दलित विमर्श की वैचारिकी का घोषणा पत्र: समीक्षा (विनोद विश्वकर्मा)

कथा-कहानी समीक्षा

विनोद विश्वकर्मा 1160 11/18/2018 12:00:00 AM

“आजादी के लगभग 75 वर्षों बाद भी दलितों का मंदिर में प्रवेश, दलितों का देशभर में नंगा घुमाया जाना , दलित का छुआछूत के आधार पर बहिष्कार, दलितों की बेटी – धन सम्पत्ति कों अपनाना, क्यों बंद नही हुआ है; और यदि बंद नही हुआ है तो इसका सही कारण है कि देश में अभी भी मनुवादी, ब्राहमणवादी मानसिकता, वैचारिकी व्यापकता और गहराई से समाई हुई है |”- ‘विनोद विश्वकर्मा‘ द्वारा लिखित समीक्षात्मक आलेख से उपन्यास ‘गाँव भीतर गाँव‘ के संदर्भ में ….. विस्तृत समीक्षा ….

दलित विमर्श की वैचारिकी का घोषणा पत्र  vinodvishwakrma

‘गाँव भीतर गाँव’ समाज की गहरी पीड़ा और उत्तरोत्तर विकसित होती समझ का आख्यान है; देश बदला, समय बदला, लोगों में बदलने और बनने की अनेक तरह की चिन्ताएँ विकसित हुई, इस सब के बीच बचा हमारा वैचारिक, सामाजिक मानस भी बदला है; या हमारे विचार उतने ही पुराने हुए हैं, जितना समय में हम आगे आ गए हैं। क्या हमारा सामन्ती मानस बदला है; आजादी के बाद, संवैधानिक शासन की स्थापना के बाद, लोकतांत्रिक शासन की स्थापना के बाद भी ऐसा क्यों है कि बार – बार लोकहित तिरोहित होता जाता है | जाति, छुआछूत, जातीय गौरव, और जातीयहीनता का भाव संविधान की सत्ता न मानने का भाव हमारे अन्दर घर करता जाता है; बाबजूद इसके कि सभी ताकतें हमें लोकतांत्रिक बनाने में लगी है। फिर भी ऐसा नहीं हो पा रहा है।
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बदलते भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक परिदृश्य का जीवन्त इतिहास है ‘गाँव भीतर गाँव’ | दलित विमर्श की उत्तर सामाजिक पीड़ा का निष्कर्ष है ‘गाँव भीतर गाँव’ | यह उपन्यास हमारे अन्तरमन में सीधे प्रवेश कर जाता है; बशर्ते हम समानतावादी, मानवतावादी विचार धारा के हों क्योंकि जैसी वैचारिकी इस उपन्यास ने हमारे सामने प्रस्तुत की है; उस तरह से, देखा जाय है तो यह कृति एक वैचारिक सामाजिक आन्दोलन है, या यह कहें की दलित विमर्श की वैचारिकी का घोषणा पत्र है | इस उपन्यास ने आदि से अतं तक मुझे प्रभावित किया | जब इस उपन्यास को पढ़कर मैं रीता तो अन्तर मन भाव विहवल हो चुका था। सीधे शब्दों में कहूँ तो मैं रो रहा था | उपन्यास की नायक/ नायिका ‘झब्बू’ के जीवन चरित्र से गुजर कर उसकी संघर्ष की भावना और तड़प को पढ़कर। देश बदला है, नव उपनिवेशवाद, आर्थिक उदारीकरण, गाँव के कालोनीकरण, पुराने धंधों के छोड़ने, नए आधुनिक धंधों के अपनानें और पाश्चात्य संस्कृति, आदि के ग्रहण करने से क्या वास्तव में सही है; यह देश बदल गया है, यदि हाँ तो – समाज के निचले वर्गों के लोगों के व्यवसाय बदल गए हैं क्या ? भंगी, चमार, कोल, कुम्हार, या ऐसी ही छोटी जातियाँ अपना व्यवसाय छोड़ चुकी है क्या ? यदि हाँ तो कैसे ? हाँ कह दिया आपनें, क्या आपनें इनके जीवन को बदलने में सहयोग दिया है; और यदि नही बदला है तो क्यों नही बदला है |

आजादी के लगभग 75 वर्षों बाद भी दलितों का मंदिर में प्रवेश, दलितों का देशभर में नंगा घुमाया जाना , दलित का छुआछूत के आधार पर बहिष्कार, दलितों की बेटी – धन सम्पत्ति कों अपनाना, क्यों बंद नही हुआ है; और यदि बंद नही हुआ है तो इसका सही कारण है कि देश में अभी भी मनुवादी, ब्राहमणवादी मानसिकता, वैचारिकी व्यापकता और गहराई से समाई हुई है | आज भी एक दलित कों एक सवर्ण उठते नही देख सकता है; और यदि उठ गया तो फलते – फूलते नही देख सकता है | बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुए इन्हीं सामाजिक स्वरूपों की व्यापक व्याख्या करता है ‘गाँव भीतर गाँव’ जो भारत की आबादी के 70 प्रतिशत हिस्से का प्रतिनिधित्व करता हैं, अर्थाथ इसमें पूरी ग्रामीण संस्कृति समाई हुई है | इसमें गाँव की जीती – जागती कथा है ,जीवन्त इतिहास है – ‘गाँव भीतर गाँव’।
सदियों से भारतीय समाज में गाँव भीतर गाँव ही रहे हैं इस कड़ी में मुख्य गाँव वह होता था और है , जहाँ ठाकुर, ब्राहमण, बनिया, पटेल या यूँ कहें कि धन और जाति गौरव से पूर्ण लोग रहते थे। सवर्ण रहते थे, इसी से अलग लेकिन जुड़ा हुआ एक गाँव या बस्ती रहती थी और है , जिसमें शूद्र यानी , चमार, कोल, कुम्हार, भंगी , आदि , अनेक जातियाँ थी, जो जाति और धन गौरव , दोनों से ही हीन थी। जिनका धर्म था सेवा करना, निगाह नीची करके चलना, मुख्य गाँव के लोगों का कथन ही इनके लिए आदेश होता था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक शासन की स्थापना के बाद समाज में खण्डन, विखण्डन और मंण्डन हुआ तो क्या वास्तव में इस मण्डन ने गाँव कों एक बना दिया है, या गाँव के भीतर गाँव की सदियों पुरानी परम्पराएँ अभी भी भारतीय समाज में है, इसी की गम्भीरता और संजीदगी से पहचान हमसे, आप सबसे करवाता है -‘गाँव भीतर गाँव’ | उपन्यास, उपन्यासकार सत्यनारायण पटेल ने अपनी शूक्ष्म दृष्टि से इसकी उत्तर सामाजिक व्याख्या की है, जिसे पढ़कर हमें यही उत्तर मिलता है कि आज भी गाँव भीतर गाँव हैं।

इसमें मुख्य गाँव के पात्र है-जाम सिंह, गणपत सिंह, अर्जुन सिंह, शुक्ला, दूबे मास्टर, चौधरी मैडमआदि। गौड़, गाँव के पात्र है- झब्बू , कैलास, छीता, रामरती, जग्या रोशनी, राधली आदि।
उपन्यास की शुरुआत झब्बू के जीवन के बारे में कहे गए कथन से होती है – यथा – ‘‘कैसे पार करे। जिन्दगी एक काला समुद्र । टूटी नाव छितर – बितर। चप्पू भी छीना जोर जबर। तू बड़ा निर्दयी ईश्वर। कैसे जिये कोई प्राण बैगैर । झब्बू की आँखों में कुछ ऐसे ही भाव, आँसू की जगह बे आवज बह रहे, और झब्बू निःशब्द ..। ‘‘( गाँव भीतर गाँव – पृष्ठ – 07)
और वास्तव में झब्बू की जिन्दगी एक काला समुद्र है, जिसकी कई अन्तराएँ है, कई काली गहरी समुद्री खाइयाँ है, जिनसे वह निकलने का प्रयास करती है, और इसी की कहानी है , ‘ गाँव भीतर गाँव ’।

समीक्षित कृति:‘गाँव भीतर गाँव’ (उपन्यास)
लेखक -सत्यनारायण पटेलप्रकाशक – आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड , एस. सी. एफ. 267 , सेक्टर – 16 , पंचकूला ( हरियाणा) -134113, संस्करण – 2014 ; पृष्ठ – 320 ; मूल्य – 200 ( पेपरबैक)

झब्बू परत दर परत अपने अन्तरमन को उठाना चाहती है, उठाती भी है, वह सदियों की गुलामी कर रहे निचले वर्ग की प्रतिनिधि है, दलित वर्ग अभी उतना अधिक चालाक नहीं हो पाया है कि वह सवर्णों की चालाकियों, धूर्तताओं का मुकाबला कर सके अतः वह पुनः टूट जाती है, पैसे और जातीय गौरव के आगे एक संवेदनशील और संघर्षशील ‘स्त्री ’ खत्म हो जाती है।
जाम सिंह, शुक्ला और गायक मंत्री उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो धन, जातीय गौरव और मंत्री पद के गर्व से दबे हैं ; चूर हैं, अपने आप को सबसे ऊपर समझते हैं। भूमाफिया, और राजनीति माफिया सब इन्हीं के आस-पास से गुजरते हैं या यूँ कहें कि इनकी गोद में ही पलते हैं, ये स्वयं हैं। आजादी की लगभग 75 वर्षों की दहलीज पर पहुँचते – पहुँचते ऐसा क्या हो गया है कि जब किसी मंत्री की , कलेक्टर की, पुलिस वाले की, गाड़ी गुजरती है तो आम जनता थर – थर कापंती है, जनता के सेवक जनता के राजा बन बैटे हैं, ये जनता से ऊपर हो गए हैं, मेरे मन में यही प्रश्न बार-बार उठता है कि लोकतंत्र से लोकतंत्र की हवा ही गायब हो गयी है और अधिनायकवादी ताकतों ने अपनी जड़े मजबूत कर ली हैं।
उपन्यास की कथावस्तु व्यापक और विस्तृत है; झब्बू का पति कैलास एक दिहाड़ी मजदूर है, और एक दिन सोसायटी से आते वक्त ट्रैक्टर पलट जाने से उसके पति कैलाश की मृत्यु हो जाती है, अब झब्बू की जिन्दगी खत्म हो गई। शास्त्रानुसार उसके जीवन में कुछ बचा नही है; लेकिन उसका संघर्ष और जीवन वास्तव में यहीं से शुरू होता है, वह अपने पति के घर उसी झोपड़ी में लौट आती है, उसने अपने प्रयत्नों से कुछ पढ़ लिख भी लिया है, इस बार उसका घर आना, गाँव के बदलने की प्रक्रिया का शुरू होना है, इसी की गति में गाँव में मैला उठाने वाली भंगी औरते , ब्राहमणों ठाकुरों , पटेलों आदि घरों का मैला उठाने से इन्कार कर देती हैं; मैला उठाने वाले सामानों की होली जलाई जाती है, गाँव से कलाली ( शराब की दुकान ) हटवाई जाती है। इन घटनाओं से जाम सिंह का नुकसान होता है, इसके बदले में झब्बू का बलात्कार जाम सिंह के भेजे गए मजदूरों द्वारा होता है; मुकदमा चलता है, लेकिन नतीजा शून्य, जाम सिंह का पैसा जीत जाता है, वह हार जाती हैं।

जिस तरह देश बदल रहा है, उसी तरह गाँव भी बदल रहा है; राजनीति में बदलाव और मध्य प्रदेश की सरकार में बदलाव के बाद जाम सिंह की ताकत कुछ कम हो जाती है, अब मामा मुख्यमंत्री हैं, और गाँव की शीट – आरक्षित होने के कारण झब्बू सरपंच, दलित महिला सरपंचों बलात्कार, जिन्दा जलाने एवं जेल भिजवाने के समाचार हैं, और इन्ही सबके बीच झब्बू अच्छा काम कर रही है; स्कूल में झण्डा नही फहराने दिया गया उसे फिर भी उसने स्कूल में निर्माण करवाया है; उसकी बेटी एक नैतिकतावादी पत्रकार है; और वह नैनिकतावादी समाजसेवी पर ये दोनो ही नैतिकता को बचा नही पाते हैं।
उपन्यासकार सत्यनारायणपटेल का सपना है – ‘गाँव को स्वर्ण’ बनाना है, लेकिन यह सपना कभी पूरा होगा यह उपन्यास अंत तक इसका उत्तर नही दे पाता जबकि स्वर्ग की चाह हमें किंवदतियों , असहज विश्वासों की ओर ले जाती है, उसी तरह होता है, झब्बू के साथ, गाँव में दलितों की बारात आती है, और स्वर्णो को यह अच्छा नही लगता की दलित उनकी गली से घोड़ी चढ़कर जाए, और आपसी टकराव में दलितों की तरफ से तीन लोग मारे जाते हैं, दूल्हा ही मार दिया जाता है; वास्तव में यह बरबर समय है। धन कमा लेने , और दिखावटी दोस्त बन जाने के बाद भी हमें यह नही समझना चाहिए कि ‘मनुवादी मन ’बदल गया है, वह गाँव जो दलितों को सदियों से सीमा बाहर रखता आया था आज एकाएक उन्हें केन्द्र में जीने देगा यह भ्रम है।

यह समय किसानों की आत्महत्याओं, आम-जनता की हत्या और कम्पनियों, एन. जी. ओं. के उगने का समय है- एक तरफ सांप्रदायिक ताकातों को रोका और दूसरी तरफ साम्राज्यवादी ताकतों के झुण्ड के झुण्ड बुला लिए गए है। …. पहले एक ईस्ट इण्डियाँ कंपनी और अग्रेजों ने हमें ढाई तीन सौ साल गुलाम बना के रखा था। सुना है अब जो कंपनियां आ रही हैं , एक – एक कंपनी की ताकत हजार – हजार ईस्ट इण्डियां कपनी के बराबर है। ( ‘ गाँव भीतर गाँव ’ – पृष्ठ – 236)
इधर मंत्रियों के घर किसी कार्पोंरेट ‘हब’से कम नही हैं, ऐसा उपन्यास से धवन्ति होता है ; गायक मंत्री और उसका नेटवर्क इसका प्रमाण है; वहीं सभी माफिया पलते हैं, सभी की तकदीरें भी वहीं लिखी जाती है; गायक मंत्री अब राजा साहब का अनुपूरक है; राजा साहब पहले मंत्री थे, गायक दूसरा,काम दोनों का वही है; गायक मंत्री झब्बू को विधायक बनने के सपने दिखाता है; और वह मान भी जाती है; बेटी मना करती है लेकिन बात बन नही पाती है; जाम सिंह का बेटा जिसने तीन दलितों को मारा है,छूट जाता है; और झब्बू कुछ लाख रुपये लेकर बदल जाती है; जाम सिंह अपनी पार्टी बदल लेता है, गायक मंत्री को पैसा देकर अपनी तरफ कर लेता है ; रोशनी को मंत्री पकड़वा देता है; और झब्बू को मरवा देता है,जाम सिंह, एक समय झब्बू की नैनों पर एक बड़ा ट्रक ठोकर मारता है और वह मर जाती है; बेटी जेल में है, माओवादी पत्रकार के रूप में, और जनवादी समाजसेवी माँ मरवा दी गई है। सत्य की मौत हो गई। और यहीं पर यह उपन्यास अंदर तक प्रवेश कर जाता है; वास्तव में यह कैसा समय है जब एक छोटे से अहम और धन प्राप्ति के लिए लोग मरवा दिए जा रहे हैं। इस संसार में क्या आम आदमी होना पाप है। लेखक एक जगह लिखता है कि – अब ‘अहिंसा – अहिसा ’ कहने से क्या होगा ? यह प्रश्न अत्यन्त विचारणीय है।

इस उपन्यास के दो पात्र , ‘छीता ’और ‘जग्या ’ मुझे प्रभावित करते हैं, छीता जाम सिंह ठाकुर की रखैल है; और उसकी दशा और झब्बू की दशा में कोई खास अंतर नही है। जग्या दुख से तड़पने वाला इन्सान है, अन्दर ही अन्दर जलता है; वह भंगी है; लेकिन संघर्ष, प्रतिरोध और बदले की भावना से ओतप्रोत है – ’’जग्या भीड़ से अलग एक खेजड़े की नीचे बैठा । उसकी आंखे लाल और चेहरा पत्थर सा । उसकी आँखों में जैसे झब्बू की चिता के साथ – साथ रामरति, रघु, सुमित और श्याम की चिताएं जल रहीं। उनकी चिता की लपटों में वह खुद कों झुलसता महसूस कर रहा। ……………… ( जाम सिंह का बेटा अर्जुन, जिसने रामरति, रघु सुमित, श्यामू को मारा या मारने में सहायता की ) अर्जुन सिंह उधर पेशाब करने जा रहा था। अभी वह पेन्ट की जीब खोल ही रहा था कि जग्या ने अपनी कमर में बंधा खूँटा खोला और चीखता हुआ अर्जुन सिंह पर टूट पड़ा। देखते ही देखते उसने चार – छः बार अर्जुन सिंह के पेट में खूँटा घोंपा और निकाला। ’’( ‘ गाँव – भीतर – गाँव ’ – 320) और अर्जुन सिंह मर गया। जाम सिंह जीत कर भी हार गया। जग्या ने हिंसा का उत्तर हिंसा से दे दिया। जग्या पूरे गाँव में ‘पागल ’ माना जाता था। परिवारजनों की हत्या के बाद कभी रोया नही था। इससे यह भी पता चलता है कि जनता को बेवकूफ मानना गलत है।

प्रकृति और लोक से गहरा तदात्म्य रखते हुए ‘गाँव भीतर गाँव ’ की मुख्य चिन्ता है – ‘‘साथियों आँखें खोलो …….. हिटलर के वंशज का नाती लोकतंत्र के मंदिर का दरवाजा खटखटा रहा है।’’ ( ‘ गाँव भीतर गाँव ’ , – पृष्ठ – 290) लोकतंत्र की ताकत का ह्रास , जनता का सत्ता से दूर होता जाना और अलोकतांत्रिक ताकतों से संघर्ष ही उपन्यास का केन्द्र है; कथ्य और कथाकार की यही सार्थकता है; ’’ कार्ल मार्क्स की कविता…………..आओ/ हम बीहड़ और कठिन सुदूर/ यात्रा पर चलें/आओ/क्योंकि छिछला/निरूद्देश्य और लक्ष्यहीन/जीवन हमें स्वीकार नहीं/ हम उँघते कलम घिसते हुए/ उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जिएँगें। /हम आकांक्षा,आक्रोश/आवेग और/अभिमान से जिएँगे! असली ’ इन्सान की तरह जिएँगे ’’(‘गाँव भीतर गाँव’, पृष्ठ – 290) मुझे यह पूरा उपन्यास इसी कविता की यात्रा लगा। और ‘असली ’ इन्सान की तरह जीने की काशिश। इसीलिए मैं इस उपन्यास को इक्कीसवीं सदीं के समाज को व्याख्यायित करने वाला जीवन्त कालजयी इतिहास मानता हूँ ।

विनोद विश्वकर्मा द्वारा लिखित

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