आदमी जात : कहानी (मनीष वैद्य )

कथा-कहानी कहानी

मनीष वैद्य 690 6/19/2020 12:00:00 AM

बाप को मारकर आतताइयों ने उसकी इतनी बुरी दुर्दशा की कि वह तीन दिन तक तड़प –तड़प कर कराहती रही और फिर हमेशा के लिए खत्म हो गई |

आदमी जात 

अस्पताल की ग्यारहवीं मंजिल की खिडकी से आसमान का एक टुकड़ा नजर आता है. वे मन ही मन हँसे. उनके होंठ कुछ खुले. उन्होंने कहा, शीशे के पार खिड़की भर आसमान. पर वहां मौजूद किसी ने नहीं सुना. उनकी स्थिति ठीक वैसी ही थी, जैसे वह किसी बहरों के देश में आ गए हों. मानो वहां के लोगों ने फिलहाल सुनना स्थगित कर रखा हो. हालाँकि भाषा अभी लुप्त नहीं हुई थी, बदल गई थी, बेहाल, बेजार और बेजतन हो गई थी फिर भी कहने को वहां एक भाषा तो थी ही, जिसमें वे लोग बाज़ार से लेन –देन करते या कि आपस में कम ही सही लेकिन अपने मोबाइलों पर एक दूसरे से बातें करते थे.
उन्होंने खिडकी पर टंगे हरे रंग के पर्दों के बीच से देखा. धूप की तिरछी शहतीर कांच को भेदती हुई सामने की नीली दीवार पर टंगी पेंटिंग की औरत की बायीं आँख में पड रही थी. उन्हें लगा पेंटिंग में औरत की बायीं आँख धूप के टुकड़े की उस चटख रोशनी से मिचमिचा रही है. खिडकी की पाल पर अभी –अभी एक चिड़िया कहीं से उड़ते हुए बिखरे धूप के टुकड़े पर बैठ गई है और अपनी चोंच से कभी बाएँ तो कभी दाएं पंख में कुछ ढूंढ रही है गोकि उस उजली धूप को पंखों में भर लेना चाहती हो. इस दृश्य को उन्होंने गौर से देखा, बाक़ी किसी की उस ओर नजर नहीं है. कमरे में मौजूद सबकी नजरें मोबाइल की स्क्रीन पर जमी हुई है.   
उन्होंने नर्स की उदास आँखों और फीकी हँसी से जाना कि वह अपनी जिंदगी में खुश नहीं है. शायद उसे प्रेम में धोखा मिला हो. उसके पति ने उसे घर से निकाल दिया हो या अपने बूढ़े बीमार पिता की देखभाल करते हुए उसने अब तक शादी ही नहीं की हो. लेकिन यह भी सिर्फ उन्होंने ही जाना. बाक़ी किसी ने ऐसा कुछ जानने की किंचित कोशिश भी नहीं की. वे दूर बैठे अपने दोस्तों का हाल जानने में मशगूल थे. आसपास से पूरी तरह तटस्थ होते हुए भी वर्चुअल दुनिया में उनके कई दोस्त थे..हजारों का आंकडा पार करते हुए.                                   
यह कोई नई या अनहोनी बात नहीं थी. कई बार ऐसा होता कि वे कुछ कहते और कोई नहीं सुन पाता. वे कुछ देखते पर कोई नहीं देख पाता. वे कुछ सोचते पर कोई नहीं सोच पाता. बीते दस –पन्द्रह सालों से तो अमूमन यही होता रहा है. उन्हें कभी –कभार सिर्फ डॉक्टर समझ पाता है. मेडिकल की भाषा में हँसते हुए कहता है, “ओल्ड डेज फोबिया. मैंने इस बीमारी के कई पेशेंट देखे हैं. ये लोग इधर रहते हुए भी लौटते हैं बार –बार अपने दौर में. अपने वक्त में. घबराने की कोई बात नहीं. कुछ दिन यहाँ रखिए और हाँ पुरानी बातों से, यादों से इन्हें बचाकर रखना. स्ट्रेस आया तो कुछ भी हो सकता है. वैसे भी बूढ़े आदमी को जान जाने का कोई न कोई बहाना ही चाहिए होता है.”  
डॉक्टर की महीन आवाज़ सबने सुनी थी. 
यह आवाज़ उन्होंने भी सुनी थी पर वे चिंतित नहीं थे. उन्हें स्मृतियों से डर नहीं लगता ...? 
उनकी भूरी -कंजी आँखों में एक खिडकी रहती है. वे अपने तईं उससे चाक चौबंद रहते हैं. खिडकी को मुक्कमिल बंद कर वे लोहे की सांकलें चढा देते हैं. लेकिन लाख ऐहतियातों के बाद भी वह जब –तब खुल ही जाती है. भडभडाहट के साथ सांकलों को सरकाते हुए लकड़ी की वह पुरानी खिडकी खुल ही जाती. उस पर लटकते मकड़ी के जाले और धूल की गर्द उनके झुर्रियों वाले चेहरे पर महसूस होती. खिड़की खुलती तो वे यादों की बारिश में भीतर तक भींग उठते. तब वे वहां नहीं रह जाते थे.    
खिडकी के पार की दुनिया सपनीली थी. उसमें दूर –दूर तक फैले धान के हरे –भरे खेत थे. उनमें काम करते लोग उन्हें अपने से लगते. उधर खेतों के पीछे की पगडंडी बढ़ते हुए नदी के किनारों पर पंहुचा देती तो खेतों के बीच से गुजरता गाडी –गडार रास्ता गाँव की चौपाल पर जा थमता. चौपाल पर वडेरे -बूढ़े लोग जमे रहते. पास में ही फतेह के टप्पर पर चाय पीने के शौकीन लौंडे –लपाड़े वहां जमा रहते. वे घंटों राजनीति और दीगर मुआमलों पर बात करते रहते. उधर आगे गली मुड़कर मंदिर की तरफ चली जाती और इधर कुछ ही दूर आगे मस्जिद से पाँचों वक्त की अजान गूंजती रहती.            
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तेरह –चौदह साल का एक लड़का बेतहाशा दौड़ रहा है. जंगलों के पहाड़ी पथरीले और कहीं –कहीं कीचड़ रास्तों पर वह हाँफते हुए लगातार दौड़ रहा है. बार –बार पीछे देखते हुए उसका बदहवास दौड़ना जारी है. आधी बांह की कमीज और हाफपैंट पहने वह पसीने से तर है. उसके कपड़े गीले और कीचड़ से सने हैं. सिर की टोपी न जाने कहाँ झाड़ियों में उलझकर गिर चुकी है. उसके तलुओं से खून चू रहा है. पर वह कहीं नहीं थमता. उसे माँ बहुत याद आ रही है, शीनू की याद सता रही है. वे कैसे होंगे. कहाँ होंगे. बचे रहे होंगे या... विचारों के झंझावातों को पीछे धकेलते वह आगे बढ़ता जा रहा है. फिलहाल तो वह जैसे –तैसे अपनी जान बचा लेना चाहता है. इसी तरह वह पूरी दोपहर दौड़ता रहा. 
दो दिन पहले ही बारिश खुली है और अब हरी धुली पत्तियों पर धूप चमक रही है. नदी –नालों में सूरज की रोशनी चाँद रंग बिखेर रही है. पर उसके चित्त में चैन नहीं है. नदी –नालों को तैरता -फलांगता, कीचड़ में फिसलता और फिर –फिर आगे बढ़ जाता. उसे जंगल से डर नहीं है. इनमें वह कई बार आता –जाता रहा है. डर है तो पीछे आ रहे लोगों से.            
उसे लगता है, अब भी वे लोग उसका पीछा कर रहे हैं. पकड़ में आने पर वे लोग कुछ भी कर सकते हैं. उसे मार डालेंगे या उसे यातनाएं देकर गुलाम बना लेंगे. मरना आसान है पर वीभत्स मौत.. बीते दिनों में उसने अपने इलाके में लोगों की तड़प –तडप कर मौतें देखी और सुनी है, उसने उसके बाल मन को छिन्न –विछिन्न कर दिया है. वह बुरी तरह सहमा हुआ है. उसे तो यह भी नहीं मालूम कि उसका कसूर क्या है. और ऐसा क्यों हो रहा है कि वे लोग जान के दुश्मन बने हुए हैं. उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा. बस एक ही बात बार –बार गूँज रही है -उसे दौड़ते हुए दूर निकल जाना है, बहुत दूर.      
इससे पहले तक तो सभी उससे प्यार करते थे. गाँव के लोग उसकी मासूम शरारतों पर दिल खोलकर हंसते थे. किसी भी घर आने –जाने की कोई पाबंदी नहीं थी. किसी के भी घर बहू मायके से लौटती तो साथ लाई खाने –पीने की चीज घर –घर पंहुचती. भाजी (मायके से आया सामान) वक्त पर नहीं पंहुचे तो खुद काकी –दादियाँ आँगन में आ धमकती, क्यों बहू... भूल गई क्या..? हमने सोचा खुद ही याद दिला आएं. फिर सब हंसने लगती. उनकी हंसी गाँवभर में फ़ैल जाती और गाँव हंसने लगता. 
सिंध नदी किनारे गाँव का नाम थररी मोहब्बत. कुल डेढ़ सौ घरों की बस्ती. जैसे कोई बड़ा परिवार. हजार –बारह सौ लोगों के सुख –दुःख आपस में साझा थे. शादी हो या मैयत. बाढ़ हो या अकाल. त्यौहार हो या खेती –बाड़ी के काम. सब लोग मिल -जुलकर करते थे. उनके त्यौहार साझा थे. त्यौहारों पर गाँव चहक उठता. उमंग और उल्लास बिखर –बिखर जाया करता. ईद पर मीठी सिंवैयाँ पूरे गाँव में बंटती और दीवाली की मिठाई भी. अपने –अपने खेतों में खटते हुए भी आपस में सब लोग बहुत खुश थे. मिलते तो कोई सलाम वालेक्कुम कहता तो कोई राम –राम. हर कोई एक दूसरे से दिल खोलकर मिलता. 
उसके नन्हे पैर इतने भारी होते जा रहे थे कि दौड़ना तो दूर अब चलना तक भी उसके लिए मुमकिन नहीं हो रहा था. उसे लगा कि उसके पैर लथडाने लगे हैं. वह बुरी तरह थक चुका था. भूख और प्यास से उसका बुरा हाल था. सिर चकराने लगा था. शाम का सूरज ढलने को बेताब हुआ जा रहा था. तभी उसे कुछ दूरी पर धुंआ निकलता दिखा. उसने सोचा वहां कोई तो होगा. वह उस दिशा में बढ़ गया. वहां पंहुचने से पहले ही वह गश खाकर गिर पड़ा. 
अर्ध चेतना में कई दृश्य आ -जा रहे थे. माँ दौड़ रही थी उसके साथ –साथ. अनायास माँ दूर रह जाती है और किताबों का झोला लटकाए शीनू दाखिल होती है. झोला फेंककर वह आम के पेड़ पर बंधे झूले में बैठ जाती है. वह झूले की लकड़ी पकड़कर उसे जोर का झूला देता है. वह खिलखिलाने लगती है. उसकी खिलखिलाहट खेतों में फ़ैल जाती है और वे हरे –भरे हो जाते हैं.          वह उन्हीं के मोहल्ले में रहती थी और उनके साथ ही आर्य समाज स्कूल में पढती थी. उसकी बड़ी –बड़ी आँखें बहुत सुंदर थी. वह उनसे बात –बात पर लडती थी पर घर में कुछ भी नया बनता तो उनके लिए जरुर बचाकर लाती थी. चेतराम की बड़ी बहन कहती –“तुझे तो चेता की कुंवर (बहू )बनाकर अपने घर लाऊँगी” तो वह शरमा जाती. जब शरमाती तो उसके गुलाबी गालों में गड्ढे पड जाते. 
थोड़ी देर बाद जब उसकी चेतना लौटी तो अस्फुट से कुछ शब्द उसके कानों में पड़े. कोई औरत कह रही थी. शायद कोई पनाहगार है, कितना मासूम बच्चा है. मेरे पहले बेटे की उमर का है, जो चेचक से चला गया. आज वह होता तो शायद ऐसा ही दिखता. किस्मत भी कैसे –कैसे खेल दिखाती है. न जाने कहाँ से भटका, रब ने हमारे डेरे की तरफ मोड़ दिया, नहीं तो कौन जाने जंगल में कौन सा जानवर इसे फाड़ खाता. 
किसी ने टोका –और उन जालिमों के हाथ पड जाता तो क्या वे छोड़ते. वे दरिंदे तो जानवरों से गए बीते हैं. फिर कुछ और आवाज़े.. फिर किसी ने दुआ मांगी थी –या खुदा, मासूमों पर तो रहम कर, लोग इतने सख्तदिल कैसे हो जाते हैं. क्या उनके घरों में मासूम नहीं हैं. उसने अपने सिर पर किसी का प्यारभरा स्पर्श महसूस किया. हाथों के कंगन से लगा शायद माँ हैं. पर माँ यहाँ कैसे..? वे उसके उलझे बालों में उंगलियाँ घुमा रही थीं. आँखें खुली तो ऊपर अँधेरी रात के आसमान में तारे चमक रहे थे और नीचे डेरे के पचास –साठ लोग उसे घेरे बैठे थे. आदमी –औरत और कुछ बच्चे. ऊंटगाडो पर उनके लश्कर लदे हुए थे. 
वह कुछ और कहना चाहता था पर अनायास मुंह से निकला –‘पानी’ 
वे लोग चहक उठे. हाँ- हाँ होश आ गया. दुआ कबूल हुई. लाओ भाई.. पानी लाओ. 
एक लडकी उठी और मिट्टी के घड़े से पीतल का एक बड़ा गिलास पानी से भर लाई. कुछ खाने पीने के बाद उसे करार आया तो उसने डरते हुए अपनी पूरी कहानी उन्हें कह सुनाई. 
सिर पर हाथ घुमाने वाली माँ के मुंह से निकला –“कितना प्यारा बच्चा है और किस्मत इसे कहाँ ले आई. सुनो जी, हम कितनी भी मुश्किल में क्यों न हो, हमें इसकी मदद करनी होगी.” 
अब तक अपने में ही खोये खामोश बैठे जनाब ने कहा –“बेटा, हमारे साथ चलोगे, जो हमारा होगा, वह तुम्हारा भी. जो हम खाएंगे, तुम्हें भी खिलाएंगे.” 
“नहीं चाचा, किसी हालत में अब उधर नहीं लौटूंगा. पता नहीं उन लोगों के साथ क्या हुआ होगा. घर के लोग जिंदा बचे भी होंगे तो इधर ही आ गए होंगे. मुझे उन्हें ढूँढना है. वे मुझे तलाश रहे होंगे.” 
“ठीक है बेटा, जैसी तेरी रज़ा. पर तुझे यूँ अकेला भटकने नहीं देंगे. तेरे चाचा तुझे आठ  कोस आगे खोकरा पार तक छोड़ आएँगे. वहां से सुबह पहली रेलगाडी तुझे लूणी पंहुचा देगी” 
“लेकिन चाचा का वहां तक जाना ठीक नहीं है, वे आप लोगों की जान की दुश्मन बने घूम रहे हैं. जैसे पाकिस्तान में हमारी हालत है, वैसी ही हिन्दुस्तान में आप लोगों की. भगवान ने यहाँ तक पंहुचाया है तो आगे भी पंहुचा ही देगा. आप देर रात यहाँ से चलोगे तो तीन कोस में सुबह –सुबह बार्डर पार कर लोगे.”  
“नहीं बेटे, तुझे अकेला तो जाने नहीं दूँगी. तेरे चाचा तुझे खुद ऊंटनी पर छोड़कर आएँगे.“
“हाँ..हाँ बेटे, मैं खुद तुझे लेकर चलूँगा. आदमी जात हूँ. इस मारकाट में तुझे अकेला किसी कीमत पर नहीं जाने दूंगा.” 
“बहुत बुरा वक्त आ गया है. बदकिस्मती देखो कि हम अपने ही मुल्क में पनाहगज़ी भी हैं और पनाहगार भी. यहीं के भगौड़े भी हैं और यहीं शरणार्थी भी. हम तो दोनों ही तरफ से छले गए. हमारा मुल्क, हमारा घरबार तो यही था पर यहाँ से हमें एक अनजाने देस में खदेड़ रहे हैं और वहां से उन बेचारों को यहाँ.” – उस डेरे के वडेरे जैसे खुद से ही कह रहे थे.          
माँ आंसू पौंछते हुए डेरे से अपने बच्चे का कमीज –पायजामा ले आई. उसे पहनाया. अँधेरे के बाद भी उनकी आँखों में उजाले की चमक उसने महसूस की थी. वे चेहरे पर झूल रही बड़ी सी नथ को सहेजने का जतन दिखाती आँखों की भीगी कोर पौंछ रही थी. उसने चटपट सूखी रोटियाँ बाँध दी और पानी की छागल भी. ऊँटनी पर सवार हुआ तो डेरे के लोगों की आँखों में पानी था. 
खोकरापार में स्टेशन पर पैर रखने भर की जगह नहीं थी. हर कोई रेलगाड़ी पर लटके जा रहा था. हर कोई लूटा –पीटा अपने मुल्क के अजनबी हो जाने से गमजदा था तो इधर से उधर धकियाते मारकाट कर रहे आवारगर्दी से दहशत में भी. लोग थे, उनके साथ सामान, बच्चे लदे –फदे थे. कोई भूखा था. किसी का कोई मारा जा चुका था तो किसी का कुछ लुटा गया था. हर किसी की कोई न कोई कहानी. वह रेलगाड़ी आंसुओं से भरी थी. वही क्यों तमाम रेलगाड़ियाँ जो उस दौर में वहां से आ रही थी और जा रही थी. उन सबमें आंसूओं की अनगिन कहानियाँ थीं. अपने को बेदखल कर उजाड़ दिए जाने की करूण त्रासदियाँ. 
पूरी गाडी में यही बातें हो रही थी. वडेरा आपस में कहते  –“अजीब रिवायत है ये सियासत भी. दिल्ली में बैठे दो नेताओं ने अपनी काफी टेबल पर फैले कागज के नक्शे में लकीरें खींचकर हडबडी में मुल्क को बाँट लिया. क्या कोई मुल्क जमीन का टुकड़ा भर है. हम जीते –जागते लोगों के बारे में किसी ने नहीं सोचा. सियासतें कहाँ सोचती हैं लोगों के बारे.”  
लूणी और चुरू में मुसीबतों का कोई पारावार नहीं था पर अपने मुल्क में आ जाने और जान बचने की हल्की सी ख़ुशी थी. शायद नहीं थी, अपना देस, गाँव –गडार, खेत खलिहान, घर –द्वार, जमीन –जायदाद सब कुछ खोकर लोग कहने को अपने पर इस अजाने देस में आ गए थे. यहाँ उनकी न कोई जमीन थी, न कोई घर. यहाँ से कोई भावनात्मक जुड़ाव भी नहीं था, न इससे स्मृतियाँ जुडती थी और न ही इसका भूगोल उनकी तासीर में था. 
सरकारें मदद कर रही थी. रहने के लिए तम्बू थे, स्कूल -धर्मशालाएं खाली की गई थी. अंग्रेजों की सेना के लिए बनाए बैरकों में उनके नाम, पहचान खो गए थे. वे अब नंबरदार हो गए थे. हर व्यक्ति को उसके नाम से ज्यादा उसके नंबर से ही पहचाना जाता. शरणार्थी नंबर 2301...2302 उसी नंबर से खाने –पीने की चीज मिलती. औरतों की साड़ियों के पर्दे बनाकर अलग –अलग परिवार एक ही छत के नीचे अपने बुरे वक्त को गुजार रहे थे. सब तरफ ऊहापोह था. लाखों की खेती बाड़ी और घर –हवेलियाँ छोड़कर यहाँ आए लोग मुसीबतों और अभावों में जीने को मजबूर थे. शरणार्थी शिविरों में भी जिंदगी चल ही रही थी. इसी में औरतों ने बच्चे जन्मे. इसी में बूढों ने आखरी सांस ली. इसी में किसी का किसी से प्यार पनपा और कोई किसी की जिंदगी में शामिल भी हुआ. कभी तम्बू निराश हो जाते, कभी अभावों के बावजूद छोटी –छोटी खुशियों पर थिरक उठते. 
वह लड़का, चेतराम जो अपनी जान बचाकर जैसे –तैसे यहाँ पंहुचा था और जिसे एक भले मानुस ने ऊंटनी पर रेलगाड़ी तक पंहुचाया था. उसके लिए अब एक ही काम बच गया था. दिन भर यहाँ से वहां तक शिविरों की ख़ाक छानते हुए वह अपने परिवार को ढूंढने में लगा रहता. करीब डेढ़ महीने की भागदौड और कोशिश से आखिरकार एक दिन किसी और शिविर में उसे माँ –पिता और बहनें मिल गई. वे लोग भी बमुश्किल खेतों के रास्ते भागते हुए रेलगाड़ी पकड़ यहाँ तक पंहुचे थे. उन्होंने तो चेतराम के लिए उम्मीद ही छोड़ दी थी और लगभग मान लिया था कि वह इस दुनिया में नहीं ही होगा, आतताइयों की टोली जब मोहल्ले में पंहुची तो चेतराम घर पर अकेला था. बाकी लोग खेत पर थे. वह टोली के हाव -भाव पहचान गया था. बीते दो हफ्ते से गाँव में ऐसी ही हवा चल रही थी. तनाव साफ़ नजर आने लगा था. टोली देखकर वह पीछे के दरवाजे से भाग निकला.  उसे सही –सलामत यहाँ सामने देखकर उन बुरे दिनों में भी उनके चेहरों पर चमक दौड़ गई थी.                     
माहौल बिगड़ने से पहले बीते साल अच्छी फसल हुई थी. चेतराम के घर वाले बड़ी बेटी की शादी से पहले अपनी पुरानी जर्जर हो रही दो मंजिला हवेली के पास पड़ी खाली जगह में नई चलन का मकान बनाना चाहते थे. इसके लिए बड़े शौक से सागौन की लकड़ी के नक्काशीदार दरवाजे बनवाकर रख लिए गए थे और बारिश थमते ही मकान का काम शुरू हो जाना था कि तभी यह कयामत आ गई. बेटे के भागने के बाद उन्होंने भी रातोंरात घर को दो गठरियों में जितना समेट सकते थे, समेट कर इधर की राह पकड़ ली. हवेली पर ताला लगाने से पहले नक्काशीदार दरवाज़े और बाक़ी कुछ सामान पडोस की कुम्हारिन आपा के यहाँ रखवा दिए ताकि लूटपाट या आगजनी में भी वे सुरक्षित बचे रह सकें. रात के अँधेरे की वजह से कुम्हारिन आपा की आँखों के आंसू कोई नहीं देख पाया. 
परिवार तो मिल गया था पर शीनू का कोई अता –पता नहीं था. बहुत बाद में पता लगा कि शीनू के माँ –बाप को मारकर आतताइयों ने उसकी इतनी बुरी दुर्दशा की कि वह तीन दिन तक तड़प –तड़प कर कराहती रही और फिर हमेशा के लिए खत्म हो गई. चेतराम के लिए यह खबर दिल को भेदने वाली थी. उसे अब तक इसकी कसक है कि वह शीनू के लिए कुछ नहीं कर सका. 
चेतराम अब बड़ा हो गया था और पूरे परिवार की जिम्मेदारी उस पर आ गई थी. बहनों की शादियाँ हुई. उसने चुरू से भोपाल आकर धीरे –धीरे अपना कारोबार शुरू किया और इसे फैलाते हुए उसके जीवन की सांझ हो गई, अब कारोबार बच्चे देखते हैं.  
तब उन्हें लगता था कि थोड़े ही दिनों की बात है. माहौल शांत होते ही उन्हें फिर अपने ही मुल्क चले जाना है. ये आपदा का वक्त है. जैसे –तैसे कट ही जाएगा. लेकिन किसे पता था कि इस रात का अँधेरा फिर कभी नहीं छंटेगा. दो पड़ोसी मुल्कों के रिश्तें फिर कभी नहीं सुधरेंगे. 
इस बात को भी सत्तर साल गुजर गए पर चेतराम की आँखों में अब भी भीतर की आंधी से भडभडाकर पुरानी खिडकी की सांकले खुल जाती तो फिर वे देर तक स्मृतियों की बारिश में भीगते रहते हैं. उनके बेटे –बेटियाँ यही चाहते कि वे कभी इस खिड़की के पार नहीं झांके पर यह उनके भी बस में कहाँ. 
कभी उस खिडकी के पार कोई लड़का दौड़ता –फलांगता है तो कभी बड़े फूलों के छपके वाली फ्राक पहने बड़ी –बड़ी आँखों से शीनू उन पर गुस्सा हो रही होती है.                                                                                                                            
     
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वे उधर की बस्ती से आते थे और मैं इधर से. जाड़े की सर्दियों में धुंध को चीरते हुए वे किसी योद्धा की तरह तेज़ कदमों से चले आते थे. उनके शरीर पर लदे स्वेटर, ओवरकोट, कनटोप और जूते –मौजे मुझे किसी सैनिक के साजो सामान की तरह लगते. गोया वे भी ठंड से लड़ने के लिए बख्तर सजाकर निकले हों. हम अक्सर पार्क की उस बेंच के आसपास ही मिलते थे, जहाँ सूरज की पहली किरण पडती है. पहले हम परिचित नहीं थे. उनकी और मेरी उम्र के करीब दुगना फासला थे. वे अस्सी पार हो चुके थे और मैं चालीस पर टिका था. फिर धीरे –धीरे बातें होने लगी. वे मुझे दिलचस्प आदमी लगे. ठठाकर हंसते और किस्से सुनाते. 
उन्होंने कभी नहीं बताया, मुझे बाद पता चला कि शहर में चेतराम मंघाराम की कपड़े की जो फर्मे हैं, उनके चेतराम यहीं हैं. मैंने पूछा तो हंसने लगे. उनकी हंसी सुबह की मुलायम धूप की तरह थी. ताजगी से भरी हुई. बोले –“अब मैं दुकानों पर नहीं बैठता, पर नाम चल रहा है. इसमें भी एक राज़ है.” 
“भला, इसमें क्या राज़ हो सकता है.” 
“बताता हूँ भाई, देखो दुकाने नाम से चलती हैं. कारोबार में किसी व्यक्ति की साख ग्राहकों को जम जाती है तो वे वहीं से खरीददारी करते हैं. अब शहर के लोगों को चेतराम पर भरोसा है तो बच्चे भी उस नाम को टंगा रहने देना चाहते हैं.” 
मैं हतप्रभ था. वे खुद पर कितना सटीक व्यंग्य कर लेते हैं. 
पार्क से हम साथ –साथ लाइब्रेरी तक जाते. रविवार और छुट्टियों के दिन मैं भी कुछ वक्त वहीँ गुजारता. वे साढे आठ तक निकल जाते और मैं भी अपने रास्ते. 
अब हमारी लगभग रोज़ ही बातें होती रहती. 
मुझे लगता उनकी भूरी -कंजी आँखों में एक खिडकी रहती है. वे अपने तईं उससे चाक चौबंद रहते हैं. खिडकी को मुक्कमिल बंद कर वे लोहे की सांकलें चढा देते हैं. लेकिन लाख ऐहतियातों के बाद भी वह जब –तब खुल ही जाती है. भडभडाहट के साथ सांकलों को सरकाते हुए लकड़ी की वह पुरानी खिडकी खुल ही जाती. उस पर लटकते मकड़ी के जाले और धूल की गर्द उनके झुर्रियों वाले चेहरे पर महसूस होती. खिड़की खुलती तो वे यादों की बारिश में भीतर तक भींग उठते. तब वे वहां नहीं रह जाते थे.    
खिडकी के पार की दुनिया सपनीली थी. उसमें दूर –दूर तक फैले धान के हरे –भरे खेत थे. उनमें काम करते लोग उन्हें अपने से लगते. उधर खेतों के पीछे की पगडंडी बढ़ते हुए नदी के किनारों पर पंहुचा देती तो खेतों के बीच से गुजरता गाडी –गडार रास्ता गाँव की चौपाल पर जा थमता. चौपाल पर वडेरे -बूढ़े लोग जमे रहते. पास में ही फतेह के टप्पर पर चाय पीने के शौकीन लौंडे –लपाड़े वहां जमा रहते. वे घंटों राजनीति और दीगर मुआमलों पर बात करते रहते. उधर आगे गली मुड़कर मंदिर की तरफ चली जाती और इधर कुछ ही दूर आगे मस्जिद से पाँचों वक्त की नमाजें गूंजती रहती.    

मनीष वैद्य द्वारा लिखित

मनीष वैद्य बायोग्राफी !

नाम : मनीष वैद्य
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जन्म -16 अगस्त 1970, धार (म.प्र.)
कहानी संग्रह-  टुकड़े-टुकड़े धूप (2013), फुगाटी का जूता (2017)

सम्मान- प्रेमचन्द सृजनपीठ से कहानी के लिए सम्मान (2017)
यशवंत अरगरे सकारात्मक पत्रकारिता सम्मान (2017)
कहानी के लिए प्रतिलिपि सम्मान (2018)  
कहानी संग्रह फुगाटी का जूता’ पर  वागीश्वरी सम्मान (2018 )
फुगाटी का जूता’ पर ही अमर उजाला शब्द छाप सम्मान (2018 )     
शब्द साधक रचना सम्मान (2017)
श्रेष्ठ कथा कुमुद टिक्कू सम्मान (2018 )     

हंसपहलकथादेशवागर्थनया ज्ञानोदयपाखीकथाक्रमइन्द्रप्रस्थ भारतीअकारबहुवचनलमहीपूर्वग्रहपरिकथाकथाबिम्बवीणासाक्षात्कारआउटलुकपुनर्नवाअक्षरपर्वनिकटयुद्धरत आम आदमी सहित महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में 70 से ज्यादा कहानियाँ प्रकाशित। कुछ रचनाओं का पंजाबी और उड़िया में अनुवाद। 

पानीपर्यावरण और सामाजिक सरोकारों पर साढे तीन सौ से ज्यादा आलेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित

संप्रति -पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों से जुडाव

संपर्क- 11 ए मुखर्जी नगरपायोनियर स्कूल चौराहा,
 
देवास (मप्र) 
पिन 455001  

मोबाइल - 9826013806                   

manishvaidya1970@gmail.com

 

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