बिहार वाली बस : लघुकथा (सुशील कुमार भारद्वाज)

कथा-कहानी लघुकथा

सुशील कुमार भारद्वाज 446 11/18/2018 12:00:00 AM

“ले, अब मर. कितनी बार कह चुका हूं. बस में सारे बच्चे लेकर मत चलाकर. साला किधर –किधर इस भीड़ में उसे खोजूं. पांच दफा तो आवाज लगा चुका… पर कमीना जो ठहरा – एक चूं की आवाज उससे देते नहीं बन रहा.” एक चुप्पी के बाद, “ये साला बिहार देश नहीं सुधरेगा! देखो, दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता में. कैसे लोग कायदे से रहते हैं?….

बिहार वाली बस

सुशील कुमार भारद्वाज

बस में चढा तो भीड़ बहुत थी लेकिन चढ़ना भी मज़बूरी थी. पूरे एक घंटे के इंतज़ार के बाद बस जो आई थी. मालीपुर जैसे छोटे इलाके के लिहाज से स्थिति कोई बुरी नहीं थी. ट्रक, ऑटो और जीप तो सरपट दौड़ ही रहे थे. फर्क बस इतना था कि गाडियां हसनपुर और रोसड़ा की ओर जा रही थीं और मुझे जाना था बेगूसराय.
अब सुबह-सुबह तो सबकी अपनी मज़बूरी होती है ऐसे में बस को आखिर छोड़े तो कौन? उसमें भी आज ठंढी हवा जाते हुए माघ महीने का एहसास कराने के लिए फिर से धमक चुकी है.
बस में तिल रखने भर की भी जगह न सूझती थी, पर कंडक्टर था कि न तो बार-बार गाड़ी रुकवाने से बाज आता था न ही भूसे की तरह आदमी को ठूंसने से. संयोग से बीस मिनट की धक्का –मुक्की के बाद मुझे एक सीट मिल ही गया. ओह! खुशी के क्या कहने? लगा जैसे जग जीत लिया. सारे कष्ट दूर. सच भी था कि बेगूसराय तक तो शायद ही कोई मुझे उठाने की हिमाकत करता. ठाठ से बैठने के बाद खिड़की की ओर मुंह करके हरे भरे बगीचे और खेत को देखने लगा तो देखते ही रह गया. आंखों के साथ-साथ मन को भी अजीब सुकून मिला. खेत से लगे ही आम, जामुन, लीची, बेल, कटहल, चौह, शीशम, पीपल, बरगद, ताड़ के पेड़ नज़र आ रहे थे. पटना में ये नज़ारे अब कहां नसीब होते हैं? जो कुछ पेड़–पौधे सड़क किनारे या यहां–वहां थे, वे भी सड़क चौड़ीकरण, पुल–निर्माण आदि के नाम पर गायब हो गए. एक कसक उठी. क्या इस हरियाली की परिकल्पना अब कंक्रीट के जंगल बने शहरों में की जा सकती है? यहां भी जो हरियाली बची हुई है वह भी कब तक बची रह पाएगी? वर्षों पहले घने बगीचे नज़र आते थे लेकिन अब यहां भी सड़क किनारे खेत तेजी से बाजार बनते जा रहे हैं.
जमीन के भाव बढ़ते ही जा रहे हैं. कभी ये पेड़ –पौधे घरों की शोभा हुआ करते थे. अब गाँवों में भी स्थिति बुरी होती जा रही है. अभाव के दौर में लकड़ी भी इतने महंगे होते जा रहे हैं कि गाँव के लोग भी खिड़की –कवाड़ी के लिए लोहा, स्टील या प्लाई का इस्तेमाल करने लगे हैं. अब तो गरीबों के घर में भी लकड़ी के फर्नीचर दुर्लभ-वस्तु बनते जा रहे हैं. समझ में नहीं आता कि आने वाली पीढ़ी साल, शीशम बरगद और पीपल के पेड़ सचमुच में देख भी पाएगी या फिर शहरीकरण के अंधी दौर में वह सिर्फ तस्वीरों से संतोष करके रह जाएगी? कितना दुर्भाग्यपूर्ण वह दिन होगा जब बच्चे ये पूछने को मजबूर हो जाएगें कि फल-फूल पेड़–पौधों से आते हैं कि फैक्टरी से? हंसी भी आती है खुद की बातों पर. लेकिन डर भी लगता है भविष्य की बातों से.
“मर साला मर” की तेज आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी. सिर घुमाकर देखा तो सामने सांवले रंग के एक युवक अपने तेवर में दिखा. सिर पर काली टोपी, और गले में माला और चैन गडमड थे. तैश में वह साथ की महिला पर चिल्ला रहा था– “ले, अब मर. कितनी बार कह चुका हूं. बस में सारे बच्चे लेकर मत चलाकर. साला किधर –किधर इस भीड़ में उसे खोजूं. पांच दफा तो आवाज लगा चुका… पर कमीना जो ठहरा – एक चूं की आवाज उससे देते नहीं बन रहा.”
एक चुप्पी के बाद, “ये साला बिहार देश नहीं सुधरेगा! देखो, दिल्ली, पंजाब और कलकत्ता में. कैसे लोग कायदे से रहते हैं? दिल्ली की बसों में इतनी भीड़ रहती है क्या? वहां दस–दस मिनट पर गाड़ी हैं, मेट्रो है. और यहां साला दो घंटे में एक मरियल–सी बस चें-पों करते हुए आवेगी और भूसे की तरह आदमी पर आदमी लाद कर ले जावेगी …. साला यहां का आदमी भी मुर्दा है. कभी कुछ नहीं बोलेगा… सिर्फ राजनीति करेगा…. इसको –उसको सबको प्रधानमंत्री बनावेगा बकिर बस सुविधा के लिए कोई नहीं बोलेगा. ट्रेन के लिए कोई नहीं बोलेगा?”
“चुप भी करिये. बस में क्यों तमाशा करते हैं?” – साथ की महिला उसे चुप कराने की गरज से कही. बच्चा बस में चढ़ गया था. आगे वाली सीट के पास ही खड़ा था. कंडक्टर से ही काहे नहीं पूछ लेते हैं कि लड़का वहां है कि नहीं?”
“साली, मैं कंडक्टर से पूछूँगा? तू खुद क्यूँ नहीं आगे जाकर देख आती है?”
“कितने जिद्दी आदमी हैं? मैं महिला होकर, इतने लोगों की कश्मकस भीड़ में अब आगे जाकर देखूं लेकिन मर्द होकर आप नहीं जावेंगें?” – चेहरे का भाव बदलते हुए गुस्से में महिला बोली.
“जादे फटर–फटर मत कर साली! तूझे अपने बेटे की नहीं पड़ी है तो मैं क्यूँ इस भीड़ में मरने जाऊँ?… तेरा बेटा है ..तू जान …”
“क्यों इतना शोर मचा रहे हो भाई? आपका बच्चा यहीं पर खड़ा है.” कंडक्टर की आवाज आई.
“मरने दे हरामखोर को. इतनी आवाज दे रहा हूं. साला एक जबाब तक नहीं देता है.”
“अब चुप करों भाई. पूरे बस को सिर पर उठा रखा है.” – कंडक्टर ने शांत कराने के गरज से उसे डपटा.
गुस्से से तमतमाकर युवक “साला मैं अपना बच्चा खोज रहा हूं और ये बस वाला कहता है– पूरे बस को सिर पर उठा रखा हूं. हद हो गई. कहां का न्याय है? मेरा बेटा भूला जाएगा तो ये बस वाला मुझे बेटा लाके देगा क्या? ….. अपनी औकात ही भूल जाता है?…. एक मरियल बस का कंडक्टर क्या बन गया, पता नहीं खुद को क्या समझने लगा है…. यही बात दिल्ली में बोलता तो इतनी मार पड़ती कि होश ठिकाने लग जाते…….”
“बस रोको बस” – कंडक्टर अचानक तैश में आते हुए बीच में ही बस रूकवाते हुए बोला – “उतरो जी … उतरो… दिल्लीवाली बस से ही जाना … बिहारवाली बस तुम जैसों के लिए नहीं है.”
और एक झटके के साथ बस सड़क पर खड़ी हो गई. अच्छा खासा तमाशा बन गया. गाली-गलौज सब हो गया. सिर्फ हाथ उठना बच गया. कंडक्टर हाथ भी चला बैठता यदि जो लोगों ने बचाव नहीं किया होता. कुछ लोग उसको नीचे उतरवाने पर तुले थे तो कुछ ने मानवता दिखलाते हुए कहा –”अरे भाई, माफ कर दो, कहां बीच जंगल में छोड़ोगे? बीबी –बच्चे साथ में हैं. बेगूसराय पहुंचा दो …. अभी नया नया शहर का हवा लगा है… समय के साथ अपने ठीक हो जाएगा.”
काफी मानमनौवल के बाद बस खुली. दो लोगों ने अपनी सीट भी छोड़ दी जिसमें वह युवक अपने बीबी–बच्चे के साथ बैठ गया. उसके बाद बस में सिर्फ हल्की कानाफूसी होती रही. बस चलती –रूकती बेगूसराय पहुँच गई और बस-स्टैंड में लोग सारी बातों को भूल अपने –अपने रास्ते चले गए.

सुशील कुमार भारद्वाज द्वारा लिखित

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