किसने बिगाड़ा मुझे: आत्मकथ्य (डा० विजय शर्मा)

बहुरंग संस्मरण

विजय शर्मा 750 11/18/2018 12:00:00 AM

यूं तो इंसानी व्यक्तित्व के बनने बिगड़ने में हमारे सामाजिक परिवेश की बड़ी भूमिका होती है किन्तु इस बिगड़ने “इंसान बनने” के लिए सामाजिक असमानताओं और विषमताओं के खिलाफ मन में उठते सवालों को न मार कर उनके जबाव खोजने को जैविक संघर्ष की महत्वपूर्ण भूमिका को दरकिनार नहीं किया जा सकता | मसलन यह बिगड़ना इतना आसान भी खान है कि हर कोई बिगड़ सके …… नहीं तो खुद ही पढ़ लीजिये ‘डा० विजय शर्मा’ के बिगड़ने “इंसान बनने” की कथा …..| – संपादक

किसने बिगाड़ा मुझे तीसमार खाँ: कहानी (डा० विजय शर्मा)

आपने अच्छी पूछी, किसने बिगाड़ा मुझे? अरे जो जन्म के पहले से ही बिगड़ी हो उसे कोई क्या बिगाड़ेगा? असल में मुझे बनाने वाले ने ठीक से नहीं बनाया। जब बनाने वाले ने ठीक से नहीं बनाया तो बाद में बिगड़ने का क्या रोना? बनाने वाला यदि ठीक बनाना चाहता, बिगाड़ना न चाहता तो उसका क्या बिगड़ जाता? अगर थोड़ा-सा साफ़ रंग दे देता, गोरा रंग न भी देता, चलता। उसने बिगड़ा हुआ ही बनाया था। रंग तो दिया पर उल्टा दे दिया। दादी उल्टा तवा कहती थीं। नाक-नक्श भी कोई खास न दिए। और-तो-और आँखें शुरु से बिगाड़ दीं। बाद में कम रोशनी में रात-रात भर पढ़ कर मैंने खुद थोड़ी और बिगाड़ लीं। दाँत भीतर को घुसे हुए थे। ठप्पा लगा बड़ी भितरघुन्नी है। दाँत अमरूद खा-खा कर ठीक कर लिए। अगर आपके दाँत खराब हों, भीतर घुसे हुए हों तो आप भी यह नुस्खा आजमाएँ। शर्तिया फ़ायदा होगा। बनाने वाले को बिगाड़ना न होता तो लड़का न बना देता ताकि माताजी को न सुनना पड़ता, “हमारे खानदान में पहलौटी में किसी को लड़की नहीं हुई। तेरे खानदान में ही कोई खोट रही होगी। तभी तूने पहलौटी में बेटी जनी है।”

जन्म के बाद किसी एक ने बिगाड़ा हो तो गिनाऊँ। जिन लोगों ने बिगाड़ा उनमें सबसे पहले मेरे बाबा थे। मेरे पैदा होने पर लड्डू बाँटने वाले। शेरो-शायरी कहना-सुनना, किताबें पढ़ना, नाटक-नौटंकी देखना। मूर्ति पूजा-पाठ, व्रत-उपवास स्वयं न करना, दूसरों को न करने की सलाह देना। सारे गलत कामों का चस्का लगा दिया उन्होंने मुझे। शेरों-शायरी के शौकीन बाबा मेरी दादी के डर से रेडियो कान में लगा कर रात को मुशायरा सुनते। उन दिनों ट्रांजिस्टर का चलन न था, घर में टीवी का नामोंनिशान न था। सो वे रात को मुशायरा सुनते और सिर हिलाते जाते। सहजनवाँ, गोरखपुर में उनकी पंचायत (वे अपने हाथ से लगाए आम के पेड़ के नीचे खाट या तखत डाल कर दो-चार लोगों के साथ बैठते थे, दादी इसे ही उनकी पंचायत कहती थीं) में बात-बात पर शेर कहे-सुने जाते थे। दरवाजे के पीछे खड़ी मैं उन्हें सुनती रहती। एक जमाने में मुझे भी ढ़ेरों शेर याद थे, एकाध खुद भी लिख लेती थी।

बाबा नाटकों-नौटंकी के भी शौकीन थे। बाबा के लिए ऐसे फ़िजूल के कामों के लिए दादी से पैसे निकलवा पाना खासा कठिन काम हुआ करता था। पता चला गोरखपुर में ‘अनारकली’ नाटक आया है। मुझे और मुझसे साढ़े तीन साल बड़े मेरे चाचा को ले कर चल दिए। सो बहुत छोटी-सी उम्र में मैंने अपना पहला नाटक देखा। वह भी ‘अनारकली’। लौटने पर दादी को पता चला तो बाबा पर खूब बिगड़ीं, “पंडत जी, तुम्हें बिगड़ना है तो बिगड़ो, बालकन को च्यौं बिगाड़ रहे हो? और कुछ नहीं, गए और पानी में पैसा डार आए।” उनके लिए नाटक-नौटंकी देखना पैसा पानी में डालना ही था। इस नाटक ने मेरे बालमन पर बहुत असर डाला। खासकर उस दृश्य में जब अनारकली को बेचा जा रहा था। एक मुच्छड़ आदमी हाथ में पकड़ा चाबुक जोर-जोर से फ़टकार रहा था और लड़कियों को बेचने के लिए बोली लगा रहा था। अनारकली को बेचते समय उसने हंटर खासतौर से बहुत जोर-जोर से फ़टकारा था। बहुत दिन तक वह हंटर मुझे थर्राता रहा। आज भी सिहरन पैदा करता है। बाद में बिना हंटर के भी स्त्री दुर्दशा खूब देखी।

बाबा से मिली राहुल सांस्कृयायन की ‘वोल्गा से गंगा’। जिसने मेरे लिए एक अलग संसार खोल दिया। बाबा कहा करते, “घूमो, खूब घूमो, जवानी में घूमो। बुढ़ापे में क्या घूमेगी, जब कमर और घुटने दरद करने लगेंगे।” सो खूब घूमना हुआ। बाद में खोज-खोज कर यात्रा वृतांत पढ़े। राहुल की ‘घुमक्कड़ स्वामी’ आज भी बहुत अच्छी लगती है। राहुल जी के विपुल वांग्मय में ‘घुमक्कड़ स्वामी’ अत्यंत छोटी-सी पुस्तिका है, कलेवर की दृष्टि से, पर, आकार लघु होने से इसका महत्व कम नहीं हो जाता है। रवींद्रनाथ टैगोर का कहना है कि पुस्तक का आकार देख कर उसका मूल्य नहीं आँक जा सकता है। स्वामी तपोवन महाराज जी का ‘वांडरिंग्स इन द हिमालयाज’ पढ़ी। दोनों किताबों ने हिमालय के प्रति आकर्षण बढ़ाने में योगदान किया। मौका मिलते ही गंगोत्री तक हो आई। वहीं हिमालय, गंगा, आकाश, धरती, पवन सबको साक्षी मान कर शादी रचाई।

माताजी को जासूसी उपन्यास पढ़ने-सुनने का शौक था। हमारी साझेदारी होती। कभी मैं पढ़ती वे सुनती, कभी वे पढ़तीं मैं सुनती। छिप कर, सोने का बहाना करके, नक्क्ल गाछ के सिल्विया-नानावती केस की पूरी खबरें सुनीं (पिताजी रोज अंग्रेजी अखबार से पढ़ कर माताजी-मौसी को तर्जुमा करके सुनते थे)।

दूसरा व्यक्ति जिसने मुझे बिगाड़ा, उसे मैंने देखा नहीं। क्योंकि मेरे पैदा होने के काफ़ी पहले उनकी मृत्यु हो चुकी थी। ये मेरी माँ की माँ यानी मेरी नानी थीं। नानी को मैंने देखा नहीं, माताजी जब केवल ग्यारह वर्ष की थीं तभी उनकी माँ हैजे से मर गई थीं। नानाजी के घर बनारस से माताजी नानी की एक बोरी उठा लाई थीं। यह बोरी मेरे लिए एक बड़ा रहस्य और खजाना थी। इस बोरी का मैंने घर के बड़ों से छिपा कर भरपूर उपयोग किया। इस बोरी में कुछ किताबें थीं और थीं ढ़ेर सारी चिट्ठियाँ। चिट्ठियों की बात फ़िर कभी। नानी की इस बोरी में था कालीदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलं’ नाटक का राजा लक्ष्मण प्रसाद का किया हिन्दी अनुवाद। और थे देवकीनंदन के तिलस्मी उपन्यास तथा ‘पाक चंद्रिका’। इसके पहले छिपा कर पिताजी की छोटी-सी लाइब्रेरी से ‘एक अंजान औरत का खत’ (स्टीफ़न स्वाइग के ‘लेटर फ़्रॉम एन अन्नॉन वूमन’ का हिन्दी अनुवाद) पढ़ चुकी थी। यही मेरी पहली किताब थी जिसे मैंने बचपन में ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के अलावा पढ़ा था। पढ़ कर कुछ समझी, कुछ नहीं समझी। सात-आठ बरस की बच्ची को यह कितना समझ में आता। वह भी छिपा कर टुकड़ों-टुकड़ों में पढ़ने पर। तिलस्म का सिलसिला चला तो देवकीनंदन खत्री को चाट डाला। कर्नल रंजीत, गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत खूब मजा देते। मेरी साहित्यिक समझ और रूचि विकसित करने में ‘धर्मयुग’ का महत्वपूर्ण हाथ है।

कृष्ण चन्दर का ‘बंबई रात की बाहों में’, शरत का लगभग सारा साहित्य, प्रेमचंद सब एक सांस में पढ़े। शरत का ‘श्रीकांत’ और धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता’ कई लोगों को उपहार में दिए। फ़िर जब यूरोपियन साहित्य का अनुवाद पढ़ने की धुन लगी तो ‘टॉम काका की कुटिया’, ‘राजदूत’ (लेखक का नाम याद नहीं पर उसका एक दृश्य अब भी याद है, जब नायक एक बड़ी नाव से समुद्र में जा रहा है तो उसे समुद्र की सतह पर कुछ चिकना पदार्थ तैरता नजर आता है, वह इस ज्वलनशील पदार्थ से खुद को बचाने का प्रयास करता है, उसे पढ़ते हुए जो रोमांच हुआ था वह अब भी याद है।) गोर्की की ‘माँ’ पढ़ कर रूस की तत्कालीन स्थिति पता चली। इस किताब की ताकत का अन्दाजा इसी एक बात से लगाया जा सकता है, मैं जितनी पढ़ाकू (स्कूली किताबों के संदर्भ में नहीं), मुझसे बाद वाली बहन किताबों से उतनी ही दूर। उसे मैंने जबरदस्ती ‘माँ’ शुरु करवा दी। कोई आश्चर्य नहीं कि उसने पूरी किताब पढ़ी। काफ़ी समय तक उसने केवल वही एक किताब पढ़ी। रशियन किताबें अनुवाद रूप में उन दिनों खूब उपलब्ध होती थीं, सस्ती भी होती थीं सो वह भी खूब पढ़ा। ‘मेरा बचपन’, ‘मेरे विश्वविद्यालय’, चेखव की कहानियाँ-नाटक, टॉल्सटॉय पढ़ा गया।

शिवानी की कृष्णवर्णी नायिका खूब लुभाती। उसके संग पर्वतीय क्षेत्र और मद्रास की सैर की। यशपाल पढ़ कर देशप्रेम ने खूब जोर मारा। ‘झूठा-सच’ पढ़ कर विभाजन की त्रासदी ज्ञात हुई। कुछ दिन बाद इसी लेखक की इसी नाम की एक और किताब हाथ लगी। उसे पढ़ कर पता चला कि जो पहले पढ़ा था वह संक्षिप्त छात्र संस्करण था। छात्रों को क्या पढ़ना है और क्या नहीं, पता नहीं यह सब कौन अनपढ़ लोग तय करते हैं। सोच लिया अब भविष्य में किसी किताब का संक्षिप्त संस्करण नहीं पढ़ना है। पीत-पुस्तकें भी पढ़ीं पर जल्द ही ऊब होने लगी। साहित्य की लत लग गई थी, यह भला क्यों रुचता।

एक और लेखक थे गुरुदत्त। व्यक्ति पर परिवार और समाज के आर्थिक दबाव का चित्रण करने वाले। ससुर-बहु के रिश्तों की कलई खोलने वाले। आस-पास मैं स्वयं ऐसे रिश्ते देख रही थी। बच्चन की जीवनी का प्रथम खंड ‘क्या भूलूँ, क्या याद करूँ’ शाम से शुरु करके रात भर में समाप्त किया। कितना अपना लगा था। मगर तीसरे खंड तक आते-आते उनकी चालाकी पर अँगुली रखने लायक समझ विकसित हो चुकी थी। फ़िर हाथ लगे रजनीश। उनकी किताबें और ऑडियो टेप। ओह! क्या रवानगी थी, क्या भाषा और क्या ही तो तर्क! दीवानी हो गई मैं तो भगवान की। कुछ मित्र पूना जा रहे थे स्वयं रजनीश सन्यास देने वाले थे। सबने कहा चलो। मगर पहले से ही निश्चय था किसी का शिष्यत्व नहीं ग्रहण करना है। खुद रजनीश भी ऐसा ही कुछ कह रहे थे। बस पढ़ना-गुनन चलता रहा।

इंग्लिश साहित्य पहले केवल कोर्स में पढ़ा था। कोर्स के अलावा जो पहली इंग्लिश किताब पढ़ने की कोशिश की वह थी थॉमस हार्डी की ‘फ़ार फ़्रॉम द मेडिंग क्राउड’। कठिन था पढ़ना, आदत नहीं थी। दो-चार पन्नों के बाद दम निकल गया। छोड़ दिया। ‘होटल’ शुरु किया, कितनी बार डिक्शनरी खोलनी पड़ी। फ़िर डिक्शनरी किनारे रख दी और बस पढ़ती गई। गाड़ी चल निकली। फ़िर आया टीवी। पहले केवल दूरदर्शन था, वो सप्ताह में एक बार इंग्लिश साहित्य पर बनी सिरीज दिखाता था। पूरी बात समझ में आए इसके लिए कहानी मालूम होना आवश्यक था। सो एक एपीसोड की कहानी पहले से पढ़ कर रखती और रात को बैठ कर सिरीज देखती। इस तरह ‘ग्रेट एक्स्पेक्टेशन’, ‘माई कजिन रेचल’, ‘राज क्वार्डेड’, ‘पैसेज टू इंडिया’, ‘वुदरिंग हाइट’, ‘सेंस एंड सेंसिबिलिटी’, ‘मैडम बोवेरी’, ‘अन्ना कैरेनीना’, ‘जेन एयर’, ‘लेडी चैटर्लीज लवर’, ‘कांतापुरा’, ‘गाइड’ और न जाने क्या-क्या भकोसती गई। सच में उन दिनों साहित्य भकोसने का सिलसिला चल रहा था। इसके साथ-साथ हिन्दी पढ़ना जारी था। धर्मयुग में आ रहे ‘आपका बंटी’ के हर अंक का बेसब्री इसे इंतजार रहता। मोहन राकेश, मंटो, राजेंद्र सिंह बेसी, अज्ञेय, प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, दिनकर पढ़े जा रहे थे। के.पी. सक्सेना के व्यंग्य खूब मजा देते। बाद में एक बार उनसे मिलने भी पहुँच गई। उस पर फ़िर कभी और। इसके बहुत पहले लिखना शुरु हो चुका था।

अब बारी आई मार्केस की और वह मेरा प्रिय लेखक बन बैठा। उसकी कई कहानियों का धड़ाधड़ अनुवाद कर डाला। उसके चक्कर में दक्षिण अमेरिका की संस्कृति-समाज, भूगोल, इतिहास सब छान मारा। अनुवाद करते समय कई बार गला रुँध जाता। आँखें नम हो जातीं। हाथ रुक जाते। कमबख्त लिखता ही ऐसा है। नोबेल पुरस्कारों प्राप्त लेखकों की ऐसी लत लगी कि पंद्रह लेखकों के नोबेल भाषण की पृष्ठभूमि में उनके जीवन और उनकी रचनाओं पर एक किताब लिख डाली। (अब चौदह नोबेल पुरस्कृत लेखिकाओं पर भी एक किताब प्रकाशित हो गई है।) सिलसिला अभी जारी है। नोबेल पुरस्कारों पर एक और किताब तैयार है, अगर कोई प्रकाशक रूचि रखता हो तो संपर्क करे।

सो साहित्य पढ़ने के चक्कर में स्कूली किताबें पीछे रह गई, नतीजा वही हुआ जो ऐसी हालत में होना था। अत: मरने की ठानी। आज सोच कर हँसी आती है पर उस दिन यह बड़ी गंभीर बात थी। मरने का सामान जमा कर लिया, मैं होश में न थी। फ़िर पता नहीं क्या सूझा। सोचा मरने से पहले कुछ पढ़ लूँ। हाथ बढ़ा कार रैक से एक किताब उठा ली। शायद वह फ़िराक गोरखपुरी की किताब थी। खोलने र जो शेर सामने आया वाह आज याद नहीं पर उसका अर्थ कुछ यूँ था, जो कुछ करते हैं दुनिया उन्हीं पर अँगुली उठाती है। उस शेर का असर कुछ ऐसा हुआ कि सोच लिया चाहे परिस्थिति कैसी भी हो आत्महत्या कभी नहीं करनी है। ठान लिया तो जहर उठा कर बाहर फ़ेंक दिया और किताबें पढ़ने लगी। किताबों ने मुझे बिगाड़ा पर जीने की प्रेरणा और ताकत दी, मुसीबतों से जूझना सिखाया।

पुरानी किताबें खरीदने का सिलसिला आज भी जारी है। कलकत्ते की कॉलेज स्ट्रीट, देहरादून का पलटन बाजार, दरियागंज का रवीवारीय फ़ुटपाथी बाजार, बंबई का मार्केट कुछ नहीं छूटा। जमशेदपुर के पुरानी किताब बेचने वालों से खास रिश्ता रहा है। मगर मद्रास सेंट्रल स्टेशन के बाहर मूर मार्केट की स्मृति आज भी गुस्से और दु:ख से भर देती है। वहाँ जाना होता, खूब किताबें ली जाती। दुर्लभ किताबों का बहुत बड़ा जखीरा था वहाँ। मगर शहर के सौंदर्यीकरण की चपेट में सब स्वाहा कर दिया गया। संयोग से तभी वहाँ से गुजरना हुआ। कागज जलने की गंध हवा में थी। उसी जलती दुनिया से कुछ किताबें खींच कर निकाल लीं। ऐलेक्जेंड्रिया लाइब्रेरी जलाने वाले बर्बर लोगों और इन लोगों में ज्यादा फ़र्क नहीं है। सुना स्टेशन का विकास करने के लिए यह काम किया गया था। इस तरह सांस्कृतिक धरोहरों और शब्दों के खजानों को विकास के नाम पर नष्ट करने वालों को सजा मिलनी चाहिए। कौन देगा यह सजा?

काश! कोई रहबर होता, जो बताता कि क्या पढ़ो, क्या न पढ़ो। तो कितना समय बच जाता। मगर अफ़सोस नहीं है, क्योंकि तब शायद कटे-छँटे बागीचे में ही विचरण होता। जंगल की उन्मुक्त सैर न होती। जंगल जहाँ पेड़-पौधे, जंगल-झाडियाँ, फ़ूल-फ़ल और काँटें हैं। नदी-नाले, प्रपात हैं। रपटन भरी न जाने किन गुहा-गह्वर को जाती राहें हैं। अच्छी-बुरी किताबों की समझ खुद विकसित करना समुद्र में डूब कर मोती चुनने के समान आनंददायक है। दूसरों के बताए रास्ते पर चलने की अपनी सुविधाएँ हैं, अपनी राह खुद बनाने का रोमांच कुछ और होता है, जिसे खुद राह बना कर ही पाया जा सकता है। वह मुझे भरपूर मिला है।

मजे की बात है मित्रता भी ऐसे ही बिगड़े हुए लोगों से हुई जो किताबों में दिन-रात डूबे रहते हैं। सब्जी खरीदने को निकले तो झोला भर किताबें ले कर लौटते हैं। महाभारत से ले कर लीडरशिप-मैनेजमेंट की लेटेस्ट किताबों को पढ़ कर उसमें मीनमेख निकालना एक शगल है। एडूकेशन की किताबें भी काम के सिलसिले में पढ़ी जाती हैं लेकिन पहली पसंद साहित्य ही है। सार्त्र और सिमोन का जीवन प्रेरक और आकर्षक लगता था, कुछ उसी तरह का जीवन भारतीय परिवेश में रच पाई हूँ। खुद बिगड़ी, बिगड़े हुए मिले और दोनों ने मिल कर बेटी को भी बिगाड़ दिया। उसे बहुत भटकना नहीं पड़ा, घर में बिगड़ने का भरपूर मसाला है। चेतन भगत उसे पसंद नहीं, हाँ सार्त्र का ‘नो एग्जिट’ जँचता है। जब तक कॉलेज में पढ़ा रही थी, हर साल कुछ छात्र-छात्राओं को साहित्य-कला-फ़िल्म का चस्का लगा कर बिगाड़ती रही। आस-पास बहुत कुछ चलता रहता है। उसी से जिंदगी पढ़ रही हूँ, बिगड़ रही हूँ, अपने संपर्क में आने वालों को बिगाड़ रही हूँ। सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है, बिगड़ने का सिलसिला इस उम्र में अभी भी जारी है…

विजय शर्मा द्वारा लिखित

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