उसकी आजादी : कहानी (पद्मा शर्मा)

कथा-कहानी कहानी

पद्मा शर्मा 989 3/2/2021 12:00:00 AM

"विश्व महिला दिवस" को समर्पित हमरंग की प्रस्तुति "एक कहानी रोज़" 'महिला लेखिकाओं की चुनिंदा कहानी' में आज तीसरे दिन प्रस्तुत है वरिष्ठ लेखिका "पद्मा शर्मा" की कहानी । कहानी पर महत्वपूर्ण टिप्पणी लिखी है "महेश कटारे जी" ने ॰॰॰॰॰ कहानी पर आप भी अपनी टिप्पणियाँ नीचे कमेंट बॉक्स में ज़रूर करें।

 

 

उसकी आजादी

मुझे हतप्रभ छोड़ बादामी तो एक झटके से बाहर निकल गई लेकिन मैं उसके शब्दों के अर्थ खोजने लगी थी। उसकी बातें दोगुने वेग से मेरे विचारों पर छाती चली गई।

       दूसरी औंरतों से कुछ अलग व्यक्तित्व है इसका । ...यूं वह बादामी छरहरे बदन की औरत है । त्वचा का रंग खूब गहरा साँवला, किन्तु नाक-नक्श बड़े आकर्षक और तीखे..., बदन सुघड़ और सुदंर ! ऐसा कि हर कोई ठिठककर उसे एक बार देखने को मजबूर हो जाता। कुल मिलाकर सौंदर्य की ऐसी प्रतिमा ; जिसे ब्लैक-ब्यूटी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी। मंगलसूत्र के नाम पर उसके गले में काला धागा, हाथों में सुर्ख लाल रंग की चूड़ियाँ, माथे पे बड़ी -सी बिंदिया, यही साधारण सा श्रृंगार था उसका ।

      ...उस दिन मैंने चाय बनाकर एक कप अपने लिये ले ली और दूसरे कप में छानकर बाई के लिये रख दी थी। दीवार घड़ी पर नजर दौड़ाई तो देखा सात बज गये थे। घड़ी देखकर मन मे शंका उठने लगी की आज लगता है बाई नही आने वाली ।  बादामी के आने का समय साढ़े छः है यानी साढ़े छः- आप घड़ी मिला सकते है उसके आने से ।

      अभी मै चाय का आखिरी घूँट पीकर कप रखने ही जा रही थी कि दरवाजे पर दस्तक सुनी । दरवाजा खोला तो देखा बादामी की बारह वर्ष की बेटी बबली घबराई सी खड़ी है।

      मैंने पूछा, ‘‘क्यों मम्मी कहाँ है ? वो नही आई... ?‘‘

      वह हकलाती हुई सी बोली , ‘‘आंटी जी आज मम्मी नही आएगी, मै यही कहने आई हूँ।’’

      ‘‘क्या कहीं बाहर जा रही हैं वो ? या तबियत खराब है !’’

      उसने फिर नकारात्मक रूप से सिर हिला कर कहा , ‘‘मम्मी ठीक है और घर पैई है।‘‘

       मै खीझ गई ‘‘घर पर है तो फिर क्यों नही आएगी ?’’

       वह एक पल को हड़बडा़ गई, आँखे नीचे कर कुछ देर शांत रही फिर बोली ,‘‘पापा आ गए हैं।‘‘

       इसके आगे कुछ भी पूछने की मुझे जरूरत नहीं थी। बबली वापस चली गई और मैने क्रोध में दरवाजे भेडे जिनकी भडाक, फट- खट, ठक की आवाजें मेरे अंदर के तूफान की आवाजों से मेल खा रही थीं। मैंने कोई प्लान यदि पहले से बनाया हो और किसी कारणवश वह अधूरा रह जाए तो मुझे बहुत कोफ्त होती है। ऐसा लगता है कि प्लान फेल करने वाला सामने मिल जाए उसमें तड़ातड़ चांटे घूंसे मारकर अपनी भडा़स निकाल लूँ। मेरे अंदर का तूफान झंझाबात बनकर झाडू, बर्तन और पानी के भगोने पर उतरने लगा।

       मैं सहसा रुक कर सोचने लगी कि उसका पति कई दिनों के बाद घर लौटा है इसलिए उल्लास में उसने छुट्टी कर ली है। उसने चर्चा में बताया तो था कि उसका पति गोटू ट्रक चलाता है, किसी बात पर दोनों अलग रहने लगे हैं, लेकिन सम्बंध अभी भी पति-पत्नी के हैं। यह भी कि एक महीने से वह कहीं दूर गया है ।

      अगले दिन जब वह आई तो मैं चैंकी। उसके साँवले चेहरे की चमक गायब थी, उसके स्थान पर गहरे काले झाँई के धब्बे गाल के ऊपरी पडावों पर दिख रहे थे। अंदर धंसी आँखों के इर्द-गिर्द गहरे स्याह रंग के घेरे थे। माथे पर लाल बिंदिया सलवटों के साथ ऊँची-ऊँची लग रही थी। बाल जूड़े में नही थे, वे आज लटों का रूप धारण कर इधर-इधर बिखर रहे थे। हाथ की  भर चूडियों में से कई नदारद थीं और कुछ चूड़ियों की तो आवाज ऐसी लग रही थी जैसे वे चटक गई हों। उसकी चाल-ढाल तथा उसके काम में रोज की तरह आज तेजी नहीं थी। बल्कि एक उदासीनता थी, ऐसा लग रहा था कि उसे वैराग्य हो गया है।

      मैंने सहज होकर पूछा, ‘‘ क्यों बाई क्या बात है ? तबियत तो ठीक है।‘‘ वह बडे ही विरक्त भाव से बोली, ‘‘बैनजी मेई तबियत कों का भओ ? मैं तो कारे कऊआ खाकें आई हों। मरई जाती तो दुख काये उठाने पडते , सब जंजालन से मुकुति पा जाती !‘‘

      मैं पटा (चौकी) डालकर आंगन में उसके पास बैठ गई ‘‘बबली‘‘ बता रही थी कि उसके पापा आये थे।‘‘

      पति की बात सुन वह बिफर गई, ‘‘बेनजी वो आदमी नईये पूरौ कसाई है जासे तो होयई नई तौऊ अच्छो है। बिना बात भोतई पिटाई करते मेरी। कल खूब मारो धुंआ लगे ने मोको।‘‘

      मैं चैंकी महिलायें पति की लंबी उमर के लिये करवाचैथ का व्रत रखती हैं पर ये तो अनोखी महिला है , जो पति की मरन कामना कर रही हैं।

      वह उसी आत्र्नाद करते स्वर में बोली , ‘‘बेनजी तुम्हाई सों मैं भौत परेशान हों। मैं वासे कौऊ संबंध नही रखै हों । न्यारे हो गये दोई जन ! मैं वासे अलग रह रई हों तौऊ मोए खाए जात है। बाने मेरी नाक में दम कर दई है।‘‘

      मैंने कहा. ‘‘लेकिन हुआ क्या था ?‘‘

      वह बोली , ‘‘बैनजी कछू नईं सोमवार को पइसा  मिले होंगे सों बस मंगल को शराब पीकें आ गओ और घर भर को गरियान लगौ।‘‘

      मैंने सस्मित कहा, ‘तो क्या हुआ ? शराब पीना तो उसकी पुरानी आदत है न ? फिर वो चाहे तब तुम्हारे घर आता ही रहता है।‘‘

      ‘‘बेनजी जे बात नईंयै, मैं तुमसे का कऊँ। ‘‘ कहकर वह कुछ लज्जाशील हो चली थी। उसने चारों तरफ देखा। जब वह संतुष्ट हेा गई कि आसपास दूसरा कोई नही है तो वह फुसफुसा कर बोली , ‘‘बो मेरे संग के लाने मरो जा रहो है ।  आज तो बेनजी वो काम पे नई आने दे रओ थो, कह रओ थो कि आज मत जा आज मौका देख के ....। अब बेनजी तुमई बताओ मौंडी-मौडा बडे हो गये है, उनके सामने..., फिर दिन में जे काम सोभा देंते का ...?

      अब पूरी स्थिति मुझे समझ आ गई थी।

      मैंने हँसकर कहा, ‘‘बाई वो तुमको बहुत चाहते हैं।‘‘

       मेरे यह शब्द सुनकर वह और अधिक सिकुड़कर गठरी बन गई थी। मैंने उसे समझाया ‘‘देखो बाई, आदमी को भी समय देना चाहिए। जब तक उसके पास बैठोगी नहीं , उससे मन नही जोड़ोगी और उसे अपनी समस्या नहीं सुनाओगी , फिर वह घर -गृहस्थी से कैसे जुड़ा  रहेगा।...’’

      लगता है मेरी कुछ बातें उसके मन में गहराई तक बैठ गई थीं , क्योंकि उसके कुछ महीनों तक उसके लडाई-झगड़े सुनाई नहीं दिये। 

      बादामी इसी शहर की रहने वाली है । उसका भाई पुलिस में सिपाही है। बाई के दो बेटे और सबसे छोटी बेटी बबली है। छोटा बेटा किराने की दुकान पर काम करने जाता है। बडा बेटा महेश मजदूरी का काम करता था, जिससे उसका शरीर अधिक तन्दुरूस्त हो गया है और जल्दी ही जवान दिखने लगा है। अब बबली भी बचपन को छोड आगे की सीढ़ियों पर कदम रख रही थी। उसे देख-देख कर बादामी बाई भी चिंतित रहने लगी थी कि अब उसका विवाह  करना है ।

      मैंने कहा. ‘‘तुम्हारे घरवाले को भी तनखा मिलती है, खर्च उठाता होगा। संग में खाता है, कभी आकर रहता भी है , तो वह भी लड़की की शादी में पैसा लगाएगा।‘‘

      वह बोल उठी , ‘‘बैनजी जेई तो है वो खीर मे सांझ महेरी में न्यारौ है। वैसे अलग रहेगो पर खुद की जरूरत पे आन ठाड़ो होगो।’’

       समय बीतने लगा था। एक दिन माँ की जगह बबली काम करने आई तो मैं चौंक  गई  क्योंकि बाई कभी-भी अपनी लड़की को अकेले काम पर नहीं पहुँचाती थी। इसलिए मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘क्यों मम्मी नही आई ?

      वह बड़ी ही सर्द आवाज में बोली, ‘‘पापा हवालात मे बंद है। मामा ने बंद करवा दिया।‘‘

      सुनकर मैं और भी आश्चर्य में पड़ गई लेकिन बबली मेरे प्रश्नों का समाधान नही कर पाई।

           अगले दिन बादामी आई और घूनमथान (चुप और नाराज) बनी काम करने लगी  तो मेरे सब्र का बाँध टूट ही गया । बाई काम बाद में करना पहले ये बताओ कि इसके (बबली के) पापा को तुम्हारे भाई ने बंद क्यों करवा दिया ?‘‘

      वह बोली , ‘‘बैनजी बाको तो एकई काम है... दारू पीनो और ऊधम करनो। तौऊ नासमीटे को चैन नईये पूरे मोहल्ला में फजीती करवात फिरतै।‘‘

      मैंने उसे घूरते हुए कहा, ‘‘लेकिन तुम्हारी तो उससे पटने लगी थी न !... अब क्या हुआ ?‘‘

            अब तक दूसरे कमरे में जाकर बबली अपने कामों का मोर्चा संभाल चुकी थी, इसलिये बादामी खुलकर बोली मैने मुक्तेरे दिनों से वा से ‘‘बात’’ बन्द कर राखी है सो फिरंट हो रहा है‘‘ थोड़ी देर चुप रह कर शून्य में ताकती फिर वह बोली , ‘‘ बस जईपे से वो ऊधम कर रऔ है । वो कहतै कि कामवारे मालिकों से तेरे गलत संबंध होंगे , तईसे तू मोसे ‘‘बात‘‘ नईं करती। वो मोये धमकी देतै कि तेरो पीछो करोंगो और तेरे काम वालों से लड़ के आओंगो। कल ज्यादई ऊधम करन लगौ तो भईया ने थाने में कह के बिठा दओ। पहलैं तो बानें खूब ठूँस के रोटी जे लई, तऊँ सिग रात गरियात रओ कि मैंने बाये भूखो रखो । ’’ बहनजी बाको तो ऐसोई हाल है कि

            सात खाईं ताती और सात खाईं सद

            जेठे बड़े को नौतो करो सात खाईं तब

            सास के से साग ल्याइ सात खाईं तब

            झांसी को वैद बुला दो भूंख नइयें अब

      दो दिन बाद मेरे बेटे रिंकू का बर्थडे आया। मैं लगातार काम में जुटी रही सो रात तक मेरा शरीर निढा़ल हेा गया था। रात ग्यारह बज चुके थे ...। मन सोने को हो रहा था लेकिन संदीप की इच्छा तो कुछ और ही थी। मेरा मन न था... पर संदीप जिद पर था। संदीप की जबरदस्ती पर मैं खिसिया गयी। मन अचानक बादामी से खुद की तुलना करने लगा। उसको तो रोज का ही इतना सारा काम रहता है। वह भी तो रेाज ही थक जाती होगी , फिर आराम के समय उसके आदमी का जबर्दस्ती करना उसे कितना बुरा लगता होगा। मुझे अंदर ही अंदर बाई से एक अजीब-सी सहानुभूति होने लगी।       

      कुछ दिन बाद बाई सुबह-सुबह आई तो मैंने कहा, ‘‘पहले चाय पी लो बाई फिर काम करना नहीं तो तुम मशीन की तरह काम करती ही रहोगी और रात तक लगी रहोगी।‘‘

      सुनते ही वह फूट-फूटकर रेाने लगी ।मैं स्तब्ध हो उसे देखने लगी ,‘‘अरे क्या हो गया ? इतनी बुरी तरह क्यों रो रही हो ?’’ 

      वह बोली , ‘‘बैनजी अब तौ जीनौंई बेकार है ऐसे इल्जामन तैं तेा अच्छौ है कि ईश्वर मोये मौत दै दे।‘‘

      मैंने सोचा, सदैव जिंदादिली से जीने वाली तथा हर समस्या का जीवटता से सामना करने वाली बादामी, आज इस तरह निराशा भरी बातें कैसे कर रही थी। मुझे लगा वास्तव में कोई बहुत बड़ा कारण होगा।...

      वह देर तक सुबकती रही फिर बोली, ‘‘वो रात कौ पी आऔ थौ। रोटी खा लई, पानी पी लओ, बिस्तर कर दओ, तौउ वाये चैन नई पड़ौ, तौ बस लगौ गारी दैवे। बड़े मौडा़ पे सहन नई भई तो बानें बाप खौं पीट दओ। रात कों तौ उठि के जाने किते चलो गओ लेकिन भुनसारे आकें बानें ऐसी- ऐसी बाते कहीं, कै सही में बैनजी मोये तो कहतई में सरम आ रईये।‘‘ कहने के साथ उसकी आँखों से आँसू बह पड़े ।

      वह थोडी देर चुप रही, फिर रेाते हुए बोली, ‘‘ अबें तक तौ कामबारन के संगें संबंध बतात थौ, लेकिन आज तो हद्दई हो गई..., आज कहन लगो कि तेरे तो अपनेई बड़े मौड़ा से गलत संबंध हैं, तइसें तू मौंसे बात नई करती और बासे पिटवातै ,मैं तो जमीन में गड़ गई सीधी।‘‘

      कुछ समय के लिय मैं भी सन्न रह गई। लगा मानो धरती घूम रही है और आसमान गिर रहा है। मुँह से कुछ नहीं निकला । मैं यंत्रचालित सी अपने कमरे में आ गई और बिस्तर पर गिर पड़ी ।

      मन में अजीब से प्रश्न उठ रहे थे कि क्यों हमेशा स्त्री को ही अपनी शुचिता का प्रमाण  देना पड़ता है ? पुरुष हमेशा उसे लांछित , पददलित और प्रताड़ित करता रहता है और सिर्फ एक ही आरोप है, जिसे उछाल कर पुरुष विभिन्न तरीकों से अपनी इच्छा पूर्ण कर लेता है।

      समय बीतता रहा...।

      एक दिन अचानक बबली सूचित कर गई, ‘‘ आंटी जी मम्मी अस्पताल गई हैं, वो नई आएंगी।‘‘

      मैंने कहा, ‘‘क्यों क्या हुआ मम्मी को ?

      वह बोली ,‘‘पापा की तबियत खराब है, उनके संग गई है।‘‘

      दो -तीन दिन बाद शाम के समय बड़ी तेजी से बाई घर आई तो मन में कई प्रश्न थे। मैने पूछ ही लिया, ‘‘ बाई तुमने अपने आदमी को भर्ती क्यों कर दिया।’’ वह बोली , ‘‘ बैनजी वेा एंनई सूक गओ है। चार पाँच दिनों से खूब दस्त लग रए हते और बुखार चढ़ो हतो। हस्पताल में भर्ती कराओ तौ बाके शरीर में कई जगै गाँठें भी मिली हैं । कई जगह खाल में छाले जैसे निशान भी पड़ गयेयें। खांसी के मारे चैन नइये । कछु उधार दे दो, मोये डर है के वाये वो एड न होए ।‘‘

      मुझसे पैसे लेकर वह तेजी से वापस चली गई लेकिन मेरे कई प्रश्नों को वह अनुत्तरित ही छोड़ गई । कैसा है स्त्री का मान ! उसी से नफरत , उसी से प्यार...। कहीं सचमुच इसके पति को एड्स हो गया होगा , तो क्या होगा इसके घर का ?

     दो-तीन महीने बीत चुके थे ... । बादामी का कही पता नहीं था। मैंने दूसरी बाई रख ली ।

      आज बादामी आई। मैंने पूछा, ‘‘बाई कैसी तबियत है उसकी ? क्या हो गया उसे ?’’

      बादामी सिसकते हुए बोली, ‘‘वो ट्रक ले के जहाँ - तहाँ घूमत थो और जाने कहाँ-कहाँ मुँह मारत हतो । सो कहीं की जनी से एड लगा लाओ । बैनजी डॉक्टरन ने तो जबाब दे दओ। तुम सबन की दुआ लग जाय तो बच जायेगो। मौड़ा -मौड़िन के ब्याए कर लेयगो। अब तो बैनजी खूब कसमें खातै, कि अब तोये परेसान नही करउंगो, ...तोए तनखा लाके देउंगो, कोई औरत के पास नईं जाऊंगो। बस बचा ले मोय। ...लेकिन अब का हो सकतै ?’’  फिर एक आशा भरी निगाह से मुझे देखकर उसने पूछा , ‘‘काए बैनजी जा बीमारी कौ कौनऊ इलाज नइये का ?‘‘

     मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि उसे नकारात्मक उत्तर देकर सेवा में लगी उसकी ऊर्जा को नष्ट कर दूँ। बस प्रकट में उसकी आशा के लिये एक शब्द बोलती हूँ , ‘‘हाँ‘‘ ...।

       फुसफुसाते हुये बादामी बोली , ‘‘बैनजी जे मर्द कित्तेऊ दूबरे हो जायें ,फिर भी इनमे घोड़ा जैसी ताकत बनी रहते। आज अस्पताल में बबली के बाप खों नहलावे के लाने ले गई तो धुंआ लगे ने लपक के दरवाजे बंद कर लये और मेरी साड़ी खेंच डारी । फिर मोखों जमीन पे पटक लई जबरिया.........‘‘

      वह साँस लेने को रुकी तौ मैं व्यग्र हो उठी, उसके निकट खिसक आई और फुसफुसाते हुए पूछा ‘‘फिर ? ‘‘

      ‘‘फिर का बैनजी पहले तो इच्छा भई की अपन भी कित्ते दिन से तरस रहे,  हो जान दो वा के मन की। ..और सांची तो जा है कि अपने मन की भी। ...फिर अपनी और बच्चों की हालत याद कर हिया कड़क करो, और उठते वाये ऐसो धक्का मारो के दीवार से जा टकराओ । खपड़िया से लहू बह उठो , सो लुगाइयन की नाईं रोन लगो।’’

      मैं तो उठी और अपने कपड़ा संवार के बाहर आ गई।

      मैंने राहत की साँस ली ‘‘चलो, शुक्र है कि बच गई।‘‘

      ‘‘का कह रई हो बैन जी, कोई लुगाई ना चाहे तो मर्द की का हिम्मत !  कै बो उंगरिया भी छू सकें...  और आज के जमाने में हम सब जनी इतनों तो हक राखत है कै जबे अपनीऊ मर्जी होय, तब ही मर्द को पास आन देएँ । ऐसो भी ना कर सकें तो काहे की पढा़ई -लिखाई और काहे की तरक्की...।‘‘

      ...मैं हतप्रभ होकर उसकी बात सुन रही थी।  वह उठी और चेहरे पर एक अनूठे तेज के साथ वहाँ से चल पड़ी।

 

कहानी पर 'महेश कटारे' की टिप्पणी -

‘उसकी आजादी’ केवल बादामी की आजादी नहीं है॰॰॰

महेश कटारे 

हिन्दी समाज आज समय के जिस मुहाने पर खड़ा है वहाँ एक ओर पीछे से पुकारता अतीत है तो दूसरी ओर आगे अचीन्हे संसार की ओर खुलते गवाक्ष, नई दुनियाँ की आहटें और आकर्षण हैं। यही कारण है कि हिन्दी कहानी का परिदृश्य शायद ही कभी पहले इतना समृद्ध व विविधता भरा रहा हो। भाव, वस्तु तथा भाषा के बहुरंगी कथा-फलक की इस दीप्ति में डॉ० पद्मा शर्मा की कहानी 'उसकी आज़ादी'  अपना विशेष जमीनी स्वाद एवं स्वरूप लेकर उपस्थित होती हैं। इस स्वाद में वह साहस व संकोच भी है जो कभी मिर्ज़ा ग़ालिब के रूबरू भी खड़ा हुआ था कि ईमान रोकता है और कुफ्ऱ आगे बढ़ने कहता है। यहीं एक बात छिपी है कि रचनाकार का कुफ्ऱ भी ईमान की खोज में आगे बढ़ता कदम ही है। हिन्दी पट्टी के मध्यवर्गीय पुरुष प्रधान समाज ने घर की जरूरतों या सुविधाओं के संग्रह की ललक में स्त्री को घर से बाहर निकलकर कुछ अधिक, अतिरिक्त कमाने की अनुमति तो दी है पर इस हिदायत के साथ कि वह घर के बाहर भी घर-भीतर रहें। यह कहानी औरत के कंधों पर लदे घर की दहलीज के किवाढ़ खोलकर देखने के साथ , हलचल भरी दुनियाँ के बारे में अपनी तरह सोचने का दस्तावेजीकरण है।

 इस कहानी में वे पात्र/चरित्र नहीं जो अखबारों की सुर्खियों अथवा मीडिया का पकवान बनते हैं। वह संसार तो ‘ इंडिआ वर्ल्ड ’ है जबकि यहाँ भारत है, हिन्दोस्तान है।  कहानी अपने अर्थ-संकेतों में गहरे संस्तर तक उतरती हुई कथाकार की पक्षधरता को स्पष्ट करती है। अनेक बार कथातत्व प्रक्षिप्त महानगरीय बोध के उच्छिष्ट प्रभावों की कस्बाई स्वीकृति वा निषेध की सामान्य वृत्ति के साथ भी खड़ा प्रतीत होता है। पद्मा शर्मा कहानी के माध्यम से मध्यमवर्गीय जीवन में अभाव तलाशकर , वहाँ का ताप मापती हुई संभावित हल प्रस्तुत करती है। कहानी की एक विशिष्टता है कि यहाँ स्थितियों के प्रति असहमति किसी ‘आइडिया ’ की तरह कोंधकर कहानी में ढल जाती हैं । पद्मा शर्मा के इससे मिलते-जुलते जीवन के प्रामाणिक अनुभव कहानियों में हैं। ‘उसकी आजादी’ केवल बादामी की आजादी नहीं है वह आजादी है, उन सबकी जो संस्कारगत जड़ता से दूर वर्तमान संदर्भ में अपने हितार्थ सोच का जज़्बा रख सकते हैं। मजदूरी पेशा वाली औरत को भी हक-हकूक और पति के इशारे भर पे बिछ जाने की गुलामी से आजादी चाहिए।

  कथा जगत् में आज जैसी चकाचौंध पैदा करती भाषा, चमकता शिल्प, चौंकाऊ तथा इंटरनेट प्रसूत विचार व वस्तु की चौपड़ है। शिखर पर नींव जमाने या नींव की जगह शिखर बैठाने का प्रायोगिक शिल्प , कहानी का आदि किसी विदेशी सूक्ति को उपस्थित कर अथवा बीच-बीच में सूक्तियों , जुमलों की टेक लगाकर प्राक्कल्पना सिद्ध करने का दौर दौरा है। प्रायोजित अहो-अहो में द्रोपदी के चीर-सी आदि अंतहीन कहानियों को पढ़ना जब द्रविड़ प्राणायाम बन रहा हो तब पद्मा शर्मा की कहानी की सहजता ही स्वयं शक्ति बनकर अपने आगे का रास्ता खोलती है।

(प्रयुक्त प्रतीकात्मक चित्र google से साभार )

पद्मा शर्मा द्वारा लिखित

पद्मा शर्मा बायोग्राफी !

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       कविता संग्रह - प्रकाशनाधीन

प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, समीक्षा, व्यंग्य व आलेख प्रकाशित।

सम्मान/ पुरस्कार- कई सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उनमें से कुछ महत्वपूर्ण हैं-

म प्र साहित्य अकादमी भोपाल द्वारा ‘‘सुभद्राकुमारी चौहान पुरस्कार’’।

वागीश्वरी सम्मान - म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘‘जल समाधि तथा अन्य कहानियाँ’’ पर दिया गया।

जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर द्वारा ‘‘हिन्दी सेवी सम्मान’’ 2012 दिया गया।

कथाबिम्व पत्रिका मुम्बई द्वारा कमलेश्वर कहानी पुरस्कार।

मध्यप्रदेश लेखक संघ द्वारा डॉ संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान

प्रसारण-

जिया न्यूज चैनल, नोएडा से दिनांक 7 दिसम्बर 2013 को ‘सुप्रभात’ कार्यक्रम के अन्तर्गत डॉ पद्मा शर्मा के इन्टरव्यू का सीधा प्रसारण। 

दिल्ली दूरदर्शन तथा राज्यसभा चैनल आदि से प्रसारण।

कई साहित्यिक समूहों के कार्यक्रम में कहानी एवं काव्य पाठ

आकाशवाणी ग्वालियर तथा आकाशवाणी शिवपुरी द्वारा कहानी, कविता, परिचर्चा, वार्ता, प्रसारित एवं फीचर लेखन।

विशेष- कहानियों का तेलुगु, पंजाबी, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद। 

शोध निर्देशन- छह शोधार्थी मेरे मार्गदर्शन में शोध कार्य पूर्ण कर चुके हैं।

आठ शोधार्थी शोधकार्यरत हैं।

सम्प्रति- म. प्र. उच्चशिक्षा विभाग में प्राध्यापक ,हिन्दी 

वर्तमान में एम एल बी कॉलेज ग्वालियर

पता- डॉ पद्मा शर्मा, एल-1, 14 विंडसर हिल

न्यू कलेक्ट्रेट के पास 

ग्वालियर, म. प्र. 

मोबाइल नं.ः- 09406980207 

ई मेल:-  dr.padma_sharma@rediffmail.com

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पोस्ट की गई टिप्पणी -

Aditi Sharma

12/Apr/2021
कहानी काफी अच्छी है ऐसा संदश अच्छा है

कमला नरवरिया

04/Mar/2021
स्त्री मन की पर्तो को खोलती बेहतरीन कहानी

कमला नरवरिया

04/Mar/2021
स्त्री मन की पर्तो को खोलती बेहतरीन कहानी

जीतेन्द्र कुमार

04/Mar/2021
आपकी यह कहानी बहुत अच्छी लगी।

Raj bohare

03/Mar/2021
पद्मा शर्मा की यह कहानी आज की उस निर्भीक और जागरूक स्त्री की कहानी है जिसका वर्ग और पेशा महत्वपूर्ण नही बल्कि उसके विचार और धारणा महत्वपूर्ण है, वह नहीं चाहती कि उसकी मर्जी के बिना उसके पति को भी यह हक नही कि उसके साथ अन्तरंग हो। समाज के शोषित वर्ग से उठती ऐसी तेजस्वी स्त्री बादामी को सैल्यूट ही किया जा सकता है।

हाल ही में प्रकाशित

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