि न लेखकों की कमी थी और न ही उनकी बेहतर रचनाओं की | तब ज़ाहिरन उनके ताने-उलाहने और शिकायतें सुननी ही थीं और मैं सुन भी रहा था ‘संपादक जी मेरी कविता, कहानी, व्यंग्य, आलेख, नाटक, रपट या अन्य विधाओं की रचनाएं जो रहीं कब तक प्रकाशित करेंगे | मेरी रचना तो नए साल के लिए ही थी और आपने पढ़ी होगी बेहद प्रासंगिक भी थी’ | और यकीन मानिए निश्चित ही वे सभी रचनाएं सामाजिक, राजनैतिक और खासकर साहित्यिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थीं जो इस पूरे हफ्ते में निरंतर प्रकाशित होनी थीं | किन्तु हमारी बिडम्बना कि हमारे पास इन तमाम लेखक साथियों के सामने अफ़सोस ज़ाहिर करने, खुद में खिन्न होने और खीझने के अलावा कुछ नहीं था |

       इन दिनों मैं या हमरंग की टीम बीमार भी नहीं थी, हाँ यदि बीमार होती तो हमें और लेखकों को यह तसल्ली भी रहती कि चलो अस्वस्थ होना इंसानी बश में नहीं है, और हमारे लिए स्वस्थ स्वास्थ्य की कामना के साथ हमदर्दी से भरे कुछ संदेश या फ़ोन भी आ जाते लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ क्योंकि सबकुछ होने के बावजूद भी कुछ न होने देने का कारण कुछ और  था……….. | सच मानिए इन लाइनों को लिखते हुए हमारे मन में उन लेखकों के प्रति क्षमा-याचना का भाव तो मुखर था लेकिन इसके निमित्त हम नहीं……… ‘इंटरनेट’ था | बावजूद इसके एक अपराध बोध की बेचैनी ने हमसे  यह लिखवा लिया है |

दरअसल हम तो टाटा डोकोमो के ‘टाटा फोटोन’ का 3-जी इंटरनेट इस्तेमाल करते हैं जिसकी सेवायें हमारे  यहाँ तो अक्सर ही बाधित रहती हैं और यह बाधा घंटे दो घंटे या दिन दो दिन की नहीं होती बल्कि हफ्ता और पखवाड़े के लिए होती है | ऐसा भी नहीं है कि देश के अन्य शहरों की तरह इस शहर में दूसरी नेटवर्क कम्पनियों की पहुँच न हो | यहाँ भी हर सड़क और चौराहे पर ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में, अब बाते खत्म नहीं होंगी, कॉल ड्राप नहीं, या फ्री इंटरनेट, आदि जैसे लोक लुभावने स्लोगनों से पुते हुए एयरटेल, आइडिया, रिलाइंस, वोडाफोन…. आदि आदि कम्पनियों के बड़े-बड़े होर्डिंग खड़े हुए हैं | सबकी दुकाने खुली हैं सब बेचने को आतुर हैं बेच रहे हैं | तो यहाँ बात महज़ टाटा डोकोमो या हमारी व्यक्तिगत नहीं है बल्कि हम सब ही, कहीं न कहीं इन्हीं कम्पनियों की सेवाए लेने को विवश हैं और ले भी रखीं हैं, तो ज़ाहिर सी बात है कि हम सब इन कम्पनियों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं की गुणवत्ता से वाकिफ हैं | तब यह बात व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिकता में दिखाई देने लगती है | सामूहिकता जो पूरे सामाजिकता पर न केबल लागू होती है बल्कि प्रभावित भी करती है तब उस पर चर्चा करना भी लाजिमी है |

इन कम्पनियों की अच्छी या खराब सेवाओं से रोजाना ही दो चार होते रहने के बावजूद भी हम यहाँ इनकी सेवाओं की गुणवत्ता की बात नहीं कर रहे बल्कि उससे प्रभावित होते हमारे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उस ताने-बाने की वैचारिक अवरुद्धता पर बात कर रहे हैं जो हमारी भाषा, वर्ग और संस्कृति की विरासतीय थाती है | इस पर चर्चा करना तब और जरूरी लगने लगता है जब देश के हर कोने में, हर एक क्षेत्र और सेवा को डिज़िटल किये जाने, होने या करने की आवाजें आम जन की तमाम मूल-भूत जरूरतों एवं संबैधानिक आवाजों से ऊपर सुनाई दे रही है | खरीददारी, बैंकिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य, यात्रा, जन संदेश, मनोरंजन, साहित्य एवं कला लगभग सभी सेवायें या सुबिधायें इसी इंटरनेट पर या कहा जाय इन कम्पनियों द्वारा दी जाने वाली इन्ही सेवाओं पर निर्भर है | जो हमें  हर दिन खीझने का अवसर जरूर देती हैं | यही खिन्नता कहीं न कहीं और किसी न किसी रूप में हमारे जीवन का हिस्सा बन गई हैं | और हम सिवाय इसके कि ‘इस सेवा के लिए एक दवाएं, उसके लिए दो दवाएं, हमारे अधिकारी से बात करने को फलां दवाएं……. अब इंतज़ार करें अपनी बारी का…… अब आपके प्रयासों की अधिकतम सीमा समाप्त हो गई है…… इसके अलावा अन्य …अन्य |’

यहाँ हमारा उद्देश्य किसी नेटवर्क या नेटवर्क प्रदाता कम्पनी या अत्याधुनिक तकनीक या सुबिधाओं का विरोध करना बिलकुल भी नहीं है बल्कि इन तकनीकी जरूरतों के आधारगत ढाँचे को मजबूत बनाने की और इशारा करना भर है, क्यों कि इन्हीं सेवा या तकनीकी कारणों पर न केवल वर्तमान अपितु सम्पूर्ण इंसानी जिन्दगी के वजूद का भविष्य निर्भर है | अपने छियासठवें गणतंत्र में प्रवेश करते हुए निश्चित ही हम गर्व कर सकते हैं, तकनीकी रूप से खुद के यहाँ पहुँचने पर | निश्चित ही इन तकनीकी सेवाओं के बल पर ही न केवल आपसी संचार माध्यम ही तेज़ हुआ है बल्कि एक ही समय में कई कामों को सहज ही कर पाने का कौशल भी इंसान में विकसित हुआ है | तब ज़ाहिर है सम्पूर्ण सामाजिक, राजनैतिक और व्यक्तिगत जीवन, जिंदगी और दिनचर्या का इस पर पूरी तरह से निर्भर होना अस्वाभाविक नहीं है | ऐसे में, एक बार ठहर कर इन सेवाओं की गुणवत्ता और किस कीमत पर हमें यह मिल रहीं हैं इस पर नहीं सोच लेना चाहिए ? खासकर तब और, जब इन्हीं कम्पनियों द्वारा लगाए गए एक अनुमान के मुताबिक़ २०१७ तक भारत में ४८ करोड़ इंटरनेट के यूजर हो जायेंगे तो २०२५ तक यह संख्या लगभग ७० करोड़ तक पहुँच जायेगी मसलन आने वाला भारतीय भविष्य पूरी तरह इंटरनेट पर नहीं बल्कि इन कम्पनियों की दया या मर्जी पर ही निर्भर करेगा |

यह बात इस लिए भी कही जा सकती है कि ट्राई के नोटिफिकेशन के मुताबिक, प्रीपेड ग्राहकों को टेलिकॉम कंपनियां कॉल ड्राप होने पर 4 घंटे के अंदर SMS भेजकर बताएंगी की आपकी कॉल ड्राप हुई थी और आपके अकाउंट में इतने पैसे भेज दिए गए हैं. पोस्टपेड ग्राहकों के केस में उनके मासिक बिल में कॉल ड्राप का ब्यौरा दिया जाएगा और बिल की रकम से कॉल ड्राप की रकम को कम कर दिया जाएगा | यूं तो ट्राई की यह व्यवस्था 1 जनवरी २०१६ से लागू हो जानी थी किन्तु यह टेलीकोम कम्पनियां इसका विरोध अपने लाइसेंस नियमों का हवाला देकर कर रहीं हैं जहाँ उन्हें ९० फीसद आउट डोर कवरेज़ देने की बाद्ध्यता तो है लेकिन वे इनडोर कवरेज़ देने के लिए बाध्य नहीं हैं | वहीँ ब्लाक स्तर से बाहर महज़ ३० फीसद ही कवरेज़ देना जरूरी है | वहीँ फ्री नेट सेवा देने का ढिढोरा पीटने वाली कम्पनियां इस ‘फ्री’ शब्द के शहद में लपेट कर, एक ऐसा लौलीपॉप दिखा रही हैं जो नशे की तरह काम करेगा | यह आधी-अधूरी सेवा के साथ महज़ 10 ही दिन फ्री होगा | सोई हुई मानवीय इच्छाओं के जागने के बाद वह किसी भी कीमत पर उसे खरीदेगा ही | फिर इनकी वही मनमानी | ऐसे में ट्राई के किसी भी नियम या प्रतिबन्ध का इन कम्पनियों द्वारा किया जाने वाला विरोध उनके भीतर चलती इस तानाशाही सोच की मनमानी को ही उजागर करता है कि उनकी सेवाओं के बिना निश्चित ही यह मानव जीवन रुक जाएगा | ऐसे में यह मान लेना क्या अनुचित है कि सम्पूर्ण भारतीय जन-जीवन, जीवन-शैली और दिनचर्या को व्यक्तिगत तौर पर कुछ निजी हाथों में सौंपना, हमारे गणतंत्र में, हमारे चुने गये जन प्रतिनिधियों की अदूरदर्शिता ही है……. और यदि मजबूरी है तो वज़ह क्या हैं ?

बात यहीं खत्म नहीं होती इसका एक और पहलू जो एक लेखक या सम्पादक के रूप में हम देखते हैं | लगभग 40 बरस पहले इंटरनेट या इस तकनीक का विचार तक किसी के दिमाग में नहीं था | सब कुछ कागज़ कलम पर ही निर्भर था | तब १९७४ में ‘प्रेमचंद की विरासत’ में राजेन्द्र यादव का लेख कागज़ के संकट को लेकर लिखा गया | जहाँ एक मिल के लगभग सर्वेसर्वा व्यक्ति ने बड़ी शिष्टता से कहा था कि “देखिये आप बुरा मत मानिए | एक तरफ बच्चों को टेक्स्टबुक न मिल रहीं हों परीक्षा के लिए कापियां न मिल रही हों तब आपको किस्सा, कहानी, कविता के लिए कागज़ क्यों चाहिए ..?” इस शिष्ट उत्तर में तात्कालिक समय में भी व्यवस्था की वह मंशा उजागर होती है जो अभिव्यक्ति को बाधित करने या उसके विरोध में अक्सर ही सामने आती है | क्योंकि व्यवस्था की नज़रों में कला साहित्य और संस्कृति निहायत ही गैर जरूरी और वह बाहियात चीज़ें हैं जिनके लिए उनके पास सिर्फ हिकारत भर है, फिर उनके लिहाज़ से इसमें कोई मनोरंजन भी तो नहीं है | हालांकि व्यवस्थाओं ने समय समय पर कुछ योजनाओं और घोषणाओं का राग भी अलापा जिसमें साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को सुरक्षा व सम्मान देने का आश्वासन भी था | यह मानते हुए कि यह लोग भी पुनः आगे आकर देश के पुनर्निमाण में अपना सहयोग देंगे | बावजूद इसके हुआ क्या साहित्यकार अपनी जनवादी दृष्टि और विचार के साथ तटस्थ रहकर जन समस्याओं को सुलझाने की बात करते हुए आलोचक या विरोधी होता चला गया | मसलन व्यवस्था को उसका मंशानुकूल मुक्त सहयोग नहीं ही मिला | तब उसे चुप कराने के लिए उस समय कागज़ का संकट बेहद खूबसूरत हथियार बना |

आज कुछ भी जानना, खोजना, समझना, पढ़ना या लिखना इंटरनेट के बिना संभव नहीं रहा, किताबें हैं जरूर किन्तु किसी विषय पर ज्ञानार्ज़न के लिए वे अब पहली जरूरत नहीं, दूसरे पायदान पर विकल्प के रूप में हैं | यानी अभिव्यक्तियाँ हैं, उस लोकोक्ति की तरह कि ‘तुम डाल-डाल हम पात-पात’ | मसलन इधर इतने वर्षों बाद भी जब हम कागज़ को छोड़ आधुनिक होते हुए बाज़ार और व्य्वस्थाई मंशा के अनुसार इंटरनेट के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति के साथ डिज़िटल भारत के निर्माण में अपनी सहमती दर्ज़ करने तो लगे किन्तु स्वर नहीं बदल सके | तब इस आधुनिक होते उम्र दराज़ भारतीय गणतन्त्र में व्यवस्थापकीय कम्पनी राज के सामने इन अभिव्यक्तियों को रोकने या बाधित कर देने का यह तरीका 40 बरस पहले कागज़ को रोकने की बजाय आज इंटरनेट को बाधित करने में तब्दील हो गया | एक आम नागरिक यह कहता भी है कि मैं कहाँ लेखक हूँ फिर मैं क्यों इस समस्या से जूझ रहा हूँ, तो ‘यदि गेंहूं के साथ घुन पिसता है तो इसमें चक्की या पाटों का क्या दोष है |’ कर तो लेखक भी बेचारा कुछ नहीं सकता, सिवाय अपनी व्यथा लिखने के, बाकी सोचना तय करना व्यवस्थाओं का काम है |

हमारे भारतीय गणतंत्र की शुभकामनाओं के साथ ….|

हनीफ मदार द्वारा लिखित

हनीफ मदार बायोग्राफी !

नाम : हनीफ मदार
निक नाम : हनीफ
ईमेल आईडी : hanifmadar@gmail.com
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

जन्म -  1 मार्च १९७२ को उत्तर प्रदेश के 'एटा' जिले के एक छोटे गावं 'डोर्रा' में 

- 'सहारा समय' के लिए निरंतर तीन वर्ष विश्लेष्णात्मक आलेख | नाट्य समीक्षाएं, व्यंग्य, साक्षात्कार एवं अन्य आलेख मथुरा, आगरा से प्रकाशित अमर उजाला, दैनिक जागरण, आज, डी एल ए आदि में |

कहानियां, समीक्षाएं, कविता, व्यंग्य- हंस, परिकथा, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, समर लोक, वागर्थ, अभिव्यक्ति, वांग्मय के अलावा देश भर  की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित 

कहानी संग्रह -  "बंद कमरे की रोशनी", "रसीद नम्बर ग्यारह"

सम्पादन- प्रस्फुरण पत्रिका, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग १, 

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ३,

 'बारह क़िस्से टन्न'  भाग ४
फिल्म - जन सिनेमा की फिल्म 'कैद' के लिए पटकथा, संवाद लेखन 

अवार्ड - सविता भार्गव स्मृति सम्मान २०१३, विशम्भर नाथ चतुर्वेदी स्मृति सम्मान २०१४ 

- पूर्व सचिव - संकेत रंग टोली 

सह सचिव - जनवादी लेखक संघ,  मथुरा 

कार्यकारिणी सदस्य - जनवादी लेखक संघ राज्य कमेटी (उत्तर प्रदेश)

संपर्क- 56/56 शहजादपुर सोनई टप्पा, यमुनापार मथुरा २८१००१ 

phone- 08439244335

email- hanifmadar@gmail.com

Blogger Post

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.