गोदान: भाग 4, उपन्यास (प्रेमचंद)

कथा-कहानी उपन्यास

मुसी प्रेमचंद 2656 11/17/2018 12:00:00 AM

गोदान: भाग 4, उपन्यास (प्रेमचंद)

गोदान: भाग – 4

होरी ने डाँटा – चुप रह, बहुत बढ़-चढ़ न बोल। बिरादरी के चक्कर में अभी पड़ी नहीं है, नहीं मुँह से बात न निकलती।

धनिया उत्तेजित हो गई – कौन-सा पाप किया है, जिसके लिए बिरादरी से डरें? किसी की चोरी की है, किसी का माल काटा है? मेहरिया रख लेना पाप नहीं है, हाँ, रख के छोड़ देना पाप है। आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। आज उधर तुम्हारी वाह-वाह हो रही होगी कि बिरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग फूट गए थे कि तुम-जैसे मर्द से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न मिली।

‘मैं तेरे बाप के पाँव पड़ने गया था? वही तुझे मेरे गले बाँध गया था!’

‘पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर और उन्हें क्या कहूँ? न जाने क्या देख कर लट्टू हो गए। ऐसे कोई बड़े सुंदर भी तो न थे तुम।’

विवाद विनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गए, लाख रुपए का बालक तो मिल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आए, धनिया अलग झोपड़ी में सुखी रहेगी।

होरी ने पूछा – बच्चा किसको पड़ा है?

धनिया ने प्रसन्न मुख हो कर जवाब दिया – बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच!

‘रिस्ट-पुस्ट तो है?’

‘हाँ, अच्छा है।’
रात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा काँप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायगा लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचाएँगे, धनिया कितनी गालियाँ देगी, यह सोच-सोच कर उसके पाँव पीछे रह जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार दहाड़ेंगे, फिर शांत हो जाएँगे। डर था धनिया का, जहर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता।

लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू ले कर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहाँ जायगी? अपने घर तो लौट नहीं सकती। कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा ले, तो क्या हो? उसने लंबी साँस ली। किसकी शरण ले?

मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियाँ देंगी! लेकिन जब झुनिया उनके पाँव पकड़ कर रोने लगेगी, तो उन्हें जरूर दया आ जायगी। तब तक वह खुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शांत हो जायगा तब वह एक दिन धीरे से आएगा और अम्माँ को मना लेगा। अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपए ले कर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुँह बंद हो जायगा।

झुनिया बोली – मेरी छाती धक-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जा कर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लेना। मैं पीछे से जाऊँगी।

गोबर ने कहा – नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाजार से सौदा बेच कर घर जा रही थी। रात हो गई है, अब कैसे जाऊँ? तब तक मैं आ जाऊँगा।

झुनिया चिंतित मन से कहा – तुम्हारी अम्माँ बड़ी गुस्सैल हैं। मेरा तो जी काँपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूँगी?

गोबर ने धीरज दिलाया – अम्माँ की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा, मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।

गाँव समीप आ गया। गोबर ने ठिठक कर कहा – अब तुम जाओ।

झुनिया ने अनुरोध किया – तुम भी देर न करना’

‘नहीं-नहीं, छन भर में आता हूँ, तू चल तो।’

‘मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है! तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है।’

‘तुम इतना डरती क्यों हो? मैं तो आ ही रहा हूँ।’

‘इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते।’

‘जब अपना घर है तो क्यों कहीं भागें? तुम नाहक डर रही हो।’

‘जल्दी से आओगे न?’

‘हाँ-हाँ, अभी आता हूँ।’

‘मुझसे दगा तो नहीं कर रहे हो? मुझे घर भेज कर आप कहीं चलते बनो?’

‘इतना नीच नहीं हूँ झूना! जब तेरी बाँह पकड़ी है, तो मरते दम तक निभाऊँगा।’

झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधा में पड़ा खड़ा रहा। फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई। कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़ें, तो क्या हो? उसके पाँव जैसे धरती से चिमट गए। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग था। झुनिया की काली परछाईं धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ बहुत तेज हो गई थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ांसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकल कर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी। साइत दादा खा-पी कर मटर अगोरने चले गए हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ-गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मँड़ैया। वह रूक गया और दबे पाँव आ कर मँड़ैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुँचा ही था कि धनिया की बोली सुनाई दी। ओह! गजब हो गया। अम्माँ इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं सामने जा कर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जाए। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज हो गया। मैं जरा अदब करता हूँ, उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था, इस विपत में जान फँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी, मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया, तो आज महाभारत हो जायगा। माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक माँ-बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे माँ-बाप !

होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकला, गोबर भी दबे पाँव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला, लेकिन द्वार पर प्रकाश देख कर उसके पाँव बँध गए। उस प्रकाश-रेखा के अंदर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार से चिमट कर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आ कर कहे – हाँ, मैंने चिनगारी फेंकी थी। जिन टिकौनों से उसने अपने मन को सँभाला था, वे सब इस भूकंप में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाए!

वह सौ कदम चला, पर इस तरह जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आईं, जब वह अपनी उन्मत्त उसाँसों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकाल कर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकांत-जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न था, न वह उदीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाजें, मगर बहेलिए का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकांत घोंसले में जा कर उसे कुछ आनंद पहुँचाया या नहीं, कौन जाने, पर उसे विपत्ति में डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुन कर पीछे लौट पड़ा।

उसने द्वार पर आ कर देखा, तो किवाड़ बंद हो गए थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थीं। उसने एक दरार से अंदर झाँका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियाँ सुनाई दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी – बेटी, तू चल कर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूँगी। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों देख भी न सकेगा। गोबर गदगद हो गया। आज वह किसी लायक होता, तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़ देता और कहता – अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन्न करना चाहो, करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता था, वह मिल गया। झुनिया उसे दगाबाज समझती है, तो समझे। वह तो अब तभी घर आएगा, जब वह पैसे के बल से सारे गाँव का मुँह बंद कर सके और दादा और अम्माँ उसे कुल का कलंक न समझ कर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अंतस्तल को मथ कर वह रत्न निकाल लिया, जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम-से-कम काम करना और ज्यादा-से-ज्यादा खाना अपना हक समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गईं, तो वह होरी की उसी मँड़ैया में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बाँधने लगा।

शहर के बेलदारों को पाँच-छ: आने रोज मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छ: आने रोज मिलें और वह एक आने में गुजर कर ले, तो पाँच आने रोज बच जायँ। महीने में दस रुपए होते हैं, और साल-भर में सवा सौ। वह सवा-सौ की थैली ले कर घर आए, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुँह खोल सके? यही दातादीन और यही पटेसरी आ कर उसकी हाँ में हाँ मिलाएँगे और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाए। दो-चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो सारे घर का दलिद्दर मिट जाए। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमाएगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छ: आने थोड़े मिलेंगे। जैसे-जैसे वह काम में होशियार होगा, मजूरी भी तो बढ़ेगी। तब वह दादा से कहेगा, अब तुम घर में बैठ कर भगवान का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है? सबसे पहले वह एक पछाईं गाय लाएगा, जो चार-पाँच सेर दूध देगी और दादा से कहेगा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे तुम्हारा लोक भी बनेगा, परलोक भी।

और क्या, एक आने में उसका गुजर आराम से न होगा? घर-द्वार ले कर क्या करना है? किसी के ओसारे में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मंदिर हैं, धरमसाले हैं। और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा। आटा रुपए का दस सेर आता है। एक आने में ढाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कहाँ से आएगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी-भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खा कर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आधा सेर आटा खा कर दिन-भर मजे से काम कर सकता है। इधर-उधर से उपले चुन लिए, लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भून कर भुरता बना लिया। यहाँ दिन काटना है कि चैन करना है। पत्तल पर आटा गूँधा, उपलों पर बाटियाँ सेंकीं, आलू भून कर भुरता बनाया और मजे से खा कर सो रहे। घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून तो चबेना ही मिलता है। वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे।

उसे शंका हुई, अगर कभी मजूरी न मिली, तो वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़ कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलाएँगे। काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता। यहाँ भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरूई लगती है, सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन-भर मजूरी की, रात कहीं चौकीदारी करलेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जायँ, तो चाँदी है। जब वह लौटेगा, तो सबके लिए साड़ियाँ लाएगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा।

इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया, लेकिन ठंड में नींद कहाँ! किसी तरह रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। साँझ तक पहुँच जायगा। गाँव का कौन आदमी वहाँ आता-जाता है और वह अपना ठिकाना ही क्यों लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जाएँगे। उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ-साफ कह दिया – अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा कर लौटूँगा, लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों? कहती – मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी। उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता?

दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठ कर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले, वह अब नहीं चल सकता, लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झड़बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिए और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगंध आई। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जा कर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा – अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी, सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिंडियाँ ला कर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया – अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न हो कर कहा – बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो जिंदगी-भर नहीं छोड़ता।

इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया। चाल तेज हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किए बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गए थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा। युवती ने पति की ओर घूर कर कहा – मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी।

पुरुष ने जैसे अल्टिमेटम दिया – न जाएगी?

‘न जाऊँगी।’

‘न जाएगी?’

‘न जाऊँगी।’

पुरुष ने उसके केश पकड़ कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गई।

पुरुष ने हार कर कहा – मैं फिर कहता हूँ, उठ कर चल।

स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा – मैं तेरे घर सात जलम न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल।

‘मैं तेरा गला काट लूँगा!’

‘तो फाँसी पाओगे।’

पुरुष ने उसके केश छोड़ दिए और सिर पर हाथ रख कर बैठ गया। पुरुषत्व अपने चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है।

एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त हो कर बोला – आखिर तू क्या चाहती है?

युवती भी उठ बैठी और निश्चल भाव से बोली – मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे।

‘कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई?’

‘मेरे माई-बाप को कोई क्यों गाली दे?’

‘किसने गाली दी, तेरे माई-बाप को?’

‘जा कर अपने घर में पूछ।’

‘चलेगी तभी तो पूछूँगा?’

‘तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जा कर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँक कर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती!’

राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनंद आ रहा था, मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंजिल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान खाली हुआ तो बोला – भाई, मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।

पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकाल कर कहा – तुम कौन हो?

गोबर ने नि:शंक भाव से कहा – मैं कोई हूँ, लेकिन अनुचित बात देख कर सभी को बुरा लगता है।

पुरुष ने सिर हिला कर कहा – मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आई, तभी इतना दरद है!

‘मेहरिया आएगी, तो भी उसके झोटे पकड़ कर न खींचूँगा।’

‘अच्छा, तो अपने राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने वाले। चले जाओ सीधे से, यहाँ मत खड़े हो।’

गोबर का गर्म खून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय? सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे, वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है।

पुरुष ने होंठ चबा कर कहा – तो तुम न जाओगे? आऊँ?

गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार हो कर बोला- तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी।

‘तो मालूम होता है, हाथ-पैर तुड़ा के जाओगे?’

‘यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे।’

‘तो तुम न जाओगे?’

‘ना।’

पुरुष मुट्ठी बाँध कर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली – तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपने राह क्यों नहीं जाते? यहाँ कोई तमासा है? हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलब?

गोबर यह धिक्कार पा कर चलता बना। दिल में कहा – यह औरत मार खाने ही लायक है।

गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा – तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो? उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गई। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही, मगर है किसी भले घर का और अपने बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपने बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते?

पति ने संदेह के स्वर में कहा – क्या अब तक कुँआरा बैठा होगा?

‘तो पूछ ही क्यों न लो?’

पुरुष ने दस कदम दौड़ कर गोबर को आवाज दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाए बगैर न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है, लेकिन आने दो।

लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी, मैत्री का निमंत्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था।

कोदई ने मुस्करा कर कहा – हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आए, तो मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा – मैं हक-नाहक तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न?

गोबर ने बताया – उसके मौरूसी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है।

‘मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अंधा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जनम तो उन्हीं ने दिया है, पाला-पोसा तो उन्होंने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूँगा, लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ? हाँ, मुझे उसके बाल पकड़ कर घसीटना न था, लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिए काबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ! अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाए।’

गोबर को भी राय बदलनी पड़ी। बोला – माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है?

कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो-कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं टिकना ही पड़ेगा।

गोबर ने विनोद किया – लुगाई मान गई?

‘न मानेगी तो क्या करेगी।’

‘मुझे तो उसने ऐसी फटकार बताई कि मैं लजा गया।’

‘वह खुद पछता रही है। चलो, जरा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-माई की गाली क्यों देती है। हमारी भी बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना न जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठ कर चली जाय, पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती।’

गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आए, जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गई थी। जरा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी।

कोदई ने मुस्करा कर कहा – यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ?

युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देख कर कहा – इतनी ही डाँट में डर गए? लुगाई आ जायगी, तब कहाँ भागोगे?

गाँव समीप ही था। गाँव क्या था, पुरवा था, दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँच कर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत ले कर आई और गोबर को पानी का एक छींटा मार कर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे।
गोबर अँधेरे ही मुँह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है, इसलिए उससे कोई विवाह-संबंधी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न हो कर आशीर्वाद दिया था। तुम बड़ी हो माता जी, पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जनम ले कर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जनम ले कर भी नहीं…’

बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गदगद हो गई। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा – उसमें बुढ़िया को अपना मंगल ही दिखाई दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर दे, फिर रोगी उसके हाथों विष भी खुशी से पी लेगा? अब जैसे आज ही बहू घर से रूठ कर चली गई, तो किसकी हेठी हुई। बहू को कौन जानता है? किसकी लड़की है, किसकी नातिन है, कौन जानता है। संभव है, उसका बाप घसियारा ही रहा हो…।

बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा – घसियारा तो है ही बेटा, पक्का घसियारा। सबेरे उसका मुँह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले।

गोबर बोला – तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो सकती है! हँसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है? फिर यह अभी लड़की है, अबोध, अल्हड़। नीच माता-पिता की लड़की है, अच्छी कहाँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने से तो वह पढ़ेगा नहीं, उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दो, लेकिन उसके मुँह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है।

जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाँड़ और सत्तू मिला कर उसे खाने को दिया। गाँव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाजार में आ पहुँचे। गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहाँ से आ गए? आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था।

उस दिन बाजार में चार-पाँच सौ मजदूरों से कम न थे। राज और बढ़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुनने वाले और टोकरी ढोने वाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देख कर निराश हो गया। इतने सारे मजदूरों को कहाँ काम मिला जाता है। और उसके हाथ तो कोई औजार भी नहीं है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगा? बिना औजार के उसे कौन पूछेगा?

धीरे-धीरे एक-एक करके मजदूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश हो कर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई गम नहीं।

सहसा मिर्जा खुर्शेद ने मजदूरों के बीच में आ कर ऊँची आवाज से कहा – जिसको छ: आने रोज पर काम करना हो, वह मेरे साथ आए। सबको छ: आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी।

दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़ कर सब-के-सब उनके साथ चलने को तैयार हो गए। चार सौ फटे हालों की एक विशाल सेना सज गई। आगे मिर्जा थे, कंधों पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लंबी कतार थी, जैसे भेड़ें हों।

एक बूढ़े ने मिर्जा से पूछा – कौन काम करना है मालिक?

मिर्जा ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गए? केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के छ: आना रोज दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पा कर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को संदेह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जा कर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाए, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्ली-डंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा!

गोबर ने डरते-डरते कहा – मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ तो कुछ ले कर खा लूँ।

मिर्जा ने झट छ: आने पैसे उसके हाथ में रख दिए और ललकार कर बोले – मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिंता मत करो।

मिर्जा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी जमीन ले रखी थी। मजूरों ने जा कर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अंदर केवल एक छोटी-सी फूस की झोपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियाँ थीं, एक मेज। थोड़ी-सी किताबें मेज पर रखी हुई थीं। झोपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुंदर लगती थी। अहाते में एक तरफ आम और नींबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिर्जा ने सबको कतार में खड़ा करके पहले ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में संदेह न रहा।

गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिर्जा ने उसे बुला कर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठ कर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठा कर पटकता, लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कब्ड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गए।

आज युगों के बाद इन जरा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिकतर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गए घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा मिल जाता था, खा कर पड़े रहते थे। प्रात:काल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानंद, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज तो एक यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गए। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिए, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाए ताल ठोंक-ठोंक कर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गई, दो नायक बन गए। गोइयों का चुनाव होने लगा और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ॠतु है।

इधर अहाते के फाटक पर मिर्जा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा ले कर गरीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाए गए थे, नोटिस बाँटे गए थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आएँ और अपने आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछताएगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से ले कर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हजार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुर्सियों और बेंचों का इंतजाम था। साधारण जनता के लिए साफ-सुथरी जमीन।

मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और रायसाहब सभी विराजमान थे।

खेल शुरू हुआ तो मिर्जा ने मेहता से कहा – आइए डाक्टर साहब, एक गोईं हमारी और आपकी हो जाए।

मिस मालती बोलीं – फिलासफर का जोड़ फिलासफर ही से हो सकता है।

मिर्जा ने मूँछों पर ताव दे कर कहा – तो क्या आप समझती हैं, मैं फिलासफर नहीं हूँ? मेरे पास पुछल्ला नहीं है, लेकिन हूँ मैं फिलासफर, आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहता जी!

मालती ने पूछा – अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट?

‘मैं दोनों हूँ।’

‘यह क्यों कर?’

‘बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौका देखा, वैसा बन गया।’

‘तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है।’

‘जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और न कभी होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ, और लोग आँखें फोड़ कर और किताबें चाट कर जिस नतीजे पर पहुँचे हैं, वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फिलासफर ने अक्लीगद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है?’

डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा – तो चलिए, हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फिलासफर मानता हूँ।

मिर्जा ने खन्ना से पूछा – आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ?

मालती ने पुचारा दिया – हाँ, हाँ, इन्हें जरूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ।

खन्ना झेंपते हुए बोले – जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए।

मिर्जा ने रायसाहब से पूछा – आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ?

रायसाहब बोले – मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नजर ही नहीं आते।

मिर्जा और मेहता भी नंगी देह, केवल जांघिए पहने हुए मैदान में पहुँच गए। एक इधर दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया।

जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाजियाँ लगाती थी। वाह! जरा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मार कर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हयियों में अभी बहुत जान है भाई। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधर वाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना जोर मार रहा है, मगर अब नहीं जा सकते बच्चा। एक को तीन लिपट गए। इस तरह लोग अपने दिलचस्पी जाहिर कर रहे थे, उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ से कहकहे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देख कर लोग छोड़ दो, छोड़ दो’ का गुल मचाते। कुछ लोग तैश में आ कर पाली की तरफ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट ले कर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनंद न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे।

खन्ना ने जिंजर का ग्लास खाली करके सिगार सुलगाया और रायसाहब से बोले – मैंने आपसे कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राजी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है, क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है।

रायसाहब ने मूँछों में मुस्कराहट को लपेट कर कहा – आपकी नीति में घर वालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए?

‘यह आप क्या फरमा रहे हैं?’

‘ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फीसदी लिया है, मुझसे नौ फीसदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं, क्यों न हो!’

खन्ना ने कहकहा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था।

‘उन शर्तों पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी।’

‘मैं भी अपने कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोड वाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा।’

‘उस कोठी का सुभीते से निकलना जरा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है, मगर खैर, देखूँगा। आप उसकी कीमत का क्या अंदाजा करते हैं?’

रायसाहब ने एक लाख पच्चीस हजार बताए। पंद्रह बीघे जमीन भी तो है उसके साथ। खन्ना स्तंभित हो गए। बोले – आप आज से पंद्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं रायसाहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गई है।

रायसाहब ने बुरा मान कर कहा – जी नहीं, पद्रंह साल पहले उसकी कीमत डेढ़ लाख थी।

‘मैं खरीदार की तलाश में रहूँगा, मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा आपसे।’

‘औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों, क्या करोगे इतने रुपए ले कर?’

‘आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राजी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न खरीदे? अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पॉलिसी भी आपने न ली। आपमें टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुकेदारों की रियासतें जब्त कर लूँ।’

मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहती, पर तंखा आसानी से हार मानने वाले व्यक्ति न थे। आ कर कुहनियों के बल मेज पर टिक कर बोले – आप जरा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ, ऐसा मौका शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चंदा को आपके मुकाबले में रुपए में एक आना भी चांस नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायँ, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पार्टियाँ हैं, जो वह गर्वनरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नई कौंसिल में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनाधिकारियों के हाथ में जाय।

मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा – लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हजार एलेक्शन पर खर्च करने के लिए कहाँ हैं? रानी साहब तो दो-चार लाख खर्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हजार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रकम भी हाथ से निकल जायगी।

‘पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं या नहीं?’

‘जाना तो चाहती हूँ, मगर फ्री पास मिल जाय!’

‘तो यह मेरा जिम्मा रहा। आपको फ्री पास मिल जायगा।’

‘जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की जिल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर अशर्फी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे।’

‘आपके खयाल में एलेक्शन महज रुपए से जीता जा सकता है?’

‘जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गई थी, उसी तरह जैसे रायसाहब और खन्ना गए थे। इस नई सभ्यता का आधार धन है। विद्या और सेवा और कुल जाति सब धन के सामने हेच हैं। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आंदोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है, मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई गरीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गई, तो द्वार तक जा कर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानों साक्षात देवी हैं। मेरा और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज्यादा उपयुक्त हैं।

उधर मैदान में मेहता की टीम कमजोर पड़ती जाती थी। आधे से ज्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिर्जा इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छों को चकित कर देते थे। और मिर्जा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी।

मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठ कर रायसाहब से बोली – मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है।

रायसाहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। रायसाहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बंधन से मुक्त कर दिया। उठ कर बोले – जी हाँ, पिट तो रही है। मिर्जा पक्का खिलाड़ी है।

‘मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं।’

‘इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है।’

‘मेहता की तरफ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है।’

एक क्षण के बाद उसने पूछा – क्या इस खेल में हाफटाइम नहीं होता?

खन्ना को शरारत सूझी। बोले – आप चले थे मिर्जा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फिलॉसफी है।

‘मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफटाइम नहीं होता?’

खन्ना ने फिर चिढ़ाया – अब खेल ही खतम हुआ जाता है। मजा आएगा तब, जब मिर्जा मेहता को दबोच कर रगड़ेंगे और मेहता साहब चीं बोलेंगे।

‘मैं तुमसे नहीं पूछती। रायसाहब से पूछती हूँ।’

रायसाहब बोले – इस खेल में हाफटाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।

‘अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया।’

खन्ना बोले – आप देखती रहिए। इसी तरह सब मर जाएँगे और आखिर में मेहता साहब भी मरेंगे।

मालती जल गई – आपकी तो हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।

‘मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है।’

‘टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ।’

‘आपसे जीतने का दावा ही कब है?’

‘अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ।’

मालती उन्हें फटकार बता कर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल खत्म कर दिया जाए। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ भी अपनी न्यायप्रियता दिखा रहे हैं। अभी हार कर लौटेंगे तो चारों तरफ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ और होंगे और लोग कितने खुश हो रहे हैं।

ज्यों-ज्यों अंत समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, वह तोड़ दिया गया। स्वयं-सेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थे, पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अंतिम बिंदु तक आ पहुँचा और मेहता अकेले बच गए और अब उन्हें गूँगे का पार्ट खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर है, अगर वह बच कर अपनी पाली में लौट आते हैं, तो उनका पक्ष बचता है। नहीं, हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता है, वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छू कर अपनी पाली में आएँगे, वह सब मर जाएँगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता को ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आ कर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शांत भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबिबिंत हो जाती है, किसी की गर्दन टेढ़ी हुई जाती है, कोई आगे को झुक पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला-बिंदु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को आशा थी कि मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे हैं।

सहसा मिर्जा एक छलांग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए जोर मार रहे हैं। मिर्जा को पाली की तरफ खींचे लिए आ रहे हैं। लोग उन्मत्त हो जाते हैं। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी है, कौन तमाशाई। सब एक में गडमड हो गए हैं। मिर्जा और मेहता में मल्लयुद्द हो रहा है। मिर्जा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ लपके और उनसे लिपट गए। मेहता जमीन पर चुपचाप पड़े हुए हैं, अगर वह किसी तरह खींच-खाँच कर दो हाथ और ले जायँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैं, मगर एक वह इंच भी नहीं खिसक सकते। मिर्जा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीर-बहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा है, और मिर्जा अपने स्थूल शरीर का भार लिए उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं।

मालती ने समीप जा कर उत्तेजित स्वर में कहा – मिर्जा खुर्शेद, यह फेयर नहीं है। बाजी ड्रान रही।

खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगा कर कहा – जब तक यह ‘चीं’ न बोलेंगे, मैं हरगिज न छोड़ूँगा। क्यों नहीं ‘चीं” बोलते?

मालती और आगे बढ़ी – ‘चीं’ बुलाने के लिए आप इतनी जबरदस्ती नहीं कर सकते।

मिर्जा ने मेहता की पीठ पर हुमच कर कहा – बेशक कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें, ‘चीं” बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ।

मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की, पर मिर्जा ने उनकी गर्दन दबा दी।

मालती ने उनका हाथ पकड़ कर घसीटने की कोशिश करके कहा – यह खेल नहीं, अदावत है।

‘अदावत ही सही।’

‘आप न छोड़ेंगे?’

उसी वक्त जैसे कोई भूकंप आ गया। मिर्जा साहब जमीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हजारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह कायापलट हुई, कोई समझ न सका।

मिर्जा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिए हुए शामियाने तक आए। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे – डाक्टर साहब ने बाजी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाजी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और दम और धैर्य का बखान कर रहे थे।

मजदूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गई थीं। उन्हें एक-एक नारंगी दे कर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिर्जा एक ही मेज पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बगल में बैठी।

मेहता ने कहा – मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।

मिर्जा ने मालती की ओर देखा – अच्छा! यह बात थी। जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गए।

मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली – आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिर्जा जी! मुझे आज मालूम हुआ।

‘कुसूर इनका था। यह क्यों ‘चीं’ नहीं बोलते थे?’

‘मैं तो ‘चीं’ न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते।’

कुछ देर मित्रों में गपशप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग विदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गई। केवल मेहता और मिर्जा रह गए। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते? गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे।

मिर्जा ने पूछा – शादी कब तक होगी?

मेहता ने अचंभे में आ कर पूछा – किसकी?

‘आपकी।’

‘मेरी शादी। किसके साथ हो रही है?’

‘वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपाने की बात है।’

‘नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल खबर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है?’

‘और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आपकी कंपेनियन बन कर रहेंगी?’

मेहता गंभीर भाव से बोले – आपका खयाल बिलकुल गलत है मिर्जा जी! मिस मालती हसीन हैं, खुशमिजाज हैं, समझदार हैं, रोशनखयाल हैं और भी उनमें कितनी खूबियाँ हैं, लेकिन मैं अपने जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजबानी से, अपनी कुर्बानी से, अपने को बिलकुल मिटा कर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामर्थ्य ही नहीं है। वह अपने को मिटाएगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेज प्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझ कर कि वह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान है, शांति-संपन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकर्षित होता है स्त्री की ओर, जो सर्वांश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नजरों में क्या है। संसार में जो कुछ सुंदर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ, मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आए। अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पा कर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उस पर अपने को अर्पण कर दूँगा।

मिर्जा ने सिर हिला कर कहा – ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले।

मेहता ने हाथ मार कर कहा – एक नहीं हजारों, वरना दुनिया वीरान हो जाती।

‘ऐसी एक ही मिसाल दीजिए।’

‘मिसेज खन्ना को ही ले लीजिए।’

‘लेकिन खन्ना!’

‘खन्ना अभागे हैं, जो हीरा पा कर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिए, कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती-भर भी स्थान नहीं है, लेकिन आज खन्ना पर कोई आगत आ जाय, तो वह अपने को उन पर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अंधे या कोढ़ी हो जायँ, तो भी उसकी वफादारी में फर्क न आएगा। अभी खन्ना उसकी कद्र नहीं कर रहे हैं, मगर आप देखेंगे, एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धो कर पिएँगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता, जिससे मैं आइंस्टीन के सिद्धांत पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से।’

खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा – आपका खयाल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।

मेहता ने हँस कर कहा – आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तकदीर जागे।

‘मगर मिस मालती आपको छोड़ने वाली नहीं। कहिए लिख दूँ।’

‘ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, ब्याह नहीं। ब्याह तो आत्मसमर्पण है।’

‘अगर ब्याह आत्मसमर्पण है तो प्रेम क्या है?’

‘प्रेम जब आत्मसमर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है, उसके पहले ऐयाशी है।’

मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गए। शाम हो गई थी। मिर्जा ने जा कर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिर्जा ने प्रसन्न हो कर कहा – जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे?

गोबर ने कातर भाव से कहा – मैं कहीं नौकरी करना चाहता हूँ मालिक।

‘नौकरी करना है, तो हम तुझे रख लेंगे।’

‘कितना मिलेगा हुजूर?’

‘जितना तू माँगे।’

‘मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें।’

‘हम तुम्हें पंद्रह रुपए देंगे और खूब कस कर काम लेंगे।’

गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पंद्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा।

बोला – मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।

‘हाँ-हाँ, जगह का इंतजाम मैं कर दूँगा। इसी झोंपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़े रहना।’

गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।
होरी की फसल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे? गाँव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!

साँझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी, मगर रूपा क्या समझे। बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला, मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था, पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी – उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिए। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।

वहाँ से रूआँसा हो कर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जा कर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली – आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजी? अब तो बेला हो गई।

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी – हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आए? और आए भी तो घर के अंदर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आई। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँध कर ले जाती और चक्की पिसवाती!

धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली – रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जिएँ। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं।

पुनिया की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।

बोली – अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है, कि किसी और की? सुख के दिन आएँ, तो लड़ लेना, दु:ख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती?

वह उल्टे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे ला कर आँगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई ला कर रख दी और बोली – चलो, मैं आग जलाए देती हूँ।

धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भर कर बोली – सब-का-सब उठा लाई कि घर में कुछ छोड़ा? कहीं भागा जाता था?

आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में ले कर दुलारती हुई बोली – तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभी जी! पंद्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान मालिक है।

झुनिया ने आ कर आँचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रूकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगा।

पुनिया बोली – महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी?

धनिया ने कहा – बिरादरी में सुरखरू कैसे होते?

‘भाभी, बुरा न मानो तो, एक बात कहूँ?’

‘कह, बुरा क्यों मानूँगी?’

‘न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?’

‘कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो।’

‘तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था!’

‘तब क्या करती? वह डूब मरती थी।’

‘मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।’

‘यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू ले कर दौड़ती!’

‘इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।’

‘होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा, भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिए फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े। इस सत्यानासी गाय ने आ कर घर चौपट कर दिया।’

कुछ और बातें करके पुनिया आग ले कर चली गई। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आ कर बोला – पुनिया दिल की साफ है।

‘हीरा भी तो दिल का साफ था?’

धनिया ने अनाज तो रख लिया था, पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।

‘तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है।’

‘औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी।’

मगर पुनिया अपने जिठानी के मनोभाव समझ कर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब अनाज चुक जाता, मन-दो-मन दे जाती, मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई तो समस्या अत्यंत जटिल हो गई। सावन का महीना आ गया था और बगुले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था, मगर उसके पीछे आए दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियाँ होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रांत में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वर्षा हो गई और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे, मानो पानी नहीं, अशर्फियाँ बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगुले उठते थे, वहाँ हल चलने लगे। बालवृंद निकल-निकल कर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गया, और वहाँ से गड़हिया की तरफ दौड़े।

मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो विदा हो गई। एक-एक हाथ की होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदों से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँ, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया।

जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला – यही है तुम्हारा कौल? इसी मुँह से तुमने ऊख पेर कर मेरे रुपए देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में।

होरी जब अपने विपत्ति सुना कर और सब तरह से चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुँझला कर कहा – तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकता है। मैं कहाँ से लाऊँ? दाने-दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न हो, घर में आ कर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ।

भोला ने निर्मम भाव से कहा – मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपए हैं या नहीं। तुमने ऊख पेर कर रुपए देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब रुपए मेरे हवाले करो।

‘तो फिर जो कहो, वह करूँ?’

‘मैं क्या कहूँ ?’

‘मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ।’

‘मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊँगा।’

होरी ने उसकी ओर विस्मय-भरी आँखों से देखा, मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि-सा सिर झुका कर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बना कर छोड़ देना चाहते हैं? दोनों बैल चले गए, तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जाएँगे।

दीन स्वर में बोला – दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सर्वनास हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता है, तो खोल ले जाओ।

‘तुम्हारे बनने-बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपए चाहिए।’

और जो मैं कह दूँ, मैंने रुपए दे दिए?’

भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेइमानी कर सकता है, यह संभव नहीं।

उग्र हो कर बोला – अगर तुम हाथ में गंगाजली ले कर कह दो कि मैंने रुपए दे दिए, तो सबर कर लूँगा।

‘कहने का मन तो चाहता है, मरता क्या न करता, लेकिन कहूँगा नहीं।’

‘तुम कह ही नहीं सकते।’

‘हाँ भैया, मैं नहीं कह सकता। हँसी कर रहा था।’

एक क्षण तक वह दुविधा में पड़ा रहा। फिर बोला – तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई! झुनिया मेरे घर में आ गई, तो मुझे कौन-सा सरग मिल गया? लड़का अलग हाथ से गया, दो सौ रूपया डाँड़ अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान जानते हैं, मुझे बिलकुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता था, गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चला, जब आधी रात को झुनिया घर में आ गई। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, कहाँ जाती? किसकी हो कर रहती?

झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं शत्रु समझती थी। डरी, कहीं होरी बैलों को दे न दें। जा कर रूपा से बोली – अम्माँ को जल्दी से बुला ला। कहना, बड़ा काम है, बिलम न करो।

धनिया खेत में गोबर फेंकने गई थी, बहू का संदेश सुना, तो आ कर बोली – काहे बुलाया है बहू, मैं तो घबड़ा गई।

‘काका को तुमने देखा है न?’

‘हाँ देखा, कसाई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं।’

‘हमारे दोनों बैल माँग रहे हैं, दादा से।’

धनिया के पेट की आँतें भीतर सिमट गईं।

‘दोनों बैल माँग रहे हैं?’

‘हाँ, कहते हैं या तो हमारे रुपए दो, या हम दोनों बैल खोल ले जाएँगे।’

‘तेरे दादा ने क्या कहा?’

‘उन्होंने कहा – तुम्हारा धरम कहता हो, तो खोल ले जाओ।’

‘तो खोल ले जाय, लेकिन इसी द्वार पर आ कर भीख न माँगे, तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती हो, तो जुड़ा ले।’

वह इसी तैश में बाहर आ कर होरी से बोली – महतो दोनों बैल माँग रहे हैं, तो दे क्यों नहीं देते? उनका पेट भरे, हमारे भगवान मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगे? अब तक अपने मजूरी करते थे, अब दूसरों की मजूरी करेंगे। भगवान की मरजी होगी, तो फिर बैल-बधिए हो जाएँगे, और मजूरी ही करते रहे, तो कौन बुराई है। बूड़े-सूखे और पोत-लगान का बोझ न रहेगा। मैं न जानती थी, यह हमारे बैरी हैं, नहीं गाय ले कर अपने सिर पर विपत्ति क्यों लेती! उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आया, घर तहस-नहस हो गया।

भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा था, अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गया, बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलंब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जाएँगे। अच्छे निशानेबाज की तरह मन को साध कर बोला – अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज्जती हो और तुम चैन से बैठो, तो यह न होगा। तुम अपने सौ-दो-सौ को रोते हो। यहाँ लाख रुपए की आबरू बिगड़ गई। तुम्हारी कुसल इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से निकाल दो, फिर न हम बैल माँगेंगे, न गाय का दाम माँगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूँ। वह यहाँ रानी बनी बैठी रहे, और हम मुँह में कालिख लगाए उसके नाम को रोते रहें, यह मैं नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा, लेकिन आज उसे भीख माँगते और घूर पर दाने चुनते देख कर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप हो कर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुँहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूँग दलना नहीं तो और क्या है!

धनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा – तो महतो, मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी। सौ जनम न होगी। झुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ, अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो, पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई जरूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पाँव रखा, मैं झाड़ू ले कर मारने को उठी थी, लेकिन जब उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गई। तुम अब बूढ़े हो गए महतो! पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है।

भोला ने अपील-भरी आँखों से होरी को देखा – सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊँगा।

होरी ने दृढ़ता से कहा – ले जाओ।

‘फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए!’

‘नहीं रोऊँगा।’

भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिए, बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली – काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख माँग कर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूँगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूँगी।

भोला खिसिया कर बोला – दूर हो मेरे सामने से। भगवान न करे, मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलच्छिनी, कुल-कलंकनी कहीं की! अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है।

झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुँह खोल कर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया।

लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़ कर उसे पकड़ लिया और हिंसा-भरे स्नेह से बोली – तू कहाँ जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपने संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जा, बैलों का रकत पी….

झुनिया रोती हुई बोली – अम्माँ, जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दु:ख ही मिला। जब से आई, तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, माँ भी न रखती। भगवान मुझे फिर जनम दें, तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाखा है।

धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली – यह तेरा बाप नहीं है, तेरा बैरी है, हत्यारा। माँ होती, तो अलबत्ते उसे कलंक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटे, तो कहना!

झुनिया सास के पीछे-पीछे घर में चली गई। उधर भोला ने जा कर दोनों बैलों को खूँटों से खोला और हाँकता हुआ घर चला, जैसे किसी नेवते में जा कर पूरियों के बदले जूते पड़े हों? अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सब, न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं। नहीं, ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगा? सब-के-सब बेसरम हो गए हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस राँड़ झुनिया की ढिठाई देखो कि आ कर मेरे सामने खड़ी हो गई। दूसरी लड़की होती, तो मुँह न दिखाती। आँखों का पानी मर गया है। सबके सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैं, झुनिया अब हमारी हो गई। यह नहीं समझते, जो अपने बाप के घर न रही, वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय खराब है, नहीं बीच बाजार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़ कर घसीटता। मुझे कितनी गालियाँ देती थी।

फिर उसने दोनों बैलों को देखा, कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहाँ चाहूँ, सौ रुपए में बेच सकता हूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे हो जाएँगे।

अभी वह गाँव के बाहर भी न निकला था कि पीछे से दातादीन, पटेश्वरी, शोभा और दस-बीस आदमी और दौड़े आते दिखाई दिए! भोला का लहू सर्द हो गया। अब फोजदारी हुई, बैल भी छिन जाएँगे, मार भी पड़ेगी। वह रूक गया कमर कस कर। मरना ही है तो लड़ कर मरेगा।

दातादीन ने समीप आ कर कहा – यह तुमने क्या अनर्थ किया भोला, ऐं! उसके बैल खोल लाए, वह कुछ बोला नहीं, इसी से सेर हो गए। सब लोग अपने-अपने काम में लगे थे, किसी को खबर भी न हुई। होरी ने जरा-सा इशारा कर दिया होता, तो तुम्हारा एक-एक बाल नुच जाता। भला चाहते हो, तो ले चलो बैल, जरा भी भलमंसी नहीं है तुममें।

पटेश्वरी बोले – यह उसके सीधेपन का फल है। तुम्हारे रुपए उस पर आते हैं, तो जा कर दीवानी में दावा करो, डिगरी कराओ। बैल खोल लाने का तुम्हें क्या अख्तियार है? अभी फौजदारी में दावा कर दे तो बँधे-बँधे फिरो।

भोला ने दब कर कहा – तो लाला साहब, हम कुछ जबरदस्ती थोड़े ही खोल लाए। होरी ने खुद दिए।

पटेश्वरी ने भोला से कहा – तुम बैलों को लौटा दो भोला! किसान अपने बैल खुशी से देगा, कि इन्हें हल में जोतेगा।

भोला बैलों के सामने खड़ा हो गया – हमारे रुपए दिलवा दो, हमें बैलों को ले कर क्या करना है?

‘हम बैल लिए जाते हैं, अपने रुपए के लिए दावा करो और नहीं तो मार कर गिरा दिए जाओगे। रुपए दिए थे नगद तुमने? एक कुलच्छिनी गाय बेचारे के सिर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले लिए जाते हो।’

भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुम, दृढ़, मानो मर कर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाता?

दातादीन ने एक कदम आगे बढ़ा कर अपने झुकी कमर को सीधा करके ललकारा – तुम सब खड़े ताकते क्या हो, मार के भगा दो इसको। हमारे गाँव से बैल खोल ले जायगा।

बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को जोर से धक्का दिया। भोला सँभल न सका, गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूँसा दिया।

होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस कदम बढ़ कर पूछा – ईमान से कहना होरी महतो, मैंने बैल जबरदस्ती खोल लिए?

दातादीन ने इसका भावार्थ किया – यह कहते हैं कि होरी ने अपने खुशी से बैल मुझे दे दिए। हमीं को उल्लू बनाते हैं!

होरी ने सकुचाते हुए कहा – यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दो, या मेरे रुपए दो, नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊँगा। मैंने कहा – मैं बहू को तो न निकालूँगा, न मेरे पास रुपए हैं, अगर तुम्हारा धरम कहे, तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिए।

पटेश्वरी ने मुँह लटका कर कहा – जब तुमने धरम पर छोड़ दिया, तब काहे की जबरदस्ती। उसके धरम ने कहा – लिए जाता है। जाओ भैया, बैल तुम्हारे हैं।

दातादीन ने समर्थन किया – हाँ, जब धरम की बात आ गई, तो कोई क्या कहे। सब-के-सब होरी को तिरस्कार की आँखों से देखते परास्त हो कर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाए बैलों को ले चला।
मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खा कर कौन जी सकता है! और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती है, या उसने निजत्व को अपने आँखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमींदारों और रईसों की जायदादें बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिल कर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे, और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं! उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेज कर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पा कर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति है, मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। जबान तो बिलकुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गई, तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थी, जबान ही की कमाई थी। कुछ बचा कर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी, और अनियमित खर्च था, इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाँच सौ रुपए में वह भोग-विलास और ठाठ-बाट तो क्या निभता! हाँ, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिख कर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाए थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था, उसके पचीस हजार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, कुर्की करा सकता था, मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करें, उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थी, लेकिन उसकी माता जो साक्षात देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थीं, इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था।

संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी।

मालती ने पूछा – माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता?

मँझली बहन सरोज ने कहा – पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है।

सरोज बी.ए में पढ़ती थी, दुबली-सी, लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता।

सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली – दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा।

सरोज ने डाँटा – दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की!

‘रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँ?’

‘पुछवाएगी, बुलाऊँ?’

मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली – अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण हुआ था, सरोज?

सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा – हाँ, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे? संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया।

मालती ने कटाक्ष किया – लेडी हुकू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा?

‘पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।’

‘फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।’

उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा – शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है।

सरोज को कौतूहल हुआ।

‘मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।’

‘अब भी कहती हूँ, लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। संभव है, हमीं गलती पर हों।’

यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाए। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचे, तो जान पड़ता था, हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थी, नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग-रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है।

सबसे पीछे की सफ में मिर्जा और खन्ना और संपादक जी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े हो गए।

मिर्जा ने कहा – आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा?

रायसाहब बोले – नहीं भाई, यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा।

‘तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए।’

रायसाहब ने उनके कंधे दबाए – तकल्लुफ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगा, तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगा, अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए।

खन्ना ने रोनी सूरत बना कर कहा – अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया।

मिस्टर मेहता का भाषण शुरू हुआ –

‘देवियो, जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूँ, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं, लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति ‘देवता’ का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है…’

तालियाँ बजीं। रायसाहब ने कहा – औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला।

‘बिजली’ संपादक को बुरा लगा – कोई नई बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ।

मेहता आगे बढ़े – इसलिए जब मैं देखता हूँ, हमारी उन्नत विचारों वाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट हो कर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता।

मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली।

खुर्शेद बोले – अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर।

‘बिजली’ संपादक ने नाक सिकोड़ी – अब वह दिन लद गए, जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओ, आप तो देवी हैं, लक्ष्मी हैं, माता हैं।

मेहता आगे बढ़े – स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में रत देख कर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देख कर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।

खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी।

रायसाहब ने चुटकी ली – आप बहुत खुश हैं खन्ना जी!

खन्ना बोले – मालती मिलें, तो पूछूँ। अब कहिए।

मेहता आगे बढ़े – मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीन कर और उसका रक्त बहा कर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बना कर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएँ उसके माथे पर केसर का तिलक लगा कर और उसे अपने असीसों का कवच पहना कर हिंसा-क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड हो कर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूँ, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग दे कर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतर कर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूँ, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए।

खन्ना बोले – मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती।

रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया – मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।

‘बिजली’ संपादक बिगड़े – मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरूष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से।

खुर्शेद ने कहा – अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा?

मेहता का भाषण जारी था – देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, समान प्रवृत्तियाँ हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढँक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढँक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूँ कि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ॠषियों का आश्रय ले कर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ।

तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गदगद हो कर कहा – मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है।

ओंकारनाथ ने टीका की – लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई।

‘पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।’

‘जो एक हजार रुपए हर महीने फटकार कर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।’

खन्ना ने मालती की ओर देखा – यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए।

खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया – अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।

खन्ना खिसिया कर बोले – मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फँसा कर छोड़ दी हैं।

रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आँख मार कर कहा – आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया?

खन्ना पर झेंप छा गई – मैं ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रच कर दुराचार फैलाते हैं।

मेहता का भाषण जारी था –

‘पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिल कर किया क्या? महात्माओं और धर्म-प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की इस रची हुई संस्कृति में शांति कहाँ है? सहयोग कहाँ है?’

ओंकारनाथ उठ कर जाने को हुए – विलासियों के मुँह से बड़ी-बड़ी बातें सुन कर मेरी देह भस्म हो जाती है।

खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़ कर बैठाया – आप भी संपादक जी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते है चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आएँगे और चले जाएँगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है?

‘असत्य सुन कर मुझसे सहा नहीं जाता।’

रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया – कुलटा के मुँह से सतियों की-सी बात सुन कर किसका जी न जलेगा!

ओंकारनाथ फिर बैठ गए। मेहता का भाषण जारी था..

‘मैं आपसे पूछता हूँ, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देख कर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़ कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और अगर वह शिकारी बन जाए, तो आप उसे बधाई देंगी? हंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आँखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा – वह हंस जो मोती चुगता है।’

खुर्शेद ने टीका की – यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज।

ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए – उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर।

खन्ना ने दिल का गुबार निकाला – फिलॉसफर नहीं फिलॉसफर की दुम हैं। फिलॉसफर वह है जो…..

ओंकारनाथ ने बात पूरी की – जो सत्य से जौ भर भी न टले।

खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रूची – मैं सत्य-वत्य नहीं जानता। मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूँ, जो फिलॉसफर हो सच्चा!

खुर्शेद ने दाद दी – फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला! फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो!

मेहता आगे चले – मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं हता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्याऔर वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का ‘उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं?

सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी – हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर।

और कई युवतियों ने हाँक लगाई – वोट! वोट!

ओंकारनाथ ने खड़े हो कर ऊँचे स्वर से कहा – नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।

मालती ने मेज पर हाथ पटक कर कहा – शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।

मेहता बोले – वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़ कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहाँ संगठित अपहरण है? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़ कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहाँ मनुष्य पीसा जाता है, जहाँ उसका रक्त निकाला जाता है?

मिर्जा ने टोका – पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।

मेहता बोले – बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटा कर नहीं।

मालती बोली – नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।

मेहता ने उत्तर दिया – संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिर कर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपने लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपने नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपने लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकती। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?

रायसाहब ने तालियाँ बजाईं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियाँ छूट रही हों।

मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा – इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?

संपादक जी ने विरक्त मन से कहा – सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।

‘तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए!’

‘जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ निकालूँगा, ‘बिजली’ में देखिएगा।’

‘इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।’

रायसाहब ने आड़े हाथों लिया – इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है?

संपादक जी अविचल रहे – वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं।

‘तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?’

‘मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।’

‘बड़े बेहया हो यार!’

मुसी प्रेमचंद द्वारा लिखित

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