जिंदगी के कठोर सच, संघर्ष एवं मानवीय उम्मीदों पर गहराते अंधेरों को बेबाकी से बयाँ करतीं ‘तेज प्रताप नारायण‘ की कविताएँ ………| – संपादक
मेरी कविताएँ ही मेरा परिचय है
तेजप्रताप नारायण
मैं मेरा परिचय क्या दूँ
मेरी कविताएँ ही मेरा परिचय है
जो फुटपाथों ,झोंपड़ों ,गलियों और मोहल्लों में जाती हैं
विषमता और अन्याय के मठों पर ठोकरें मारती हैं
जो हर उस ओर जाती हैं
सोते हुए को जगाती हैं
जो श्रृंगार में रमती नहीं
साहित्यिक वादों से
जिनकी जमती नहीं
जो परंपरा को तोड़ती हैं
इंसानों को आपस में जोड़ती हैं
जो बाबरी के खिलाफ थी
तो दादरी के खिलाफ भी
जो गोधरा के खिलाफ थी
और मालदा के खिलाफ भी
मेरी कविताएं ही मेरा परिचय हैं
जो केंवल कल्पनाओं और कोमल भावों से ही नहीं
यथार्थ के कठोर धरातल से टकराती हैं
जो ईश्वर की आराधना में नहीं रत है
बल्कि उसको ललकारती हैं
इंसान को भीड़ बनने से रोकती हैं
मेरा परिचय मेरी कविताएं ही हैं
जो मेरे ज़िंदा होने का प्रमाण हैं
गलत तरीके से लिखे गए इतिहास के खिलाफ हैं
जाति वाद के खिलाफ हैं
वर्ण वाद के ख़िलाफ़ हैं
मानव गरिमा को क्षति पहुचाने वाले
हर वाद के खिलाफ हैं
हर उस इंसान के खिलाफ हैं
मेरी कविताएं ही मेरा परिचय हैं ।
हर्ज़ क्या है
मैं जानता हूँ
कि मैं जो चाहता हूँ
वह असंभव है
फिर भी सोचने में
हर्ज़ क्या है
कि एक बार चाँद को सूरज बना दें
आदमी को कुछ दिनों के लिए औरत बना दें
जो खूबसूरत नहीं है
उसे खूब सूरत बना दें
एक बार आधुनिक को आदिम बना दें
जनता को सरकारी मुलाज़िम बना दें
एक बार हक़ को फ़र्ज़ बना दें
स्वास्थ्य को मर्ज़ बना दें
सागर को बिंदु बना दे
दुश्मन को बंधु बना दें
मठ तोड़ दिए जाएँ सभी
पद छोड़ दिए जाएँ सभी
सारे बंधन तोड़ दिए जाए
मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्र छोड़ दिया जाए
सीमाएं खोल दी जाए
देश और राष्ट्र की बातें छोड़ दी जाए
जाति और धर्म मिटा दें
इंसान को सिर्फ इंसान बना दें
हर्ज़ क्या है
हर्ज़ क्या है ।
कविता नहीं इतिहास लिखता हूँ
मैं कविता नहीं वर्तमान का इतिहास लिखता हूँ
फोटो- सूरज दीप
केवल कल्पना नहीं यथार्थ लिखता हूँ
कपोल कल्पित कहानिया नहीं समाज लिखता हूँ
अलौकिक नहीं,लौकिक संसार लिखता हूँ
उबड़ -खाबड़ नहीं सपाट लिखता हूँ
बिना लाग लपेट के खरी बात लिखता हूँ
दिन को दिन और रात को रात लिखता हूँ
बार -बार, हर बार सही बात लिखता हूँ
मैं कविता नहीं इतिहास लिखता हूँ ।
तमाम उम्र
तमाम उम्र केवल फिक्र किया
ज़िन्दगी चाहती है क्या ,न उसका कभी जिक्र किया
ग़मों की दुनिया दिल में बसाते रहे
खुशियों के दिनों में न यकीन किया
हर वक़्त भागते रहे
पता न थी क्या चाह इस कदर जिसको चाहते रहे
मोहबतों के आशियाने पर नफरतों के साये पड़ते रहे
हम उनसे मिलने की खातिर ताज़िन्दगी सफ़र करते रहे
ज़रूरते पूरी न हुई ज़रूरत मंदों की
उधर कमी न हुई मस्ज़िद के लिए चंदों की
कुछ थे जो टूटे हुए आशियाने बनाते रहे
कुछ थे जो मंदिर और मस्ज़िद को तुड़वाते रहे
यह सच है कि मंज़िले न मिल पायी अब तक
बावज़ूद इसके उन रास्तों पर चलते रहे
थोड़ी सी मोहब्बत और इज़्ज़त की खातिर
नागवार और बेज़ा बातें भी सहते रहे
कुछ बिकाऊ थे उनकी बात भी दीगर
तराशे हीरे भी बाज़ारू होकर बिकते रहे
कुछ बातें बताना भी मुश्किल और छुपाना भी मुश्किल
इस आंड़ में वह नागवार हरकते रहे
कुछ बातों से पर्दा न हटे तो बेहतर होता है
ये समझ हम जान बूझ नासमझी करते रहे ।