गौदान: भाग 3, उपन्यास (प्रेमचंद)

कथा-कहानी उपन्यास

मुसी प्रेमचंद 2133 11/17/2018 12:00:00 AM

गौदान: भाग 3, उपन्यास (प्रेमचंद)

गौदान

भाग 3, उपन्यास

सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियाँ, कुछ फूल लिए, जाता नजर आया।

खन्ना ने पूछा – अरे, क्या बेचता है?

देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाए। बोला – कुछ तो नहीं मालिक यही घास-पात है?’

‘क्या करेगा इनको?’

‘बेचूँगा मालिक जड़ी-बूटी है।’

‘कौन-कौन-सी जड़ी-बूटी है, बता?’

देहाती ने अपना औषधालय खोल कर दिखलाया। मामूली चीजें थीं, जो जंगल के आदमी उखाड़ कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेइया, कुकरौंधो, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करंजे, घुमची आदि। हर एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उनके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मंदाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खुराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं, मालिक गठिया हो, बाई हो………..

खन्ना ने दाम पूछा – उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रूपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। गरीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया।

रायसाहब ने पूछा – आप यह घास-पात ले कर क्या करेंगे?

खन्ना ने मुस्करा कर कहा – इनकी अशर्फियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम।

‘तो यार, वह मंत्र हमें भी सिखा दो।’

‘हाँ-हाँ, शौक से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू ला कर चढ़ाइए, तब बतलाऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबका पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ॠणी हो जाएँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है? जरा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।’

रायसाहब ने कौतूहल से पूछा- मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे?

खन्ना ने कहकहा मारा – आप भी रायसाहब! बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो भी गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाकत पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफसरों को देखते हैं, और इन लंबी पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधो का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मजाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आएँगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गई। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमंतर हो जाएँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनाएँगे। ऐसे प्रसन्न-मुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो, यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैं, मगर संन्यास और त्याग, मंदिर और मठ, संप्रदाय और पंथी, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं। रूढ़ियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बन कर तुम मनुष्य न रहोगे।

रायसाहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुतावालों में आमतौर पर होता है। दु:खी प्राणी को आत्मचेतन में जो शांति मिलती है, उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़ कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था, लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?

‘लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?’

‘उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं – आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातंत्र्य उनके उपदेशों का तत्व है।’

‘मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातंत्रय का आशय क्या है?’

‘समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आया, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।’

‘मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?’

‘आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाता?’

वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुन कर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला।

रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा – यह क्या करते हैं आप – ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं,। कहीं लौट पड़े तो?

‘लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।’

‘तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूँ।’

‘तब क्या शिकार खेलने चले थे?’

‘शामत और क्या!’

रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली।

‘बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।’

‘मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।’

‘एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।’

‘आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।’

‘आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।’

‘व्यर्थ में अपने जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है!’

‘अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।’

‘अकेला?’

‘रास्ता बिलकुल साफ है।’

‘जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा।’

रायसाहब ने बहुत समझाया, मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मार कर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार हो कर उनके साथ लौटना पड़ा।

जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आए, तो खन्ना के होश ठिकाने आए।

बोले – खतरे से नहीं डरता, लेकिन खतरे के मुँह में उँगली डालना हिमाकत है।

‘अजी, जाओ भी। जरा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गई।’

‘मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गई है।’

‘मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूँगा।’

‘मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।’

‘अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश!’

खन्ना ने गर्व से कहा – जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले- तो आप कब तक आएँगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं।

रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा – जरा सोच लेने दीजिए

‘इसमें सोचने की जरूरत नहीं।’

तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना न जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंक कर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखाई और यह हाथ धो कर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे।

मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़ कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खास कर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिंदूसभा की ओर से काम करने लगे, मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था।

मिर्जा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछ कर कहा – आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था।

वकील ने समर्थन किया – जी हाँ, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी।

थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी।

‘अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे! आपके लिए भी मुश्किल है।’

मिर्जा विरक्त मन से बोले – अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा।

तंखा ने पूछा – क्यों?

‘मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमोक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिंदुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिल कर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देख कर कौंसिल से बेजार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमोक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है, और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपए हैं। रुपए के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपने जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है, अब इलेक्शन के पास न जाऊँगा। मेरा प्रोपेगंडा अब डेमोक्रेसी के खिलाफ होगा।’

मिर्जा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौड़ी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सी कर, लड़कों को पढ़ा कर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पाँच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमोक्रेसी!

हिरनों का झुंड चरता हुआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त धवनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े – बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते।

समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतर कर मिर्जा जी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आँखें पथरा गई थीं।

लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देख कर कहा – अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठा कर पहुँचा दूँ?

मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन, वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि! उसकी छलाँगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब! उसे देख कर ग्लानि होती है।

लकड़हारे ने पूछा – कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।

मिर्जा जी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले- अच्छा, उठा ले। कहाँ चलेगा?

‘जहाँ हुकुम हो मालिक।’

‘नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ!’

लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया।

‘अरे नहीं मालिक, हुजूर ने सिकार किया है, तो हम कैसे खा लें।’

‘नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?’

‘कोई आधा कोस होगा मालिक!’

तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।’

‘ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?’

‘उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।’

लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिर्जा जी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा हो कर बोला – मैं समझ गया मालिक, हुजूर ने इसकी हलाली नहीं की।

मिर्जा जी ने हँस कर कहा – बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल।

मिर्जा जी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारे को इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे।

लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आ कर मिर्जा से बोले – आप उधर कहाँ जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए?

मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्करा कर कहा – मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब जरा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न।

तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की दृष्टि से देखा और बोले – आप अपने होश में हैं या नहीं?

‘कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।’

‘शिकार इसे क्यों दे दिया?’

‘इसलिए कि उसे पा कर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।’

तंखा खिसिया कर बोले – जाइए! सोचा था, खूब कबाब उड़ाएँगे, सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैर, रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएँगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाए। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ! ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हजार रुपए महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं…नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ से एक मेनिफेस्टो निकाल दूँगा और उसी शाम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए।

मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देख कर कहा – मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ।

मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।

‘मुझ पर जितनी लानत चाहें भेजें, मगर रुपए पर लानत भेज कर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं।’

‘मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूँ।’

‘आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।’

‘लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।’

‘तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकते?’

‘जी नहीं।’

‘अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं है? आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पड़ेगा। आप सिर्फ अपना नाम दे दीजिएगा।’

‘जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैं, मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती है, कितना ऐश-पसंद, कितना मक्कार, कितना बेगैरत।’

वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जा जी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था।

लकड़हारा हिरन को कंधों पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़ाया, पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गए।

उन्होंने पुकारा – जरा सुनिए, मिर्जा जी, आप तो भागे जा रहे हैं।

मिर्जा जी ने बिना रूके हुए जवाब दिया – वह गरीब बोझ लिए इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन ले कर भी उसके बराबर नहीं चल सकते?

लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतार कर रख दिया था और दम लेने लगा था।

मिर्जा साहब ने आ कर पूछा – थक गए, क्यों?

लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा – बहुत भारी है सरकार!

‘तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ।’

लकड़हारा हँसा। मिर्जा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताजे थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिर्जा जी पर जैसे चाबुक पड़ गया।

‘तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?’

लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी – सरकार आप बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों का ही काम है।

‘मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ!’

‘इससे क्या होता है मालिक!’

मिर्जा जी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़ कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले, मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी, पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले। कंबख्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मजा आए। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, जरा इसका मजा भी देखें, लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में चीं बोल गए।

लकड़हारे ने चुटकी ली – कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं? बहुत हलका है न?

मिर्जा जी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले – उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाए हो।

‘कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक।’

‘तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ।’

‘नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों, वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।’

‘मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ।’

‘मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें।’

मिर्जा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतार कर रख दिया। वकील साहब आ पहुँचे।

मिर्जा ने दाना फेंका – अब आपको भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब!

वकील साहब की नजरों में अब मिर्जा जी का कोई महत्व न था। बोले – मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।

‘बहुत भारी नहीं है सच।’

‘अजी, रहने भी दीजिए!’

‘आप अगर इसे सौ कदम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ, आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगे, उसे मंजूर कर लूँगा।’

‘मैं इन चकमों में नहीं आता।’

‘मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह! आप जिस हलके से कहेंगे, खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कंपनी का डाइरेक्टर, मेंबर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस, सौ कदम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौका पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।’

तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्जा अपने कौल के पक्के हैं। इसमें कोई संदेह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आखिर मिर्जा इतनी दूर ले ही आए। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते, अगर इनकार करते हैं, तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पंसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।

‘सौ कदम की रही।’

‘हाँ, सौ कदम। मैं गिनता चलूँगा।’

‘देखिए, निकल न जाइएगा।’

‘निकल जाने वाले पर लानत भेजता हूँ।

तंखा ने जूते का फीता फिर से बाँधा, कोट उतार कर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हैं। फिर हिरन को उठा कर गर्दन पर रखने की चेष्टा की। दो-तीन बार जोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गई, पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गई, हाँफ उठे और लाश को जमीन पर पटकने वाले थे कि मिर्जा ने उन्हें सहारा दे कर आगे बढ़ाया।

तंखा ने एक डग इस तरह उठाया, जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिर्जा ने बढ़ावा दिया – शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह!

तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है।

‘मार लिया मैदान! शबाश! जीते रहो पट्ठे।’

तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं।

‘बस, एक बार और जोर मारो दोस्त! सौ कदम की शर्त गलत। पचास कदम की ही रही।’

वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अंत में वह शहतीर भी जवाब दे गई। लोभी की कमर भी टूट गई। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिए पथरीली जमीन पर गिर पड़े।

मिर्जा ने तुरंत उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।

‘जोर तो यार तुमने खूब मारा, लेकिन तकदीर के खोटे हो।’

तंखा ने हाँफते हुए लंबी साँस खींच कर कहा – आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर।

मिर्जा ने हँसते हुए कहा – लेकिन भाईजान, मैं भी तो इतनी दूर उठा कर लाया ही था।

वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की – मुझे तो आपकी फर्माइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।

‘आपने मुआहदा कब पूरा किया?’

‘कोशिश तो जान तोड़ कर की।’

‘इसकी सनद नहीं।’

लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-कूँख कर दस कदम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गए। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ।

एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छ: घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़ कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने- किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्टा करने लगे।

सबसे छोटे बालक ने कहा – यह हमारा है।

उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पंद्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देख कर छोटे भाई को डाँटा – चुप, नहीं सिपाही पकड़ ले जायगा।

मिर्जा ने लड़के को छेड़ा – तुम्हारा नहीं, हमारा है।

बालक ने हिरन पर बैठ कर अपना कब्जा सिद्ध कर दिया और बोला – बापू तो लाए हैं।

बहन ने सिखाया – कह दे भैया, तुम्हारा है।

इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नए भले आदमियों को देख कर जरा-सा घूँघट निकाल लिया और शरमाई कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेश में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गए बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है।

अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी, लेकिन मिर्जा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवाई, शिकार पका, समीप के बाजार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ाई। मर्दों ने खूब शराब पी और मस्त हो कर शाम तक गाते रहे और मिर्जा जी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी ही देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उन पर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफल कंधों पर रख कर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी कलाई की घड़ी खोल कर अपने कलाई पर बाँध लेता था। मिर्जा ने खुद खूब देशी शराब पी और झूम-झूम कर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे।

जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आए। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। जरूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे।

कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा ने पीछे फिर कर देखा और बोले – बेचारे कितने खुश थे। काश, मेरी जिंदगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।

तंखा ने बेरूखी के साथ कहा – आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिए लौटे जाते हैं।

मिर्जा ने निर्दयता से कहा – मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है।

दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाए हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नई बात थी। रायसाहब और खन्ना दोनों भूखे रह गए थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दु:खी थे कि मिर्जा ने उनके साथ बेवफाई की। अकेले मिर्जा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।
प्रात:काल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़ कर पीछे ढकेल देता, पर ज्यों ही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ा कर उसे दो-चार घूँसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गई। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। सोभा लाठी टेकता आ खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा – यह क्या है होरी, तुम बावले हो गए हो क्या? कोई इस तरह घर की लच्छमी पर हाथ छोड़ता है। तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गई?

होरी ने पालागन करके कहा – महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ा कर तब दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ, उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है।

धनिया सजल क्रोध में बोली – महाराज, तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवा कर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिला कर मार डाला। अब तो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ, तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपने जिंदगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है।

होरी ने दाँत पीस कर और आँखें निकाल कर कहा – फिर वही बात मुँह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलाते?

‘तू कसम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखा?’

‘हाँ, मैंने नहीं देखा, कसम खाता हूँ।’

‘बेटे के माथे पर हाथ रखके कसम खा!’

होरी ने गोबर के माथे पर काँपता हुआ हाथ रख कर काँपते हुए स्वर में कहा – मैं बेटे की कसम खाता हूँ कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा।

धनिया ने जमीन पर थूक कर कहा – थुड़ी है तेरी झुठाई पर। तूने खुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पच्छ में झूठ बोलता है। थुड़ी है! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआ, तो घर में आग लगा दूँगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूँगी। भगवान, आदमी मुँह से बात कह कर इतनी बेसरमी से मुकर जाता है।

होरी पाँव पटक कर बोला – धनिया, गुस्सा मत दिला, नहीं बुरा होगा।

‘मार तो रहा है, और मार ले। जो, तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मार कर तब पानी पिएगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया, फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मार कर समझता है, मैं बड़ा वीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, पापी कहीं का, हत्यारा!’

फिर वह बैन कह कर रोने लगी – इस घर में आ कर उसने क्या नहीं झेला, किस-किस तरह पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी, किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा, किस तरह घर-भर को खिला कर आप पानी पी कर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार। भगवान बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोए हुए हैं?

जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को संदेह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को जहर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी कसम खाई है, इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी कसम और उसके फलस्वरूप आने वाली विपत्ति की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बताई, तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया। सत्य ने विजय पाई।

दातादीन ने सोभा से पूछा – तुम कुछ जानते हो सोभा, क्या बात हुई?

सोभा जमीन पर लेटा हुआ बोला – मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जा कर कुछ दे आते हैं, उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गए थे। किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता। हाँ, कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता था, एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।

धनिया इतनी शह पा कर बोली – पंडित दादा, वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँग कर लाया और कोई जड़ी खोद कर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ था, उसी दिन से वह खार खाए बैठा था।

दातादीन बोले – यह बात साबित हो गई, तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दंड दिए न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना, पंडित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़ कर कसम खाए।

धनिया बोली – महाराज, उसके कसम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी कसम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास?

अब गोबर बोला – खा ले झूठी कसम। बंस का अंत हो जाए। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!

रूपा एक क्षण में आ कर बोली – काका घर में नहीं हैं, पंडित दादा! काकी कहती हैं, कहीं चले गए हैं।

दातादीन ने लंबी दाढ़ी फटकार कर कहा – तूने पूछा नहीं, कहाँ चले गए हैं? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा?

धनिया ने टोका – उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे।

दातादीन ने खुद लकड़ी सँभाली और खबर लाए कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है, लुटिया-डोर और डंडा सब ले कर गए हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो, पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया।

धनिया शीतल हृदय से बोली – मुँह में कालिख लगा कर कहीं भागा होगा।

सोभा बोला – भाग के कहाँ जायगा? गंगा नहाने न चला गया हो।

धनिया ने शंका की – गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?

इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गई।

आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा हो कर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिए।

जो कुछ कसर रह गई थी, वह संध्या-समय हल्के के थानेदार ने आ कर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्तव्य था, और थानेदार साहब भला, अपने कर्तव्य से कब चूकने वाले थे? अब गाँव वालों को भी उनका सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मँगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे और दारोगा जी के सामने हाथ बाँध कर खड़े हो गए। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग गड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गए। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे। यकीन हो गया, आज अच्छे का मुँह देख कर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफी है।

दारोगा ने पूछा – तुझे किस पर शुबहा है?

होरी ने जमीन छुई और हाथ बाँध कर बोला – मेरा सुबहा किसी पर नही है सरकार, गाय अपने मौत से मरी है। बुड्ढी हो गई थी।

धनिया भी आ कर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली – गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे, वह मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहकियात करने आए हैं।

दारोगा जी ने पूछा – यह कौन औरत है?

कई आदमियों ने दारोगा जी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से संतोष दिया कि पहले मैं बोला – होरी की घरवाली है सरकार!

तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा?’

विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा – वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार।

‘मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।’

तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पाएगी, और धनिया से अब उसका कोई संबंध नहीं। जहाँ चाहे जाए। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गई है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है? जब गली-गली ठोकर खाएगी, तब पता चलेगा।

गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए कानाफूसी शुरू की।

दातादीन ने गंजा सिर हिला कर कहा – यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में क्या रखा है?

पटेश्वरीलाल बहुत लंबे थे; पर लंबे हो कर भी बेवकूफ न थे। अपना लंबा, काला मुँह और लंबा करके बोले – और यहाँ आया है किसलिए, और जब आया है, बिना कुछ लिए दिए गया कब है।

झिंगुरीसिंह ने होरी को बुला कर कान में कहा – निकालो, जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।

दारोगा जी ने अब जरा गरज कर कहा – मैं हीरा के घर की तलाशी लूँगा।

होरी के मुख का रंग उड़ गया था, जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई तो, एक ही बात है। हीरा अलग सही, पर दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है, मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपए होते, तो इसी वक्त पचास रुपए ला कर दारोगा जी के चरणों पर रख देता और कहता – सरकार, मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो जहर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों, पर वह चुड़ैल भला क्यों देने लगी? मृत्यु-दंड पाए हुए आदमी की भाँति सिर झुकाए, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा।

दातादीन ने होरी को सचेत किया – अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी! रुपए की कोई जुगत करो।

होरी दीन स्वर में बोला – अब मैं क्या अरज करूँ महाराज! अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी है, और किस मुँह से माँगूँ, लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा। मैं मर भी जाऊँ तो गोबर तो है ही।

नेताओं में सलाह होने लगी। दारोगा जी को क्या भेंट किया जाय? दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अंतर न था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाए। पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से, उसे क्या चिंता।

मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या कतल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं।

नेताओं ने धिक्कारा – तो फिर दारोगा जी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जाएँगे। कौन घुड़कियाँ खाए?

होरी ने पटेश्वरी के पाँव पर अपना सिर रख दिया – भैया, मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊँगा, तुम्हारी ताबेदारी करूँगा।

दारोगा जी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा – कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।

पटेश्वरी ने आगे बढ़ कर दारोगा जी के कान में कहा – तलाशी ले कर क्या करोगे हुजूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाजिर है।

दोनों आदमी जरा अलग जा कर बातें करने लगे।

‘कैसा आदमी है?’

‘बहुत ही गरीब हुजूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं।’

‘सच?’

‘हाँ, हुजूर, ईमान से कहता हूँ।’

‘अरे, तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?’

‘कहाँ की बात हुजूर! दस मिल जायँ, तो हजार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।’

दारोगा जी ने एक मिनट तक विचार करके कहा – तो फिर उसे सताने से क्या फायदा? मैं ऐसों को नहीं सताता, जो आप ही मर रहे हों।

पटेश्वरी ने देखा, निशाना और आगे जा पड़ा। बोले – नहीं हुजूर, ऐसा न कीजिए, नहीं फिर हम कहाँ जाएँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?

‘तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?’

‘जब ऐसा कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं, नहीं पटवारी को कौन पूछता है?’

‘अच्छा जाओ, तीस रुपए दिलवा दो, बीस रुपए हमारे दस रुपए तुम्हारे।’

‘चार मुखिया हैं, इसका खयाल कीजिए।’

‘अच्छा आधे-आध पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।’

पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा – झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गए, तीस रुपए गिन कर उसके हवाले किए और एहसान से दबाते हुए बोले – आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुँह देख कर रुपए दे रहा हूँ, तुम्हारी भलमंसी पर।

होरी ने रुपए लिए और अँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न-मुख आ कर दारोगा जी की ओर चला।

सहसा धनिया झपट कर आगे आई और अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गई और सारे रुपए जमीन पर बिखर गए। नागिन की तरह फुंकार कर बोली – ये रुपए कहाँ लिए जा रहा है, बता? भला चाहता है, तो सब रुपए लौटा दे, नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली-भर रुपए ले कर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्जत वाला है। दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गई, उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत!

होरी खून का घूँट पी कर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गए। दारोगा का मुँह जरा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी।

होरी स्तंभित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाए!

मगर दारोगा जी इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे। खिसिया कर बोले – मुझे ऐसा मालूम होता है, कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फँसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया।

धनिया हाथ मटका कर बोली – हाँ, दे दिया। अपनी गाय थी, मार डाली, फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं मारा? तुम्हारे तहकियात में यही निकलता है, तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। गरीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात।

होरी आँखों से अंगारे बरसाता धनिया की ओर लपका, पर गोबर सामने आ कर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला – अच्छा दादा, अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओ, नहीं मैं कहे देता हूँ, मेरा मुँह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा। ऐसा कपूत नहीं हूँ। यहीं गले में फाँसी लगा लूँगा।

होरी पीछे हट गया और धनिया शेर हो कर बोली – तू हट जा गोबर, देखूँ तो क्या करता है मेरा। दारोगा जी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूँ। घर में तलासी होने से इसकी इज्जत जाती है। अपने मेहरिया को सारे गाँव के सामने लतियाने से इसकी इज्जत नहीं जाती! यही तो वीरों का धरम है। बड़ा वीर है, तो किसी मरद से लड़। जिसकी बाँह पकड़ कर लाया, उसे मार कर बहादुर कहलाएगा। तू समझता होगा, मैं इसे रोटी-कपड़ा देता हूँ। आज से अपना घर सँभाल। देख तो इसी गाँव में तेरी छाती पर मूँग दल कर रहती हूँ कि नहीं, और इससे अच्छा खाऊँ-पहनूँगी। इच्छा हो, देख ले।

होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआ, स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बल, कितना निरुपाय है।

नेताओं ने रुपए चुन कर उठा लिए थे और दारोगा जी को वहाँ से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमाई – जिसके रुपए हों, ले जा कर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना है, तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूँगी, चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पच्चीस रुपए माँगते थे, किसी ने न दिया। आज अंजुली-भर रुपए ठनाठन निकाल के दे दिए। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट-बखरा होने वाला था, सभी के मुँह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसने वाले। सूद-ब्याज, डेढ़ी-सवाई, नजर-नजराना, घूस-घास जैसे भी, गरीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेहल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से।

नेताओं के मुख में कालिख-सी लगी हुई थी। दारोगा जी के मुँह पर झाड़ू-सी फिरी हुई थी। इज्जत बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले।

रास्ते में दारोगा ने स्वीकार किया – औरत है बड़ी दिलेर!

पटेश्वरी बोले – दिलेर है हुजूर, कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे।

‘तुम लोगों का काफिया तंग कर दिया उसने। चार-चार तो मिलते ही।’

‘हुजूर के भी तो पंद्रह रुपए गए।’

‘मेरे कहाँ जा सकते हैं? वह न देगा, गाँव के मुखिया देंगे और पंद्रह रुपए की जगह पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इंतजाम कीजिए।’

पटेश्वरीलाल ने हँस कर कहा – हुजूर बड़े दिल्लगीबाज हैं।

दातादीन बोले – बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहाँ होते हैं?

दारोगा जी ने कठोर स्वर में कहा – यह खुशामद फिर कीजिएगा। इस वक्त तो मुझे पचास रुपए दिलवाइए, नकद, और यह समझ लो कि आनाकानी की, तो तुम चारों के घर की तलाशी लूँगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फँसा कर उनसे सौ-पचास ऐंठने के लिए पाखंड रचा हो।

नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैं, दारोगा जी विनोद कर रहे हैं।

झिंगुरीसिंह ने आँखें मार कर कहा – निकालो पचास रुपए पटवारी साहब!

नोखेराम ने उनका समर्थन किया – पटवारी साहब का इलाका है। उन्हें जरूर आपकी खातिर करनी चाहिए।

पंडित दातादीन की चौपाल आ गई। दारोगा जी एक चारपाई पर बैठ गए और बोले – तुम लोगों ने क्या निश्चय किया? रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते हो?

दातादीन ने आपत्ति की – मगर हुजूर……..

‘मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।’

झिंगुरीसिंह ने साहस किया – सरकार, यह तो सरासर…

‘मैं पंद्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आए तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते हो? उसका मारा पानी भी नहीं माँगता।’

पटेश्वरीलाल ने तेज स्वर से कहा – आपको अख्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाए।

‘मैंने पच्चीस साल थानेदारी की है, जानते हो?’

‘लेकिन ऐसा अंधेर तो कभी नहीं हुआ।’

‘तुमने अभी अंधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँ? एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बाएँ हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना!’

चारों सज्जन चौपाल के अंदर जा कर विचार करने लगे।

फिर क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं। हाँ, दारोगा जी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी।

दारोगा जी घोड़े पर सवार हो कर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे, इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों।

सहसा दातादीन बोले – मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।

नोखेराम ने समर्थन किया – ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।

पटेश्वरी ने भविष्यवाणी – हराम की कमाई हराम में जायगी।

झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में संदेह हो गया था। भगवान न जाने कहाँ है कि यह अंधेर देख कर भी पापियों को दंड नहीं देते।

इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी।
हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़-धूप हो सकी, की; फिर हार कर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फिक्र करना थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता? और अब अपनी खेती से ज्यादा फिक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली हो कर और भी प्रचंड हो गई थी। होरी को अब उसकी खुशामद करते बीतती थी। हीरा था, तो वह पुनिया को दबाए रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता? और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे खूब दंड देती थी। खैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वसूल करने की कोई सख्ती न की, केवल थोड़ी-सी पूजा ले कर राजी हो गए। नहीं, होरी अपने बकाया के साथ उसकी बकाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका, लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती? होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को तो हँसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी की खरीफ की फसल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही।

होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोलचाल बंद थी। माँ-बेटे ने मिल कर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेसी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होने वालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाकों में इस कांड की खूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह एक अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था -‘धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोगा जी ने ज्यों ही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गई। फिर तो उसमें इतनी शक्ति आ गई कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूँछें पकड़ कर उखाड़ लीं, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोगा ने जब बहुत मानता की, तब जा कर उसे छोड़ा।’ कुछ दिन तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गई थी, लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया था। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दों के भी कान काट सकती है।

मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे देख कर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गई थी, बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफी था।

इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फस्ली बुखार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बकाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी विजय पा गई। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर? ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो, पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दु:ख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया, लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए खा कर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं।

होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था।

एक दिन धनिया ने कहा – तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया? मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही गुस्सा आए, मगर हाथ न उठाऊँगी।

होरी लजाता हुआ बोला – अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दु:ख हुआ है, वह मैं ही जानता हूँ।

और जो मैं भी क्रोध में डूब मरी होती!’

तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहास भी तेरे साथ चिता पर जाती।’

‘अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत करो।’

‘गाय गई सो गई, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।’

‘इसीलिए तो कहते हैं, भगवान घर का बड़ा न बनाए। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है।’

माघ के दिन थे। महावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों की रात, दूसरे माघ की वर्षा। मौत का सा-सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तक न सूझता था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपने मँड़ैया में लेटा हुआ था। चाहता था, शीत को भूल जाय और सो रहे, लेकिन तार-तार कंबल और गटी हुई मिर्जई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डाल कर और हाथों को जाँघों के बीच में दबा कर और कंबल में मुँह छिपा कर अपने ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। पाँच साल हुए, यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिए थे, जिसके पीछे कितनी साँसत हुई, कितनी गालियाँ खानी पड़ीं। और यह कंबल उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को ले कर इसी कंबल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कंबल उसका साथी है, पर अब वह भोजन को चबाने वाला दाँत नहीं, दुखने वाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को दे कर कभी कुछ बचा हो। और बैठे-बैठाए यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगा, उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगी, चाहे हँस कर सँभाले या रो कर।

धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पच्चीस साल गुजर गए, उसे मारना और सारे गाँव के सामने, मेरी नीचता थी, लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतरा कर निकल जाती है, जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है, तो सोना या रूपा से कहलाती है। देखता हूँ, उसकी साड़ी फट गई है, मगर कल मुझसे कहा भी, तो सोना की साड़ी के लिए, अपने साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियाँ लगा कर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पैबंदों के बिलकुल कथरी हो गई है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूँ? अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता, तो कौन छोटा हो जाता? यही तो होता, वह थोड़ा-सा अदरावन कराती, दो-चार लगने वाली बातें कहती, तो क्या मुझे चोट लग जाती, लेकिन मैं बुड्ढा हो कर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो, इस बीमारी ने आ कर उसे नर्म कर दिया, नहीं जाने कब तक मुँह फुलाए रहती।

और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं, वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल से बोली थी और होरी गदगद हो गया था। उसके जी में आया, उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे – मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाए लेता हूँ, जितना चाहे मार ले, जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले।

सहसा उसे मँड़ैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। उसने कान लगा कर सुना। हाँ, कोई है। पटवारी की लड़की होगी, चाहे पंडित की घरवाली हो। मटर उखाड़ने आई होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं। सारे गाँव से अच्छा खाते हैं, घर में हजारों रुपए गड़े हुए हैं, लेन-देन करते हैं, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं, घूस लेते हैं, दस्तूरी लेते हैं, एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते हैं, फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा, वैसी ही संतान भी होगी। और आप नहीं आते, औरतों को भेजते हैं। अभी उठ कर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय! नीच कहने को नीच हैं, जो ऊँचे हैं, उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता, आँखें देख कर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई, जितना तेरा जी चाहे। समझ ले, मैं नहीं हूँ। बड़े आदमी अपने लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है।

मगर नहीं, यह तो धनिया है। पुकार रही है।

धनिया ने पुकारा – सो गए कि जागते हो?

होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गई, उसे वरदान देने आई हैं, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गए उसका आना शंकाप्रद भी था। जरूर कोई-न-कोई बात हुई है।

बोला – ठंड के मारे नींद भी आती है – तू इस जाड़े-पाले में कैसे आई? सब कुसल तो है?

‘हाँ, सब कुसल है।’

‘गोबर को भेज कर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?’

धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आ कर पुआल पर बैठती हुई बोली – गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो! जिस बात को डरती थी, वह हो कर रही।

‘क्या हुआ? किसी से मार-पीट कर बैठा?’

‘अब मैं क्या जानूँ, क्या कर बैठा, चल कर पूछो उसी राँड़ से?’

‘किस राँड़ से? क्या कहती है तू – बौरा तो नहीं गई?’

‘हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय!’

होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया।

‘साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है?’

‘उसी झुनिया को, और किसको!’

‘तो झुनिया क्या यहाँ आई है?’

‘और कहाँ जाती, पूछता कौन?’

‘गोबर क्या घर में नहीं है?’

‘गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है।’

होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देख कर वह खटका था जरूर, मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रूई के गोले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देख कर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छा कर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लंपट! वह सरल गँवार, जिसे वह अभी बच्चा समझता था! लेकिन उसे भोज की चिंता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर में कैसे रहेगी, इसकी चिंता भी उसे न थी। उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे।

घबड़ा कर बोला – झुनिया ने कुछ कहा? नहीं, गोबर कहाँ गया? उससे कह कर ही गया होगा?

धनिया झुँझला कर बोली – तुम्हारी अक्कल तो घास खा गई है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी है, भाग कर जायगा कहाँ? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुँही झुनिया की चिंता है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में मैं तो छन-भर भी न रहने दूँगी। जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन दोनों में ताक-झाँक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गया, तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी, कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ ले के कहाँ जाय, कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गई कि मुझे यहाँ से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूँगी, तो बोला – तू चल कर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, मैं अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भीग गई और वह न लौटा, भागी यहाँ चली आई। मैंने तो कह दिया, जैसा किया है, उसका फल भोग। चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है, अपने घर कौन मुँह ले कर जाऊँ। भगवान ऐसी संतान से तो बाँझ ही रखें तो अच्छा। सबेरा होते-होते सारे गाँव में काँव-काँव मच जायगी। ऐसा जी होता है, माहुर खा लूँ। मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रखूँगी। गोबर को रखना हो, अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले, तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे, या मैं ही रहूँगी।

होरी बोला – तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।

‘सब कुछ कह के हार गई। टलती ही नहीं। धरना दिए बैठी है।’

‘अच्छा चल, देखूँ कैसे नहीं उठती, घसीट कर बाहर निकाल दूँगा।’

‘दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था, पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं।’

‘वह क्या जानता था, इनके बीच क्या खिचड़ी पक रही है।’

‘जानता क्यों नहीं था? गोबर दिन-रात घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गईं थीं! सोचना चाहिए था न, कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है।’

‘चल, मैं झुनिया से पूछता हूँ न!’

दोनों मँड़ैया से निकल कर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा – पाँच घड़ी के ऊपर रात गई होगी।

धनिया बोली – हाँ, और क्या, मगर कैसा सोता पड़ गया है! कोई चोर आए, तो सारे गाँव को मूस ले जाए।

‘चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं।’

धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली – देखो, हल्ला न मचाना, नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी।

होरी ने कठोर स्वर में कहा – मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़ कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय? वह मेरे घर आई क्यों? जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछ कर किया था?

धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे-से बोली – तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी।

‘तो चिल्लाया करे।’

‘मुदा इतनी रात गए, अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ, यह तो सोचो।’

‘जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है?’

‘हाँ, लेकिन इतनी रात गए, घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है, कहीं डर-डरा जाय, तो और अगत हो। ऐसी दसा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता!’

‘हमें क्या करना है, मरे या जिए। जहाँ चाहे जाए। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँ? मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा।

धनिया ने गंभीर चिंता से कहा – कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।

‘गोबर ने नहीं, डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।’

‘किसी ने डुबाई, अब तो डूब गई।’

दोनों द्वार के सामने पहुँच गए। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डाल कर कहा – देखो, तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता?

होरी की आँखें आर्द्र हो गईं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आई, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था।

दोनों ने द्वार पर आ कर किवाड़ों के दराज से अंदर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मद्धम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुँह किए, अंधकार में उस आनंद को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपने मोहिनी छवि दिखा कर विलीन हो गया था। वह आगत की मारी, व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी, पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिए अलादीन के राजमहल की भाँति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।

एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देख कर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिर कर रोती हुई बोली – दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है, चाहे मारो चाहे काटो, लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।

होरी ने झुक कर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा – डर मत बेटी, डर मत। तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है, वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता मत कर। हमारे रहते, कोई तुझे तिरछी आँखों से न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू खातिर जमा रख।

झुनिया, सांत्वना पा कर और भी होरी के पैरों से चिमट गई और बोली – दादा, अब तुम्हीं मेरे बाप हो, और अम्माँ, तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जाएँगे।

धनिया अपने करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली – तू चल घर में बैठ, मैं देख लूँगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतार कर।

अभी जरा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुँही, न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाड़ू मार कर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह, क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने, तो होरी के पाँव छोड़ कर धनिया के पाँव से लिपट गई और वही साध्वी, जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भर कर देखा भी न था, इस पापिष्ठा को गले लगाए, उसके आँसू पोंछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को कोमल शब्दों से शांत कर रही थी, जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाए बैठी हो।

होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा – क्यों बेटी, तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया।

झुनिया ने सिसकते हुए कहा – मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर…यह कहते-कहते उसकी आवाज आँसुओं में डूब गई।

होरी अपने व्याकुलता न छिपा सका।

‘जब तूने आज उसे देखा, तो कुछ दु:खी था?’

‘बातें तो हँस-हँस कर रहे थे। मन का हाल भगवान जाने।’

‘तेरा मन क्या कहता है, है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया?’

‘मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गए हैं।’

‘यही मेरा मन भी कहता है, कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गई, तो वह निभानी पड़ती है। इस तरह भाग कर तो उसने हमारी जान आफत में डाल दी।’

धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़ कर अंदर ले जाते हुए कहा – कायर कहीं का! जिसकी बाँह पकड़ी, उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगा कर भाग जाना चाहिए! अब जो आए, तो घर में पैठने न दूँ।

होरी वहीं पुआल पर लेटा। गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मँडराने लगा।
ऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचनी चाहिए, वह मची और महीनों तक मचती रही। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिए गोबर को खोजते फिरते थे। भोला ने कसम खाई कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, वह अब टूट गई। अब वह अपने गाय के दाम लेंगे और नकद, और इसमें विलंब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँव वालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उसका हुक्का नहीं पीता, न उसके घर का पानी पीता है। पानी बंद कर देने की कुछ बातचीत थी, लेकिन धनिया का चंडी-रूप सब देख चुके थे, इसलिए किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना-सुना कर कह दिया – किसी ने उसे पानी भरने से रोका, तो उसका और अपना खून एक कर देगी। इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिए। सबसे दुखी है झुनिया, जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा है, और गोबर की कोई खोज-खबर न मिलना, इस दुख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाए घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचना मुश्किल हो जाए। दिन-भर घर के धंधे करती रहती है और जब अवसर पाती है, रो लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकती, क्योंकि कोई उसके हाथ का खाएगा नहीं, बाकी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं, यही कुत्सा होने लगती है।

एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पंडित दातादीन मिल गए। धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतरा कर निकल जाय, पर पंडित जी छेड़ने का अवसर पा कर कब चूकने वाले थे? छेड़ ही तो दिया – गोबर का कुछ सर-संदेस मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी।

धनिया के मन में स्वयं यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली – बुरे दिन आते हैं, बाबा, तो आदमी की मति फिर जाती है, और क्या कहूँ।

दातादीन बोले – तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती है, तो आदमी उसे निकाल कर फेंक देता है और दूध पी जाता है। सोचो, कितनी बदनामी और जग-हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहती, तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल-चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगे, बाम्हनों को भोज न दोगे, कैसे ‘उद्धार होगा? उसे घर में न रखते, तो कुछ न होता। होरी तो पागल है ही, तू कैसे धोखा खा गई?

दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता था, पर वह तिलक लगाता था,पोथी-पत्रे बाँचता था, कथा-भागवत कहता था, धर्म-संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में जरा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान-पूजा करके अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थी, झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपत्ति आई है। उसे न जाने कैसे दया आ गई, नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देती, तो क्यों इतना उपहास होता, लेकिन यह भय भी तो था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा और ठिकाना कहाँ था? एक प्राण का मूल्य दे कर – एक नहीं दो प्राणों का – वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक है, वह धनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! और फिर झुनिया की नम्रता और दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। वह जली-भुनी बाहर से आती, पर ज्यों ही झुनिया लोटे का पानी ला कर रख देती और उसके पाँव दबाने लगती, उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा और दु:ख से आप दबी हुई है, उसे और क्या दबाए, मरे को क्या मारे?

उसने तीव्र स्वर में कहा – हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज, कि उसके पीछे एक जीवन की हत्या कर डालते। ब्याहता न सही, पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देती? वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं, उनकी मरजाद बिगड़ जाती है। नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं।

दातादीन हार मानने वाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँ, वहाँ की यहाँ, यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थे, उसमें जान-जोखिम था, पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। जमींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थी, कुर्की आती, तो कुएँ में गिरने चलते, नोखेराम के किए कुछ न बनता, मगर असामियों को सूद पर रुपए उधर देते थे। किसी स्त्री को आभूषण बनवाना है, दातादीन उसकी सेवा के लिए हाजिर हैं। शादी-ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनंद आता है, यश भी मिलता है, दक्षिणा भी मिलती है। बीमारी में दवा-दारू भी करते हैं, झाड़-फूँक भी, जैसी मरीज की इच्छा हो। और सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं, बालकों में बालक और बूढ़ों में बूढ़े। चोर के भी मित्र हैं और साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं है, पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार-बार धोखा खा कर भी उन्हीं की शरण जाते हैं।

सिर और दाढ़ी हिला कर बोले – यह तू ठीक कहती है धनिया! धर्मात्मा लोगों का यही धरम है, लेकिन लोक-रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है।

इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते, पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक-दूसरे से लड़ा कर रकमें मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! गरीबों को दस-दस, पाँच-पाँच कर्ज दे कर उन्होंने कई हजार की संपत्ति बना ली थी। फसल की चीजें असामियों से ले कर कचहरी और पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाके भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़ा, तो वह दारोगा गंडासिंह थे, जो हाल में इस इलाके में आए थे। परमार्थी भी थे। बुखार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँट कर यश कमाते थे, कोई बीमार-आराम हो, तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे-मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी-ब्याह में अपने पालकी, कालीन और महफिल के सामान मँगनी दे कर लोगों का उबार कर देते थे। मौका पा कर न चूकते थे, पर जिसका खाते थे, उसका काम भी करते थे।

बोले – यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरी?

होरी ने पीछे फिर कर पूछा – तुमने क्या कहा? लाला – मैंने सुना नहीं।

पटेश्वरी पीछे से कदम बढ़ाते हुए बराबर आ कर बोले – यही कह रहा था कि धनिया के साथ क्या तुम्हारी बुद्धि भी घास खा गई? झुनिया को क्यों नहीं उसके बाप के घर भेज देते, सेंत-मेंत में अपने हँसी करा रहे हो। न जाने किसका लड़का ले कर आ गई और तुमने घर में बैठा लिया। अभी तुम्हारी दो-दो लड़कियाँ ब्याहने को बैठी हुई हैं, सोचो, कैसे बेड़ा पार होगा?

होरी इस तरह की आलोचनाएँ और शुभकामनाएँ सुनते-सुनते तंग आ गया था। खिन्न हो कर बोला – यह सब मैं समझता हूँ लाला। लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ! मैं झुनिया को निकाल दूँ, तो भोला उसे रख लेंगे? अगर वह राजी हों, तो आज मैं उनके घर पहुँचा दूँ। अगर तुम उन्हें राजी कर दो, तो जनम-भर तुम्हारा औसान मानूँ, मगर वहाँ तो उनके दोनों लड़के खून करने को उतारू हो रहे हैं। फिर मैं उसे कैसे निकाल दूँ? एक तो नालायक आदमी मिला कि उसकी बाँह पकड़ कर दगा दे गया। मैं भी निकाल दूँगा, तो इस दसा में वह कहीं मेहनत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। कहीं डूब-धँस मरी तो किसे अपराध लगेगा! रहा लड़कियों का ब्याह, सो भगवान मालिक है। जब उसका समय आएगा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा। लड़की तो हमारी बिरादरी में आज तक कभी कुँआरी नहीं रही। बिरादरी के डर से हत्यारे का काम नहीं कर सकता।

होरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा सिर झुका कर चलता और चार बातें गम खा लेता था। हीरा को छोड़ कर गाँव में कोई उसका अहित न चाहता था, पर समाज इतना बड़ा अनर्थ कैसे सह ले! और उसकी मुटमर्दी तो देखो कि समझाने पर भी नहीं समझता। स्त्री-पुरुष दोनों जैसे समाज को चुनौती दे रहे हैं कि देखें, कोई उनका क्या कर लेता है। तो समाज भी दिखा देगा कि उसकी मर्यादा तोड़ने वाले सुख की नींद नहीं सो सकते।

उसी रात को इस समस्या पर विचार करने के लिए गाँव के विधाताओं की बैठक हुई।

दातादीन बोले – मेरी आदत किसी की निंदा करने की नहीं है। संसार में क्या-क्या कुकर्म नहीं होता, अपने से क्या मतलब? मगर वह राँड़ धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गई। भाइयों का हिस्सा दबा कर हाथ में चार पैसे हो गए, तो अब कुपंथ के सिवा और क्या सूझेगी? नीच जात, जहाँ पेट-भर रोटी खाई और टेढ़े चले, इसी से तो सासतरों में कहा है! नीच जात लतियाए अच्छा।

पटेश्वरी ने नारियल का कश लगाते हुए कहा – यही तो इनमें बुराई है कि चार पैसे देखे और आँखें बदलीं। आज होरी ने ऐसी हेकड़ी जताई कि मैं अपना-सा मुँह ले कर रह गया। न जाने अपने को क्या समझता है! अब सोचो, इस अनीति का गाँव में क्या फल होगा? झुनिया को देख कर दूसरी विधवाओं का मन बढ़ेगा कि नहीं? आज भोला के घर में यह बात हुई। कल हमारे-तुम्हारे घर में भी होगी। समाज तो भय के बल से चलता है। आज समाज का आँकुस जाता रहे, फिर देखो संसार में क्या-क्या अनर्थ होने लगते हैं।

झिंगुरी सिंह दो स्त्रियों के पति थे। पहली स्त्री पाँच लड़के-लड़कियाँ छोड़ कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतालीस के लगभग थी, पर आपने दूसरा ब्याह किया और जब उससे कोई संतान न हुई, तो तीसरा ब्याह कर डाला। अब इनकी पचास की अवस्था थी और दो जवान पत्नियाँ घर में बैठी थीं। उन दोनों ही के विषय में तरह-तरह की बातें फैल रही थीं, पर ठाकुर साहब के डर से कोई कुछ न कह सकता था, और कहने का अवसर भी तो हो। पति की आड़ में सब कुछ जायज है। मुसीबत तो उसको है, जिसे कोई आड़ नहीं। ठाकुर साहब स्त्रियों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे और उन्हें घमंड था कि उनकी पत्नियों का घूँघट किसी ने न देखा होगा। मगर घूँघट की आड़ में क्या होता है, उसकी उन्हें क्या खबर?

बोले – ऐसी औरत का तो सिर काट ले। होरी ने इस कुलटा को घर में रख कर समाज में विष बोया है। ऐसे आदमी को गाँव में रहने देना सारे गाँव को भ्रष्ट करना है। रायसाहब को इसकी सूचना देनी चाहिए। साफ-साफ कह देना चाहिए, अगर गाँव में यह अनीति चली तो किसी की आबरू सलामत न रहेगी।

पंडित नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा किसी राजा के दीवान थे। पर अपना सब कुछ भगवान के चरणों में भेंट करके साधु हो गए थे। इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी वही भक्ति तरके में पाई थी। प्रात:काल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक बैठे राम-नाम लिखा करते थे, मगर भगवान के सामने से उठते ही उनकी मानवता इस अवरोध से विकृत हो कर उनके मन, वचन और कर्म सभी को विषाक्त कर देती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान होता था। फूले हुए गालों में धँसी हुई आँखें निकाल कर बोले – इसमें रायसाहब से क्या पूछना है। मैं जो चाहूँ, कर सकता हूँ। लगा दो सौ रुपए डाँड़। आप गाँव छोड़ कर भागेगा। इधर बेदखली भी दायर किए देता हूँ।

पटेश्वरी ने कहा – मगर लगान तो बेबाक कर चुका है।

झिंगुरीसिंह ने समर्थन किया – हाँ, लगान के लिए ही तो हमसे तीस रुपए लिए हैं।

नोखेराम ने घमंड के साथ कहा – लेकिन अभी रसीद तो नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान बेबाक कर दिया?

सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि होरी पर सौ रुपए तावान लगा दिया जाए। केवल एक दिन गाँव के आदमियों को बटोर कर उनकी मंजूरी ले लेने का अभिनय आवश्यक था। संभव था, इसमें दस-पाँच दिन की देर हो जाती। पर आज ही रात को झुनिया के लड़का पैदा हो गया। और दूसरे ही दिन गाँव वालों की पंचायत बैठ गई। होरी और धनिया, दोनों अपनी किस्मत का फैसला सुनने के लिए बुलाए गए। चौपाल में इतनी भीड़ थी कि कहीं तिल रखने की जगह न थी। पंचायत ने फैसला किया कि होरी पर सौ रुपए नकद और तीस मन अनाज डाँड़ लगाया जाए।

धनिया भरी सभा में रुँधे हुए कंठ से बोली – पंचो, गरीब को सता कर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। हम तो मिट जाएँगे, कौन जाने, इस गाँव में रहें या न रहें, लेकिन मेरा सराप तुमको भी जरूर लगेगा। मुझसे इतना कड़ा जरीबाना इसलिए लिया जा रहा है कि मैंने अपने बहू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से निकाल कर सड़क की भिखारिन नहीं बना दिया। यही न्याय है-ऐं?

पटेश्वरी बोले – वह तेरी बहू नहीं है, हरजाई है।

होरी ने धनिया को डाँटा – तू क्यों बोलती है धनिया! पंच में परमेसर रहते हैं। उनका जो न्याय है, वह सिर आँखों पर। अगर भगवान की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़ कर भाग जायँ, तो हमारा क्या बस। पंचो, हमारे पास जो कुछ है, वह अभी खलिहान में है। एक दाना भी घर में नहीं आया, जितना चाहे, ले लो। सब लेना चाहो, सब ले लो। हमारा भगवान मालिक है, जितनी कमी पड़े, उसमें हमारे दोनों बैल ले लेना।

धनिया दाँत कटकटा कर बोली – मैं एक दाना न अनाज दूँगी, न कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता हो, चल कर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगा, डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो और नजराना ले कर दूसरों को दे दो। बाग-बगीचा बेच कर मजे से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते-जी यह नहीं होने का, और तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रह कर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैं, तब भी अपने पसीने की कमाई खाएँगे।

होरी ने उसके सामने हाथ जोड़ कर कहा – धनिया, तेरे पैरों पड़ता हूँ, चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती है, उसे सिर झुका कर मंजूर कर। नकू बन कर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँ, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगाएगी? बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे। पंचों, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज हो। मैं बिरादरी से दगा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आए, तो उनकी कुछ परवरिस करें, नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है।

धनिया झल्ला कर वहाँ से चली गई और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढो कर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था, पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटर, थोड़ा-सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहस्थियों का बोझ। यह जो कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गई थी। दोनों ने सोचा था, गेहूँ और तिलहन से लगान की एक किस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम आएगा। लंगे-तंगे पाँच-छ: महीने कट जाएँगे, तब तक जुआर, मक्का, सांवा, धान के दिन आ जाएँगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गई। अनाज तो हाथ से गया ही, सौ रुपए की गठरी और सिर पर लद गई। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया? मगर होनहार कौन टाल सकता है! बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लाद कर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों से अपने कब्र खोद रहा हो। जमींदार, साहूकार, सरकार, किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खाएँगे, इसकी चिंता प्राणों को सोखे लेती थी, पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सर पर सवार आँकुस दिए जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मूँड़न-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाए हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिंधी हुई थीं। बिरादरी से निकल कर उसका जीवन विश्रृंखल हो जायगा? तार-तार हो जायगा।

जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़ कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली – अच्छा अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज! बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे? मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था।

होरी ने अपना हाथ छुड़ा कर टोकरी में अनाज भरते हुए कहा – यह न होगा, पंचों की आँख बचा कर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जा कर सब-का-सब वहाँ ढेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के लिए देंगे, नहीं भगवान मालिक है!

धनिया तिलमिला कर बोली – यह पंच नहीं हैं, राच्छस हैं, पक्के राच्छस! यह सब हमारी जगह-जमीन छीन कर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ, पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिसाचों से दया की आसा रखते हो? सोचते हो, दस-पाँच मन निकाल कर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो।

जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगा, तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली – इसे तो मैं न ले जाने दूँगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मर कर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिए कि पंच लोग मूँछों पर ताव दे कर भोग लगाएँ और हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें! तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपने बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे से टोकरी रख दो, नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ।

होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीन कर तावान देने का क्या अधिकार है। वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करे, इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीन कर बिरादरी की नजर में सुर्खई बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गई। धीरे से बोला – तू ठीक कहती है धनिया! दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई जोर नहीं है। जो कुछ बचा है, वह ले जा। मैं जा कर पंचों से कहे देता हूँ।

धनिया अनाज की टोकरी घर में रख कर अपने लड़कियों के साथ पोते के जन्मोत्सव में गला फाड़-फाड़ कर सोहर गा रही थी, जिससे सारा गाँव सुन ले। आज यह पहला मौका था कि ऐसे शुभ अवसरों पर बिरादरी की कोई औरत न थी। सौर से झुनिया ने कहला भेजा था, सोहर गाने का काम नहीं है, लेकिन धनिया कब मानने लगी। अगर बिरादरी को उसकी परवा नहीं है, तो वह भी बिरादरी की परवा नहीं करती।

उसी वक्त होरी अपने घर को अस्सी रुपए पर झिंगुरीसिंह के हाथ गिरों रख रहा था। डाँड़ के रुपए का इसके सिवा वह और कोई प्रबंध न कर सका था। बीस रुपए तो तेलहन, गेहूँ और मटर से मिल गए। शेष के लिए घर लिखना पड़ गया। नोखेराम तो चाहते थे कि बैल बिकवा लिए जायँ, लेकिन पटेश्वरी और दातादीन ने इसका विरोध किया। बैल बिक गए, तो होरी खेती कैसे करेगा? बिरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करे, पर ऐसा तो न करे कि वह गाँव छोड़ कर भाग जाए। इस तरह बैल बच गए।

होरी रेहननामा लिख कर कोई ग्यारह बजे रात घर आया, तो धनिया ने पूछा – इतनी रात तक वहाँ क्या करते रहे?

होरी ने जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर उतारते हुए कहा – करता क्या रहा, इस लौंडे की करनी भरता रहा। अभागा आप तो चिनगारी छोड़ कर भागा, आग मुझे बुझानी पड़ रही है। अस्सी रुपए में घर रेहन लिखना पड़ा। करता क्या! अब हुक्का खुल गया। बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया।

धनिया ने होंठ चबा कर कहा – न हुक्का खुलता, तो हमारा क्या बिगड़ा जाता था? चार-पाँच महीने नहीं किसी का हुक्का पिया, तो क्या छोटे हो गए? मैं कहती हूँ, तुम इतने भोंदू क्यों हो? मेरे सामने तो बड़े बुद्धिमान बनते हो, बाहर तुम्हारा मुँह क्यों बंद हो जाता है? ले-दे के बाप-दादों की निसानी एक घर बच रहा था, आज तुमने उसका भी वारा-न्यारा का दिया। इसी तरह कल तीन-चार बीघे जमीन है, इसे भी लिख देना और तब गली-गली भीख माँगना। मैं पूछती हूँ, तुम्हारे मुँह में जीभ न थी कि उन पंचों से पूछते, तुम कहाँ के बड़े धर्मात्मा हो, जो दूसरों पर डाँड़ लगाते फिरते हो, तुम्हारा तो मुँह देखना भी पाप है।

मुसी प्रेमचंद द्वारा लिखित

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