परसाई की प्रासंगिकता और जाने भी दो यारो: आलेख (‘प्रो0 विजय शर्मा’)

सिनेमा सिने-चर्चा

विजय शर्मा 2283 11/18/2018 12:00:00 AM

“हमारा देश अजीब प्रगति के पथ पर है। मूल्य से मूल्यहीनता और आदर्श से स्वार्थपरता की ओर, नैतिकता से अनैतिकता की ओर बड़ी तेजी से दौड़ लगा रहा है। परसाई की दृष्टि इस पर शुरु से अंत तक रही। ‘जाने भी दो यारों’ का श्याम हास्य (ब्लैक ह्यूमर) भारतीय राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया, व्यापार लोगों को हँसने पर मजबूर करता है साथ ही करुणा जगाता है। परसाई के पास सूक्ष्म आलोचना दृष्टि है। वे पुलिस-प्रशासन तंत्र की गिरी हुई छवि को निशाना बनाते हैं। ‘मातादीन चाँद पर’ का मातादीन चाँद की पुलिस को सभ्यता-संस्कृति का पाठ पढ़ाने जाता है। चाँद की पुलिस को भ्रष्टाचार के सारे पाठ पढ़ा कर एसपी की घरवाली के लिए एड़ी चमकाने का पत्थर चाँद से लाता है।”

हरिशंकर परसाई की रचनाओं की फ़िल्मी प्रासंगिकता पर चर्चा करा रही हैं ‘प्रो0 विजय शर्मा’ फिल्म जाने भी दो यारो के संदर्भ में |

परसाई की प्रासंगिकता और जाने भी दो यारो 

विजय शर्मा

कुछ दिन पहले १९८३ में बनी कुंदन शाह की पहली फ़िल्म ‘जाने भी दो यारों’ देख रही थी। आज इसका डिजिटल संस्करण उपलब्ध है। पूरी फ़िल्म देखने के दौरान मुझे हरीशंकर परसाई याद आते रहे। यह फ़िल्म कालाबाजारी, रियल इस्टेट, सत्ता-प्रशासन के भ्रष्टाचार की पोल-पट्टी खोलने वाली फ़िल्म है। और परसाई भी यही सब अपने लेखन द्वारा उजागर कर रहे हैं। उन्होंने बरसों पहले भ्रष्टाचार, लालच, महत्वाकांक्षाओं के रोग को पहचान लिया था। वे सामाजिक विसंगतियों के अनोखे चितेरे हैं। उनके यहाँ हास्य-व्यंग्य अंत में कारुणिक, त्रासद हो उठता है। गजब की नाटकीयता है उनके लेखन में। लेखन और फ़िल्म के लिए भष्टाचार एक टिकाऊ विषय है। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन करने वाले ही भ्रष्टाचार में लिप्त हैं। पवित्रता का ढ़ोंग करने वालों की कमी नहीं है। ईमानदार की बोलती अक्सर बंद रहती है।

‘जाने भी दो यारों’ में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ आंदोलन करने वाला मीडिया – ‘खबरदार’ अखबार की एडीटर शोभा सेन (भक्ति बर्वे) खुद बिल्डर तरनेजा को ब्लैकमेल करने के चक्कर में है। वह पवित्रता का ढ़ोंग करती है लेकिन अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दो मासूम युवकों का दोहन करती है। दोनो युवक, विनोद चोपड़ा (नसीरुद्दीन शाह) और सुधीर मिश्रा (रवि बासवानी) प्रशिक्षित फ़ोटोग्राफ़र हैं और अपना स्टूडियो खोल कर रोजी-रोटी कमाना चाहते हैं। उनका तकिया कलाम है, “इस शहर के सबसे ब्यूटीफ़ुल ‘ब्यूटी फ़ोटो स्टूडियो’ के ५०% मालिक विनोद-सुधीर आपका स्वागत करते हैं।” उन्होंने यह स्टूडियो उधार ले कर खोला है। उन्हें उम्मीद है कि कड़ी मेहनत और ईमानदारी से वे जल्द ही यह रकम चुका देंगे। सदा एक दूसरे को ढ़ाढ़स बँधाते रहते हैं। मासूम इतने हैं कि कभी निराश नहीं होते हैं और गाते हैं, “हम होंगे कामयाब…” दोनों शोभा के लिए काम करने लगते हैं और फ़िल्म बंबई (आज की मुंबई) के बिल्डर, कमीश्नर तथा मीडिया के भ्रष्टाचार की परत-दर-परत खोलती जाती है। होता है यह सब संयोग से, उनके अनजाने में।

२२ अगस्त १९२४ (कहीं-कहीं यह १९२२ है) में होशंगाबाद में जन्में परसाई ने बीसवीं सदी के पचासवें दशक में लिखना प्रारंभ किया और आज इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी उनका लेखन उतना ही अर्थपूर्ण है, उतना ही आँख खोलने वाला है। ‘जाने भी दो यारों’ बीसवीं सदी के आठवें दशक में बनी फ़िल्म है और यह आज भी हमारे समाज के भ्रष्टाचार की पोल खोलती है। यह बात दीगर है कि आज भ्रष्टाचार का चेहरा और अधिक भयावना, और अधिक शातिर हो गया है।

आजादी के एक दशक के भीतर देश में भ्रष्टाचार व्याप्त था। असल में यह कहीं गया ही नहीं था। स्वातंत्र्योत्तर भारत की जनता का मोहभंग हो चुका था। इस भ्रष्ट समाज पर कदाचित लेखनी चलाने वाले परसाई पहले लेखक हैं। जब १९८३ में ‘जाने भी दो यारों’ बनी आवारा पूंजी, भूमंडलीकरण, बाजारवाद हवा में तैर रहे थे, उतने ठोस न थे, उनकी धमक सुनाई पड़ने लगी थी। आज की तरह पूरे समाज को इन्होंने निगला नहीं था। परसाई के लेखन का केंद्र भ्रष्टाचार है और यह फ़िल्म भी भष्टाचार की पोल खोलती है। भ्रष्टाचार पर परसाई के सैंकड़ो लेख उपलब्ध हैं। ‘मातादीन चाँद पर’, ‘अकाल में उत्सव’, ‘उद्घाटन शिलान्यास’, ‘वैष्णव की फ़िसलन’, ‘सदाचार का ताबीज’, ‘भेड़ और भेंड़िए’ और न जाने कितनी रचनाओं का नाम आसानी से लिया जा सकता है।

‘जाने भी दो यारों’ के दोनों युवक ईमानदारी और मासूमियत से अपना स्टूडियो खोलते हैं। लेकिन होता क्या है? पहले ही दिन उद्घाटन के लिए सजाई उनकी मेज किसी अन्य के द्वारा योजना बना कर मटियामेट कर दी जाती है। सारी चाल शोभा सेन की है जो उसी समय एक झूठ-मूठ के स्टूडियो ‘सुपर फ़ोटो स्टूडियो’ का उद्घाटन करवाती है। उसका इरादा दोनों फ़ोटोग्राफ़र को अपने यहाँ रखने का है। वह उनका भावात्मक दोहन करती है। वेतन के नाम पर भी वह उन्हें ठगती है, बेचारों को केले खा कर गुजारा करना पड़ता है। ‘सिद्धांतों की व्यर्थता’ में परसाई लिखते हैं, “हमारे देश में सबसे आसान काम आदर्शवाद बघारना है और फिर घटिया से घटिया उपयोगितावादी की तरह व्यवहार करना है।” शोभा दोनों के सामने अपना आदर्शवाद झाड़ती है और उन्हें उल्लू बनाए रखती है। फ़िल्म में एक वाक्य है, “हर सफ़लता के पीछे अपराध होता है।” यह है आज की सफ़लता की कुंजी और परिभाषा। ऐसे में ईमानदार व्यक्ति का गुजारा कहाँ है। तब क्या वह उम्मीद छोड़ दे? विनोद और सुधीर उम्मीद नहीं छोड़ते हैं।

हमारा देश अजीब प्रगति के पथ पर है। मूल्य से मूल्यहीनता और आदर्श से स्वार्थपरता की ओर, नैतिकता से अनैतिकता की ओर बड़ी तेजी से दौड़ लगा रहा है। परसाई की दृष्टि इस पर शुरु से अंत तक रही। ‘जाने भी दो यारों’ का श्याम हास्य (ब्लैक ह्यूमर) भारतीय राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया, व्यापार लोगों को हँसने पर मजबूर करता है साथ ही करुणा जगाता है। परसाई के पास सूक्ष्म आलोचना दृष्टि है। वे पुलिस-प्रशासन तंत्र की गिरी हुई छवि को निशाना बनाते हैं। ‘मातादीन चाँद पर’ का मातादीन चाँद की पुलिस को सभ्यता-संस्कृति का पाठ पढ़ाने जाता है। चाँद की पुलिस को भ्रष्टाचार के सारे पाठ पढ़ा कर एसपी की घरवाली के लिए एड़ी चमकाने का पत्थर चाँद से लाता है।

पूँजीपतियों के लिए मुख्य है मुनाफ़ा। इनके लिए मनुष्य महत्वपूर्ण नहीं है, अपनी पूँजी को दुगुना-चौगुना करना उनका ध्येय होता है। इनके लिए स्वार्थ सिद्धि और भौतिक समृद्धि ही प्रमुख है इसके लिए वे मानवीय मूल्यों को ताक पर रख कर कुछ भी कर सकते हैं। पैसे वाला, स्वार्थी वर्ग मूल्यहीनता को बढ़ावा देता है। इसी के नमूने हैं, निर्दयी तरनेजा (पंकज कपूर), पियक्कड़ आहूजा (ओम पुरी)। ‘तरनेजा टावर’, फ़्लाई ओवर, मल्टी स्टोरी बिल्डिंग, पुल बनाने वाला तरनेजा बेशर्म हो कर कहता है, “बिजनेस का एक ही मतलब होता है, दूसरे का नुकसान और अपना फ़ायदा।” वह पुलिस कमीश्नार को अपनी मुट्ठी में रखता है। अपने पैसे के मद में चूर उसके अनुसार, “कानून आम आदमी के लिए है, तरनेजा के लिए नहीं।” अखबार के लिए उसका कहना है, “इन लोगों को बंगाल की खाड़ी या अरब सागर में डुबो देना चाहिए।” दूसरों की जमीन, झोपड़पट्टियों सब वह हड़पना चाहता है, यहाँ तक कि अपने मुनाफ़े के लिए उसकी निगाह कब्रिस्तान तक को नहीं छोड़ती है।

तरनेजा और उसके सहायक – अशोक (सतीश कौशिक) तथा प्रिया (नीना गुप्ता) अपना कॉन्ट्रैक्ट पाने के लिए लालची कमीश्नर डी’मेलो (सतीश शाह) को नगद घूस, जमीन और स्विस चोको केक देते हैं। इनका मोटो है, “थोड़ा खाओ, थोड़ा फ़ेंको।” तरनेजा इसी डी’मेलो की हत्या करता है जिसकी फ़ोटो अनजाने में विनोद के कैमरे में आ जाती है। नया कमीश्नर श्रीवास्तव (दीपक काजिर) और तरनेजा नए पुल का नाम डी’मेलो रख कर उसका उद्घाटन करते हैं। इस अवसर पर नए कमीश्नर की ‘गटर’ पर दी गई स्पीच गौर करने लायक है। वह कहता है, “किसी देश की उन्नति की पहचान अगर किसी चीज से होती है तो वो है गटर। वो (डी’मेलो) गटर के लिए जीए और गटर के लिए मरे। मरते हुए उनके आखरी शब्द थे गटर।” लोग उसके हर वाक्य पर ताली बजाते हैं। मुझे यहाँ परसाई का ‘शर्म की बात पर ताली पीटना’ लेख याद आ रहा था जिसमें वे लिखते हैं, “जब मैं ऐसी बात करता हूँ जिस पर शर्म आनी चाहिए, तब उस पर लोग हँसकर ताली पीटने लगते हैं।… मैंने मुनियों और विद्वानों का आभार माना और अंत में कहा – ‘एक बात मैं आपके सामने स्वीकार करना चाहता हूँ। मैंने और आपने तीन घंटे ऊँचे आदर्शों की, सदाचरण की, प्रेम की, दया की बातें सुनीं। पर मैं आपके सामने साफ कहता हूँ कि तीन घंटे पहले जितना कमीना और बेईमान मैं था, उतना ही अब भी हूँ। मेरी मैंने कह दी। आप लोगों की आप लोग जानें।’

‘इस पर भी क्या हुआ – हँसी खूब हुई और तालियाँ पिटीं।

harishankar-parsai1

उन्हें मजा आया।”

परसाई इसके आगे जो लिखते हैं वह विचारणीय है। वे लिखते हैं, “मैं इन समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूँ, तो सोचता रहता हूँ कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हँसें और ताली पीटें, उसमें क्या कभी कोई क्रांतिकारी हो सकता है?”

फ़िल्म तो फ़िल्म है। ‘जाने भी दो यारों’ में विनोद-सुधीर डी’मेलो का शव उठा कर पुलिस को देना चाहते हैं। खूब भागम-भाग होती है। बुरका, महाभारत की पोशाक पहन कर कमीश्नर का शव, तरनेजा, आहूजा, शोभा, विनोद-सुधीर सब खूब तमाशा करते हैं। सिने दर्शक ताली बजा कर खुश होता है। इस सीन के संवाद लिखने को ले कर फ़िल्म बनाने वाले खासे परेशान थे। लेकिन उन्हें रंजीत कपूर ने उबारा। उन्होंने फ़ुटपाथ से द्रौपदी चीरहरण की एक किताब खरीदी और उसी के आधार पर सतीश कौशिक तथा रंजीत कपूर ने मिल कर इसके संवाद लिखे। यह दृश्य और इसके संवाद हिन्दी फ़िल्म में बेजोड़ हैं। गंदी-भ्रष्ट राजनीति, माफ़िया को अपने अनूठे तरीके से दिखाने वाली यह फ़िल्म मनोरंजन के साथ-साथ संदेश देती है। क्लाइमेक्स सीन सबसे लोकप्रिय हुआ। इस क्लाइमैक्स सीन के कुछ डॉयलॉग देखिए:

“शांत गदाधारी भीम शांत।”

“नहीं, द्रौपदी जैसी सती नारी को देख कर मैंने चीर हरण का आइडिया ड्रॉप कर दिया है। जै हो, ऐसी सती नारी की जै हो।”

“ये सब क्या हो रहा है।” (यह वाक्य धृतराष्ट्र कई बार कहता है)

“द्रौपदी तेरे अकेले की नहीं है। हम सब शेयरहोल्डर हैं।”

“मगर बड़े भाई के वचन की आज्ञा का पालन करना ही पड़ेगा

आहूजा: क्यो?

अबे नाटक में ऐसा लिखा है।

आहूजा: पालन तो हमने कभी अपने बाप की आज्ञा का नहीं किया। तू चीज क्या है?”

“धनुष तोड़ दिया। तीन रुपए का नुकसान कर दिया। मैं नहीं करता नाटक वाटक। भाड़ में जाओ तुम सब।”

“नालायक, अधर्मी, दुराचारी. वामाचारी, भ्रष्टाचारी, बोल सॉरी! अपने ससुर को नहीं पहचानता? मैं हूँ द्रौपदी का बाप, द्रुपद।”

“दिस इज टू मच, ये अकबर कहाँ से आ गया?”

पूरे समय कमीश्नर का मुर्दा सजीव है। किसी फ़िल्म में मुर्दा इस तरह न तो मंच पर इतनी देर रहता है और न ही इतना अभिनय करता है। भ्रष्ट-लालची आदमी के मुर्दे को भी समाज ढ़ोए चला जा रहा है। मुर्दा संवाद नहीं बोलता है लेकिन विभिन्न फ़नी मुद्राएँ बनाता है। मुर्दे को बेहतरीन सीन में शामिल किया गया है। यह मुर्दा स्केटिंग करता है, कार चलाता है। गदा पाक्ड़ता है, हँसा-हँसा कर महत्वपूर्ण संदेश देता है। मोस्ट एनीमेटेड मुर्दा। इसी किरदार के आस-पास पूरी फ़िल्म घूमती है।

भ्रष्टाचार का एक छोटा आलम इस फ़िल्म में है। लोग शराब पी कर रात को आवारागर्दी न करें। विडंबना है कि इसकी ड्यूटी निभाने वाला कान्सटेबल खुद शराब पीए हुए हैं और लोगों से पैसे छीन कर अपना डंडा दिखाते हुए उन्हें भगाता है। विडम्बना है कि शूटिंग के दौरान लाइटिंग इस्तेमाल करने के लिए इन लोगों के पास जेनरेटर नहीं था, तो ये बिजली चोरी करते थे। ज़रा सोचिए कितना विरोधाभास है। फिल्म में ये भ्रष्टाचार पर कटाक्ष करते हैं और इसी फ़िल्म की शूटिंग के लिए इन्हें बिजली चोरी करनी पड़ती है।

परसाई ने बहुत सारे लेखकों को प्रेरणा दी वे एक पूरे युग को प्रभावित कर सके तो यह उनकी लेखनी का कमाल है। पाखंड का पर्दाफ़ाश करने वाले परसाई की तरह ही यह फ़िल्म भी समाज में चल रहे पाखंड का पर्दाफ़ाश करती है। परसाई के यहाँ व्यंग्य है, विशुद्ध व्यंग्य है। हास्य की बैसाखी पर सवार व्यंग्य नहीं। अपने बल पर खड़ा मारक व्यंग्य जो करुणा में प्रसवित होता है। इस फ़िल्म में भी फ़ूहड़ हास्य कहीं नहीं है। हास्य है, शुद्ध शाकाहारी हास्य है। आज इतने साल बाद भी हमारे समाज का वक्त बदला है लेकिन विसंगतियाँ बिल्कुल नहीं बदली हैं, वरन और मारक और कारुणिक और व्यापक हो गई हैं।

जैसे अभिनय के क्षेत्र में नसीर, सतीश, पंकज कपूर ने आगे चल कर झंडे गाड़े, जैसे ‘जाने भी दो यारों’ आज भी मारक है, वैसे ही परसाई का व्यंग्य समय के साथ सींझता हुआ आज और मानीखेज हो गया है। फ़िल्म के अंत में महाभारत के मंच पर हो हल्ला-तमाशा होता है। महाभारत और फ़िल्म दोनों के दर्शक का भरपूर मनोरंजन होता है। तब कहाँ मालूम था मात्र छ:-सात लाख के बजट में एनएफ़डीसी के सहयोग से बनी यह फ़िल्म इतनी सफ़ल और कालजयी होगी। पूरी फ़िल्म पर कई बार परसाई का यह वाक्य सटीक उतरता है, “लाभ जब थूकता है तो हथेली पर लेना पड़ता है।” परसाई के लेखन की तरह यह फ़िल्म सहजता और सर्वोच्चता का उदाहरण है। देश में फ़ैले भ्रष्टाचार का मखौल उड़ाती, व्यंग्य की अंतरधारा से सराबोर इस साफ़-सुथरी फ़िल्म की सफ़लता का एक और कारण है, विनोद प्रधान की सिनेमाटोग्राफ़ी तथा रेणु सलूजा का संपादन। हिन्दी फ़िल्में दुनिया में अपने गानों के लिए जानी जाती हैं। कहा जाता है कि यदि गाने नहीं होंने तो फ़िल्म पिट जाएगी मगर इस पूरी फ़िल्म में कोई गाना नहीं है। हाँ, वनराज भाटिया का पार्श्व संगीत फ़िल्म के मूड को और अधिक तीव्र कर देता है। बिना गानों की यह फ़िल्म आज भी दर्शकों के सिर चढ़ कर बोल रही है।

परसाई एक साक्षात्कार में कहते हैं, “कहानी की भाषा जनता की भाषा होनी चाहिए। रोजमर्रा की जिंदगी से उठाई गई सरल भाषा का महत्व सभी स्वीकार करते हैं। कम शब्दों में अपनी बात कहना बड़ी बात है। छोटे-छोटे वाक्यों से भाषा बहुत सजीव बनती है। शब्द स्वाभाविक रूप से अपने अर्थ की अभिधा और व्यंजना को व्यक्त करते हैं। भाषा तब प्राणवान हो जाती है जब कथ्य उस भाषा में घुल मिल जाता है, ऐसी भाषा समर्थ ही नहीं बहुत सार्थक भी होती है। जिस समाज में हम रहते हैं वही हमें भाषा भी सिखाता है।” अगर इस फ़िल्म की भाषा पर विचार करें तो यह परसाई के भाषा संबंधी विचारों का अनुमोदन करती नजर आती है। समाज पर कटाक्ष करती यह फ़िल्म मात्र ३५ दिन में बनी। सामाजिक व्यंग्य, कल्ट फ़िल्म, अनोखी, बेमिसाल ऐसा इतिहास रचा कि ‘जाने भी दो यारों’ का क्रेज आज भी चालू है।

सरकारी नौकरी छोड़ कर लिखने के लिए समर्पित परसाई लिखने के साथ-साथ खूब पढ़ते भी थे। चेखव, मोपासाँ, ओ हेनरी, प्रेमचंद, मार्क ट्वेन, डिकेंस, कबीर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, भारतेंदु हरिश्चंद्र, यशपाल, जैनेण्द्र, भीष्म साहनी, विष्णु प्रभाकार आदि उनके मनपसंद लेखक हैं। इतना लिखने के बाद भी वे मानते हैं कि समाज परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत जटिल है, यह केवल लेखन से नहीं होती है। उन्हें कोई मुगालता नहीं था कि वे लिख कर कोई परिवर्तन कर डालेंगे, कोई सुधार कर देंगे।

हरीशंकर परसाई ने निबंध, कहानी, उपन्यास, संस्मरण, स्तंभ कई विधाओं में लिखा। १० अगस्त १९९५ को उनका देहावसान हुआ। ‘परिवर्तन’ पत्रिका के स्तंभ ‘अरस्तु की चिट्ठी’ में वे लिखते हैं, “आयुष्मान, तुम घूस, चोरी, भ्रष्टाचार नहीं रोक सकते। तुम अपने पसीने और खून की कमाई देते जाते हो और ये लोग उसे पचाते जाते हैं। और तुम सहते हो। तुम सहते हो क्योंकि तुम अपने प्रधानमंत्री की अदा पर मरते हो।” क्या परसाई की ये पंक्तियाँ आज और अधिक मानीखेज और अधिक मारक नहीं हो गई हैं? परसाई का लेखन कालातीत है, इसीलिए आज भी प्रासंगिक है और आगे भी रहेगा।

विजय शर्मा द्वारा लिखित

विजय शर्मा बायोग्राफी !

नाम : विजय शर्मा
निक नाम :
ईमेल आईडी :
फॉलो करे :
ऑथर के बारे में :

अपनी टिप्पणी पोस्ट करें -

एडमिन द्वारा पुस्टि करने बाद ही कमेंट को पब्लिश किया जायेगा !

पोस्ट की गई टिप्पणी -

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

हमरंग पूर्णतः अव्यावसायिक एवं अवैतनिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक साझा प्रयास है | हमरंग पर प्रकाशित किसी भी रचना, लेख-आलेख में प्रयुक्त भाव व् विचार लेखक के खुद के विचार हैं, उन भाव या विचारों से हमरंग या हमरंग टीम का सहमत होना अनिवार्य नहीं है । हमरंग जन-सहयोग से संचालित साझा प्रयास है, अतः आप रचनात्मक सहयोग, और आर्थिक सहयोग कर हमरंग को प्राणवायु दे सकते हैं | आर्थिक सहयोग करें -
Humrang
A/c- 158505000774
IFSC: - ICIC0001585

सम्पर्क सूत्र

हमरंग डॉट कॉम - ISSN-NO. - 2455-2011
संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
हाइब्रिड पब्लिक स्कूल, तैयबपुर रोड,
निकट - ढहरुआ रेलवे क्रासिंग यमुनापार,
मथुरा, उत्तर प्रदेश , इंडिया 281001
info@humrang.com
07417177177 , 07417661666
http://www.humrang.com/
Follow on
Copyright © 2014 - 2018 All rights reserved.