कोख : कहानी (नमिता सिंह)

कथा-कहानी कहानी

नमिता सिंह 1936 3/8/2021 10:03:00 AM

'हमरंग' की प्रस्तुति "एक कहानी रोज़" 'महिला लेखिकाओं की चुनिंदा कहानी' में आज आठवें दिन "अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस" पर प्रस्तुत है वरिष्ठ लेखिका और संपादक "नमिता सिंह" की कहानी । 'नीलम कुलश्रेष्ठ'  और 'डॉ० सुनीता'  की टिप्पणी के साथ  ॰॰॰॰॰ । कहानी पर आप भी अपनी टिप्पणियाँ नीचे कमेंट बॉक्स में ज़रूर करें।

कोख

अंबालिका उद्विग्न थी। दासी ने उसके कान में कुछ कहा और फिर मुंह ताकने लगी।

-     सच कह ! तुझे भ्रम हुआ होगा ? क्या सचमुच तूने अपने कानों से सुना था ?

-     हां देवि ! मैं माता सत्यवती के प्रासाद में थी। उन्होंने मुझे बुला भेजा था।

दासी चपला ने स्वामिनी के मुख के भावों को पढ़ना चाहा। गहरे सोच में डूबी अंबालिका ने जैसे उबरते हुए कहा

-     फिर ? क्या कहा उन्होंने !

    वहां वीर प्रवर गांगेय के साथ वे मन्त्रणा में लीन थीं। मैं दरवाजे पर खड़ी थी और माता सत्यवती के आदेष की प्रतीक्षा कर रही थी। वीर प्रवर बहुत धीमे स्वर में माता से कुछ कह रहे थे। मेरे कदम आगे बढ़े थे कि मैंने सुना, गांगेय ने स्पष्ट कहा था कि भ्रातृश्री ऋषि श्रेष्ठ व्यास हस्तिनापुर के अतिथि होंगे। उनकी कृपा है कि उन्होंने हमारा आतिथ्य स्वीकार किया है।

-     लेकिन चपले ! वे तो हस्तिनापुर के अतिथि हैं। माता सत्यवती और ज्येष्ठश्री भीष्म उनकी आतिथ्य सेवा में होंगे। बहुत से बहुत हुआ और माता हमें आज्ञा देंगी तो हम अवष्य ऋषिवर के चरणों में प्रणाम करने जायेंगी’’.... अंबालिका ने सहज होने का प्रयास किया।

-     नहीं देवि ! उन्होंने स्पष्ट कहा था कि....

    बार-बार इस अप्रिय प्रसंग को मत दुहरा चपले ! मुझे और अवसाद में न डाल !

      अंबालिका अपने आसन से उठ कर खड़ी हो गयी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? अपने कक्ष में चहलकदमी करते हुये वह गवाक्ष से बाहर देखने लगी। सरोवर के शांत जल में कमलिनी अर्धनिमीलित थीं और सभी जैसे गरदन झुकाये कुछ सोच रही थीं। अपनी स्वामिनी के साथ वह भी उनकी चिन्ता में सम्मिलित थीं। कोमल, धवल श्वेत कमलिनी.... इनके ऊपर कोई पत्थर से प्रहार कर दे या उनको भारी भरकम शिलाखंड के नीचे दबा दिया जाय.... जीवित बचेंगी क्या? अंबालिका की दृष्टि ऊपर गयी। नीले आकाश में उड़ते सफेद बादलों के झुंड ! अंबालिका का मन किया कि वह भी इस महल के परकोटों को पार करती उसकी चार दिवारी से बाहर निकले.... ठंडी मस्त हवा में उड़ चले इन बादलों के साथ.... मुक्त हृदय से विचरित करती हुई छुप जाये बादलों में। कितनी असंभव कल्पना ! राजकुल की राजकुमारी... हस्तिनापुर राज्य की महारानी... क्या स्वतंत्र है अपने मन की उड़ान के साथ जीने के लिये ? जितनी बड़ी सत्ता उतने ही विशाल लौहकपाट। राजमहल के गर्भ में स्थित अंतःपुर के सुदृढ़ परकोटे। क्या प्रतिष्ठा के साथ बन्दी जीवन अनिवार्य है? शायद नारी के लिये यही सत्य है। नहीं, वह इन वेदनामय असह्य परिस्थितियों में नहीं रहेगी... कोई राह निकालनी होगी।

नमिता सिंह 

      क्या अनर्गल बातें सोचने लग पड़ी राजरानी। क्या हमसे कोई मंत्रणा की जा रही है  हमें क्या यह अवसर मिलेगा कि इच्छानुसार हम स्पष्ट करें कि हमें क्या प्रिय है और क्या अप्रिय। हमारे  पक्ष में तो केवल आज्ञा पालन है। यही हमारा धर्म है..... यही शास्त्र है। स्वामी की आज्ञा.... मातृश्री की आज्ञा... ज्येष्ठश्री की आज्ञा....। हमारे जीवन पर हमारा वश नहीं। अंबालिका को आज बहन अंबा का स्मरण हो गया। उसकी ज्येष्ठ बहिन अंबा! तीनों बहनों में सबसे सुंदर। आत्मविश्वास और कमनीयता का बेजोड़ मिलन। संपूर्ण आर्यावर्त के राजकुलों की कामना। दूर-दूर तक उसके सौंदर्य और बुद्धिमानी की ख्याति..... प्रेम और मेधा की अपूर्व स्वामिनी..... अंबालिका के सम्मुख जैसे पूरा घटनाक्रम जीवित हो उठा हो......

काशी नरेश कितने प्रसन्न थे। पूरा राज्य उत्सव के रंग में मदमस्त था। पराक्रमी एवम् प्रतिष्ठित काशी नरेश ने पहले तो केवल ज्येष्ठ पुत्री अंबा के विवाह हेतु स्वयंवर का आयोजन करने का विचार बनाया था। फिर एक दिन उपवन में तीनों राजकन्याओं को देखा। वे भ्रमवश  अंबिका को अंबा समझ बैठे थे। भूल इतनी बड़ी कदापि न थी। सहज स्वाभाविक थी। लेकिन इसने यह विचार अवश्य दिया कि तीनों ही कन्यायें विवाह योग्य हैं। अप्रतिम सौंदर्य की धनी अंबा से कहीं कम अंबिका और अंबालिका नहीं थीं।

अंबा को तो जैसे मनवांछित मिला हो। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कई दूतों के माध्यम से शाल्व राज अंबा के प्रति प्रेम प्रदर्शन कर चुके थे। अंबा स्वयं शाल्व राज के प्रति आसक्त थी। शाल्व राज का शौर्य और पराक्रम भी आर्यावर्त में चर्चित था। निरंतर युद्ध जीतते और राज्य विस्तार करते शाल्वराज की महारानी बनना राजकुमारी अंबा का अभीष्ट था।

काशी नरेश ने इसी प्रयोजन हेतु स्वयंवर का आयोजन किया था। वीरोचित परिणय ही अंबा को अभीष्ट था और शाल्वराज को भी।

स्वयंवर मंडप में आर्यावर्त के चुने हुए राजपुरुष मानो तारामंडल के रूप में सुषोभित थे। इनके बीच एक नहीं, दो नहीं, तीन चन्द्रमुखी रूप सी राजकन्यायें मन्थर गति से कदम बढ़ा रही थीं....... अंबा को अपना अभीष्ट दिखाई दे रहा था। वह आगे बढ़ रही थी। पीछे अंबिका और अंबालिका अर्ध निमीलित नयनों से हिरणी की तरह इधर-उधर देखतीं। जिस राजपुरुष के सम्मुख पहुंचतीं, उसका यशोगान चारण करने लगते.....

तभी जैसे स्वयंवर मंडप में भू चाल आ गया हो। एक बड़ा समूह अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित सैनिकों का और उनके आगे, एक राजपुरुष मानो युद्ध के मैदान में चला आ रहा हो। शुभ्र धवल दाढ़ी। संकल्प से भरे विशाल नेत्र ! अजानबाहु ! माथे पर शिरस्त्राण और शरीर पर कवच धारण किये। कंधे पर धनुष, पीठ तरकस से सुसज्जित। कमर से लटकती तलवार।

तीनों राजकन्यायें भयभीत हिरणी सी जहाँ थीं, वहीं जैसे जम गयीं हों। कदम थम गये। वरमाला हाथों से गिरने लगी। ये दिव्य पुरुष हस्तिनापुर के राजपुरुष, कुल संरक्षक, वीरवर भीष्म थे। सभा मंडप के बीच उन्होंने क्या कहा, वे शब्द तो जैसे किसी के कानों में पड़े ही न थे। चेतना जागी तो सिर्फ इस आदेश से कि उन तीनों को बाहर खड़े रथ में बैठना है। यह गंगापुत्र परमवीर आर्य भीष्म की आज्ञा थी। हस्तिनापुर जैसे बलशाली, साम्राज्य के आगे किसी की क्या हस्ती थी। क्या मजाल थी। कौन प्रतिरोध करता। काशी नरेश सिंहासन से उठने का उपक्रम करते-इससे पहले ही भीष्म उनसे करबद्ध निवेदन कर चुके थे। क्षत्रियोचित वीर परंपरा का निर्वाह ही तो हो रहा था। स्त्रियां हाड़मांस की पुतली-इच्छा-अनिच्छा से परे...... जो बलशाली हो, उठाकर ले जाय.... यह सर्वथा वीरोचित कृत्य ही तो था..... राजकुलों की परंपरा के अनुरूप ही था। काशी नरेश मौन होकर फिर अपने सिंहासन पर बैठ गये।

अंबा के पैर ठिठके थे। उसने नजर उठाकर सामने विराजमान शाल्वराज को देखा था..... वह रुक गई थी कि संभवतः कोई हाथ पकड़ कर रोक लेगा.... लेकिन सब कैसे मन्त्रबिद्ध थे.... आतंक से सम्मोहित थे।

भीष्म ने पीछे रुक गई अंबा को देखा था और पुनः उसे आज्ञा दी थी कि वह रथ में विराजमान हो...... आँखों में आँसू लिये अंबा रथ की ओर चल दी थी।

सब इतनी जल्दी हो गया। लोग जैसे नींद से जागे हों..... और अब भीष्म के रथ के पीछे अन्य रथ थे। यह स्वयंवर में आमंत्रित नरेशों का सरासर अपमान था। तीरों की बौछारें दोनों ओर से हो रही थीं। शाल्वराज ने अपने हथियार संभाले, अपने सैनिक साथ लिये और वह अन्त तक पीछा करता रहा। अंबा इष्ट देव का स्मरण करती रही और शाल्वराज अपने मान-सम्मान की रक्षा हेतु जूझता रहा।

सम्पूर्ण आर्यावर्त जिसके बाहुबल और शौर्य प्रताप का साक्षी था.... उसके सामने कोई नहीं टिक सका। शाल्वराज भी अंततः घायल होकर वहीं खड़ा रह गया और कुंवर भीष्म ने तीनों राजकन्याओं को माता सत्यवती के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया।

      “माते, आप भ्राता विचित्रवीर्य के विवाह के लिये चिंतित थीं। मैं एक नहीं तीन राजकन्याओं का हरण कर लया !”

      “पुत्र.... ऐसा.....”

      “हाँ माते ! मैं ठहरा ब्रह्यचारी। मैं कैसे सुनिश्चित करता कौन सर्वाधिक योग्य है....”

      “तीनों एक से बढ़कर एक हैं पुत्र.... राजमाता सत्यवती निहाल थी।“

      अंबा ने अस्वीकार कर दिया विचित्रवीर्य को। वह मन ही मन शाल्वराज को पति मान चुकी थी। वह किसी अन्य को कैसे वरण करेगी ......।

अंबा का तर्क उचित था। यही मर्यादा थी। भीष्म ने पूरे सम्मान के साथ और लावलष्कर के साथ अंबा को बिदा किया। वह स्वतंत्र थी शाल्वराज के पास जाने के लिये.... वह गयी.... शाल्वराज के दरबार में दस्तक दी।

लेकिन यह क्या ! शाल्वराज ने उसकी ओर देखा तक नहीं। उसका हरण हुआ था। अब कौन अंबा, कौन शाल्वराज। वह अपना अपमान न भूले थे जब भीष्म ने घनघोर बाणवर्षा कर उन्हें विवश किया था कि वे लौट जांय। हस्तिनापुर राज्य के हाथों अपमानित होकर वह भीख में मिला प्रसाद ग्रहण नहीं करेंगे..... अंबा को स्वीकार नहीं करेंगे। याचक बनी नारी एक बार फिर दरबार से तिरस्कृत होकर लौटी थी।

अपमानित अंबा पुनः हस्तिनापुर में थी। भीष्म ने उसका हरण किया था, वही उसका वरण करें.... यही धर्म है, यही न्याय है।

भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से बंधे हैं। पिता को दिया वचन। माता को दिया वचन....। एक नहीं सौ अंबा आ जांय..... वह अपनी प्रतिज्ञा भंग नहीं करेंगे.....।

अब.... कहां जाय अंबा। पिता-पे्प्रेमी-हरणकर्ता..... कोई स्वीकार नहीं करेगा..... वह युद्ध में जीती हुई ऐसी संपत्ति जिसका कोई स्वामी नहीं..... उसका दोष ? शायद उसका स्वाभिमान था.... अपनी इच्छानुरूप अपने जीवन अस्तित्व का बोध था।

युग-युग से ऐसी स्थिति में अबला को जगह मिली है अग्नि की गोद में। यही नियति अंबा की थी। उसके सम्मुख अब कोई शरणदाता नहीं था।

सबके सामने चिता प्रज्जवलित कर अंबा लपटों के बीच खो गयी। अंबा ने साहस किया था। अपनी भावनाओं को शब्द दिये थे। लेकिन परिणाम... अपमान-घोर अपमान। उसके संपूर्ण नारीत्व का अपमान। उसकी इच्छाओं का तिरस्कार। उसके व्यक्तित्व की ऐसी अवहेलना... गेंद की तरह लुढ़कती रही वह अपने आत्म सम्मान के लिये... और क्या परिणाम हुआ उसके संघर्ष का, उसके प्रतिरोध का..... अंबालिका का हृदय फिर अवसाद में डूबने लगा। अंबा की चिता की लपटें जैसे उसके सम्मुख फिर प्रज्जवलित हो उठी हों। लपटों की उष्मा उसके भीतर प्रविष्ट हो उसे झुलसाने लगी थी।

मन पर किसका वश है ? कल्पना में ही सही... मन सारे बंधन तिरोहित कर उन्मुक्त... पंख फैलाये उड़ने लगता है लेकिन धरती पर पैर टिकाते ही प्रश्न मुंह बाये खड़े हो जाते हैं कि हमारा आकाश कहां है...

      अंबालिका फिर घूमफिर कर अपनी शय्या पर आ बैठी। उसकी दोनों दासियां उसके आदेश की प्रतीक्षा में थीं। उसने उन्हें बाहर जाने का संकेत किया और चपला को आदेश दिया कि वह अंबिका के प्रासाद में संदेश लेकर जाय। वह मिलने जायेगी अपनी सहोदरा से। उसके पास भी तो कोई सूचना होगी। अंबिका बड़ी है। अधिक प्रबुद्ध है। उसके पास निश्चित कोई संदेश होगा... समाधान भी होगा।

      अंबिका अपने कक्ष में वीणा के सुरों में खोई थी। चपला के साथ छोटी बहन को देखा तो उसकी उंगलियां थम गईं। स्वामिनी का संकेत पाकर चपला भी कक्ष से बाहर चली गई। वे दोनों अब न पटरानी थीं और न महारानी। न ही अब वे सौतें थीं... अब वहां सिर्फ दो बहनें थीं... सिर्फ दो नारियां, नितान्त अकेली। निजता के स्तर पर एक दूसरे की हमजोली, सखी....। संपूर्ण नारी जाति के प्रतिनिधि के रूप में सिमट आई थीं एक दूसरे के समीप।

      अंबिका सचमुच अधिक गंभीर थी। वो राजमहिषी थी। सत्ता की आवश्यकताओं से पूर्ण रूप से परिचित। राज्य को उत्तराधिकारी चाहिये। हम दो महारानियाँ और हमारे स्वामी संतान से वंचित रह गये। राज धर्म कैसे निभेगा। इस अजेय प्रतिष्ठित हस्तिनापुर राज्य की वंशबेलि का प्रश्न था।

-     क्यों अंबिके ! संतानोत्पादन में क्या अकेले नारी की भूमिका होती है ? उसका शेष अर्धांग पुरूष ? उसकी उपस्थिति बिना कैसी संतान ?

      अंबिका हंसने लगी।

-     क्यों, महाराजा विचित्रवीर्य... हमारे स्वामी .... वह कहां हैं ?

-     हमारे पुरूष! अंबालिका ने बीच में ही बात काटी और वह भी हंसने लगी।

अचानक अंबिका गंभीर हो उठी और अंबालिका की पीठ को अपनी बांहों से घेरते हुए उसे अपने समीप खींच लिया। छोटी बहन के प्रति उसके हृदय में लहराता स्नेह उन दोनों को आप्लावित करने लगा।

-     बहिन ! महाराज सन्तानोत्पादन के लिये सक्षम नहीं रहे, इसे सब जानते थे। वे अति विलासी थे लेकिन दोष औरतों के सिर पर ही आता है। पुरुष का पुरुषत्व चुनौती नहीं सहन करता। उसका अहम् पर्वत समान होता है। उसे ज्ञात है कि उसके अहम् की आधारभूमि खोखली है इसीलिये वह और अधिक तीव्रता से स्वयम् पर्वत की चोटी पर जा अवस्थित होता है और निरन्तर धरती पर प्रहार करता है। पैरों तले रौंदता-मानमर्दन करता है। मानो इससे उसका पुरुषत्व स्थापित होगा.... निर्विवाद स्वामित्वधारित होगा।

-     तो ? अंबालिका के नेत्रों में प्रश्न थे। उसकी निश्छल वय संभवतः इन जटिलताओं और उनके समाधानों के व्यवहारिक पक्ष से अनभिज्ञ थीं।

-     तो यह कि अंबालिके, जो भी वीर्यवान पुरूष हमें उपलब्ध कराया जाय उससे गर्भवती होकर हम नारी धर्म का पालन करें।

-     क्या चाहा-अनचाहा कोई भी हो ?

-     हां ! निश्चित रूप से अनचाहा ही होगा। जिसे देखा न हो, जिससे परिचय न हो... जिसके प्रति कोई भाव, कोई संवेदना न हो... वह निश्चय ही अनचाहा, अपात्र होगा। जो उपलब्ध कराया जायेगा... उसी से गर्भधारण कर हमें अपना नारीत्व सिद्ध करना होगा। यही समाज व्यवस्था है और व्यवस्था का पालन करना ही हमारा धर्म है...

-     लेकिन अंबिके.... महाराज ? महाराज के प्रति हमारा धर्म....

-     पगली। हमारे महाराज चिरंजीवी होते... अक्षय प्रतापवान होते... हमारी तो यही कामना थी लेकिन विधि के विधान पर हमारा कोई वश नहीं है। महाराज यदि आज यहां होते तो माता सत्यवती की आज्ञा का पालन करते हुए वे भी यही व्यवस्था देते।

-     तो क्या महाराज के न रहने पर भी मदनोत्सव का आयोजन परंपरागत विधि विधान से ही होगा ?

अंबिका छोटी बहन अंबालिका को सहज बनाने का प्रयास कर रही थी। उसकी बात सुन कर हंस पड़ी।

      “केवल हमारे गृहस्थ पुरूष ही नहीं, ये ऋषि मुनि भी सदैव उत्सव धर्मी होते हैं। सांसारिक उत्सव के साथ ही आत्मा और परमात्मा के उत्सव समायोजित करने की अद्भुत क्षमता और शक्ति रखते हैं। आयु और अनुभव की परिपक्वता उस प्रौढ़ ऋषि को सहज ही सुन्दर कोमल, कमनीय स्त्री के संसर्ग में मदनोत्सवधर्मी बना देगी।

      प्रष्न तो ये है अंबिके कि हमारा नारीत्व, हमारी स्त्रियोचित कोमल भावनाएं, हमारा अनुराग उस पितातुल्य बनवासी साधक के रूप में उपस्थित पुरूष के सामीप्य में संवेदित होगा या नहीं। केवल हमारा शरीर उनके आतिथ्य में परोस देना ही व्यवस्था का धर्म होगा ?

-     छोड़ इन उलझन भरी बातों को अंबालिके ! देख मैंने वीणा के स्वरों में एक नई रचना का अभ्यास किया है। मेरी प्रस्तुति तुम सुनोगी तो अवश्य मुग्ध हो जाओगी..... और पूरा कक्ष कुछ ही क्षणों में संगीत की लहरों में उतराने लगा।

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महाराज विचित्रवीर्य को आखेट में जाना अब रूचिकर प्रतीत न होता था। माता सत्यवती उन्हें पुरुषोचित शौर्य प्रप्रदर्शन के लिये प्रेरित करतीं। आठ प्रहर सुरा में डूबना और अंतःपुर को ही स्थाई आवास बना लेना.... यह राजधर्म तो नहीं था। गंगा पुत्र भीष्म जिनका पराक्रम दिग्दिगन्त में व्याप्त था, उसके सम्मुख शौर्य विहीन पुत्र विचित्रवीर्य को देखकर माता के हृदय को आघात पहुंचता।  ज्येष्ठ पुत्र चित्रांगद पहले ही स्वर्गवासी हो चुका था। क्या इन्हीं सन्तानों के लिये उनके पिता निषादराज ने तेजस्वी देवव्रत से आजीवन ब्रह्मचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा करायी थी ? जर अवस्था में महाराज शान्तनु से उत्पन्न सन्तान कैसे बल और तेज से परिपूर्ण होगी, यह पिता निषादराज ने कभी नहीं सोचा था।

      माता सत्यवती ने आग्रह नहीं वरन् आज्ञा देकर महाराज विचित्रवीर्य को अंतःपुर से बाहर निकाला था और उन्हें आखेट हेतु प्रस्थान करने का आदेष दिया था। महाराज अत्यधिक दुर्बलता का अनुभव कर रहे थे। लेकिन आज्ञा पालन करने के लिये विवश थे। उनके साथ पूरा लावलश्कर था। वे जानवरों का पीछा करते हुए यूं हांफ जाते मानो जीवन तत्व की खोज में भाग रहे हों जो हाथ में आते आते रह जाता है। एक दौड़ समाप्त होती तो दूसरी आरंभ हो जाती। यह यात्रा तो जैसे अनन्त हो गयी थी। आखेट नहीं मिलेगा तो पुरुषत्व पराजित होगा। महाराज भाग रहे थे... आखेट के पीछे दौड़ रहे थे। हांफ रहे थे...., कभी नेत्रों के सम्मुख पूर्ण यौवना अंबिका और अंबालिका दृष्टिगत होतीं तो दूसरे पल सिंह और व्याघ्र जैसे पषुओं का गर्जन उन्हें भावलोक से धरती पर खींच लाता। अचानक.... उन्हें मूरछा घेरने लगी थी। उनका शरीर शिथिल होने लगा था और वह अवश होने लगे थे। अब आंखों के सामने कुछ भी नहीं था.... अंधकार.... निविड़ अंधकार। महाराज नीचे गिर पड़े थे। वन और मन दोनों की गुह्यतम कंदराओं में निष्चेष्ट पड़े महाराज अब शांत थे। उन्हें अब आखेट के लिये कोई विवश नहीं कर सकता। अट्टहास करते समय के हाथों वह स्वयम् भाग्य का आखेट बन चुके थे। गहन शांति  में डूबे महाराज विचित्रवीर्य अपनी अंतिम सांसों के बीच अपने दोनों ओर सुकुमारी अंबिका और अंबालिका के स्पर्ष का अनुभव कर थे और इन्हीं सुखद क्षणों के बीच रक्त वमन के साथ कब वे अनन्त लोक को प्रस्थान कर गये, किसी को ज्ञात नहीं हुआ...।

      हस्तिनापुर राज्य पर यह भीषण संकट था। कुल की वंशबेलि का प्रप्र्श्न था। कुल के ज्येष्ठ पुत्र भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से तनिक भी विचलित नहीं हुये थे।

लेकिन राजमहल में उनकी रानियों को संतान प्राप्ति का लक्ष्य अभीष्ट था। यहां भी आखेटक की उपस्थिति अनिवार्य थी। इस व्यवस्था में  आखेट और आखेटक का भेद नहीं रहता। माता सत्यवती ने दोनों रानियों तक अभीष्ट सूचना गोपनीयता के साथ पहुंचा दी थी। नियोग की प्रथा से अंबिका और अंबालिका दोनों ही परिचित थीं। ऋषि व्यास राजमहल में अपनी माता सत्यवती की आज्ञा पालन हेतु पधार चुके थे।

      अंबिका ने माता सत्यवती को सुझाव दिया था कि ऋषि प्रवर क्यों उनके प्रासाद में आकर उनके शयन कक्ष में आने का कष्ट करें। वास्तव में अंबिका का हृदय विद्रोह पर उतारू था। छोटी बहिन अंबालिका को तो उसने शांत कर दिया था, लेकिन स्वयम् वह भी बहुत तनाव में थी। हमारी देह पर क्या हमारा तनिक भी अधिकार नहीं। देहधर्म की नीति और व्यवहार भी क्या दूसरे ही निर्धारित करेंगे। हम क्या निर्जीव, भावषून्य पिण्ड भर हैं, जहां चाहा, जिसे चाहा परोस दिया। विचार करने को मस्तिष्क तथा संवेदित होने को स्पंदित हृदय, इनको पृथक कर क्या जीवित मनुष्य की कल्पना हो सकती है... अंबिका एकांत में बेहद अशांत हो उठी थी। वह किसी भी मूल्य पर उस ऋषि महाराज का अपने प्रासाद में, अपने शयनकक्ष में प्रवेष नहीं चाहती थी। उसने कहा कि वह स्वयं उनके चरणों में उपस्थित होगी। सिर पर आंचल डाल कर उनके सम्मुख चरणों में नतमस्तक हो उनसे आशीर्वाद ग्रहण करेगी लेकिन किसी अन्य की आज्ञानुरागी होकर अपना आंचल समर्पित नहीं करेगी....

      ऋषि प्रवर अंतःपुर में एक पृथक प्रासाद में विश्राम कर रहे थे। उन्हें प्रतीक्षा थी महारानी अंबिका की। रूपवती, नवयौवना अंबिका....। तीनों बहनों अंबा, अंबिका और अंबालिका को उनके स्वयंवर के अवसर पर जब भीष्म उठा लाये उसी समय इन बहनों की कमनीयता तथा सौन्दर्य चर्चा के विषय थे। भीष्म का पराक्रम स्वयम् में एक महत्वपूर्ण चर्चा का विषय था कि माता सत्यवती के पुत्र, राजसिंहासनधारी विचित्रवीर्य के लिये एक कन्या का हरण करने के स्थान पर वह रेवड़ के समान नारी समूह ही हांक कर ले आये थे।

      ऋषि श्रेष्ठ व्यास आतुर थे। उनकी भुजाएं लम्बी और रोमयुक्त थीं। शरीर बलिष्ठ था और लंबे समय से वन में तप करते रहने के कारण उनकी देह कठोर और मुखमंडल दर्पयुक्त था। उनकी लहराती श्वेत दाढ़ी मूंछ और रूक्ष जटाजूट उनके चेहरे को और अधिक भावहीन बना रहे थे। उनका हृदय तीव्र आवेग से जोर-जोर से स्पंदित हो रहा था और भुजाएं फड़क रही थीं जैसे किसी रण स्थल में सामने खड़ी शत्रुसेना के सम्मुख अपनी शक्ति प्रदर्शन के लिये वह तत्पर हों। उनकी प्रतीक्षा की घड़ियां समाप्त हुईं और देहरी पर पायल की रुनझुन के साथ एक कमनीय नारी भरपूर सौन्दर्य के साथ प्रस्तुत थी। उसका उत्तेजक श्रृंगार किसी भी पुरूष को अपने आकर्षण में आबद्ध करने के लिये पर्याप्त था।

      ऋषिवर सुसज्जित शैया पर बैठे थे, तुरन्त खड़े हो गये।

-     प्रणाम गुरूदेव !     

-     ‘‘पुत्रवती भव-अंबिके.... आयुष्यमती भव....’’ ऋषिवर ने महारानी अंबिका की कांपती देह को उसके कंधे पकड़ कर स्थिर करना चाहा। चेहरे पर अवगुंठन धारण किये सुन्दरी के नेत्र नीचे झुके हुए थे। ऋषि ने कोमल देह को दोनों हाथों से यूं आच्छादित कर लिया था कि केवल नीचे की ओर दृष्टिपात करने पर झीने अधोवस्त्र से नीचे उसके दुग्ध धवल पैर ही दिखाई दे रहे थे। जैसे धीरे धीरे विशालकाय अजगर के मुंह में समाया कोई पषु हो जिसका शेषांष ही बाहर दिख रहा था। वह कोमलकांत गौर वर्ण देह उस रोमयुक्त बलिष्ठ पुरूष काया के भीतर समा रही थी। देह के भीतर देह का चिर शाष्वत संबंध सभी सीमा रेखाओं को तिरोहित कर सिर्फ स्त्री-पुरूष पर स्थिर हो गया था... धीरे-धीरे ऋषिवर के भीतर तटबंध पर टकराती समुद्र की लहरें अब शांत होने लगीं। पौरूष घट रिक्त हो चला था और जीवन का अमृत कलष सराबोर था ऋषि की कृपादृष्टि से....।

      प्रातः बेला अक्षयदान ग्रहण कर अभिसारिका नारी प्रस्थान कर चुकी थी। वहां षेष थे रात्रि समागम के चिन्ह ! मुरझाये कुचले पुष्पदल... मादक सुगन्ध की तलछट जो अब केवल संकेत भर दे सकने में सक्षम थी।  दीपाधार पर जलता दीप अब अन्तिम श्वांसों में वर्तिका के जलने की दुर्गन्ध देने लगा था।

      सूर्योदय के साथ जीवन स्पंदित होने लगा। दिन के प्रकाश में जीवन के दूसरे सत्य उद्घाटित होने लगे। यथार्थ अपनी विसंगतियों और विद्रूपताओं के साथ स्थान ग्रहण करने की चेष्टा करने लगा और इसी के साथ ऋषिवर व्यास कक्ष से बाहर आ रहे थे। उनकी बनवासी देह मानो झाड़ लताओे में और अधिक उलझ गयी थी। चिन्तन और साधना के गूढ़ रहस्य चेहरे को और अधिक कठोरता प्रदान कर प्रस्तर खंड में बदल चुके थे। विशाल नेत्र रक्ताभ होकर जैसे फट पड़ना चाहते थे। होंठ फड़क रहे थे। नथुने फुफकार रहे थे।

      उनके साथ छल किया गया था।

सवेरे की पूजा अर्चना के बाद तुरन्त ही ऋषि व्यास माता सत्यवती के कक्ष में जा पहुंचे। वे क्रोध में डूबे थे। क्षुब्ध थे। वे प्रस्थान के लिये तत्पर थे। माता सत्यवती चिंतित हो उठीं। पुत्र भीष्म भी वहां उपस्थित थे...।

      .....और थोड़ी ही देर में रहस्य दोपहर की धूप की तरह स्पष्ट था। दासी मुनि प्रवर के पैरों पर गिरकर क्षमायाचना कर रही थी। उसका कोई अपराध न था। उसने केवल स्वामिनी की आज्ञा का पालन किया था। स्वामिनी अंबिका का आदेश था कि वह उनके वेष में ऋषिवर व्यास के साथ रात्रि बेला में समागम के लिये स्वयम् को प्रस्तुत करे। उसने केवल आज्ञापालन किया। वह अपराध मुक्त है।

      दासी का अस्तित्व क्या हो सकता है। स्वयम् की देह पर किसी भी नारी का कोई अधिकार नहीं, फिर वह तो क्रीतदासी है। उसकी देह पर, उसकी सांसों पर, उसकी इच्छा अनिच्छा पर स्वामी का ही अधिकार होगा। उसे आज्ञा दी गयी कि वह ऋषिवर व्यास की शैय्या पर जाकर अपनी देह समर्पित कर दे.... उसने किया....।

अंबिका अब तेरे लिये ठौर नहीं। अब नहीं बचेगी तू। तेरा पति वहां जंगल में जानवरों का आखेट करता हुआ स्वयं भाग्य का आखेट बन गया और यहाँ एक नयी जंगलगाथा अंकित हो रही है। यह जाम्बवन्त समान मुनि। यही बचा है क्या इस संसार में... उसे तो उनके चेहरे की कल्पना से ही उबकाई आने लगती है। कैसे सहन करेगी वह उसको.... माता सत्यवती, यह कैसा अन्याय है। पुत्र प्राप्ति हेतु हम कुलवधुओं के लिये यही बनवासी पुत्र मिला था आपको। किस जन्म की शत्रुता निहित है आपके इस आचरण में.... लेकिन हमारा यह अरण्य रोदन यहीं बिखर कर रह जायेगा। आपके राजकुल की मर्यादा हमें घुटघुट कर न जीने देगी और न ही मरने देगी। हे ईष्वर, मैं मृत्यु को वरण करने के लिये तैयार हूं-लेकिन इस पुरूष की देह तले रौंदे जाने के लिये मैं किस प्रकार स्वयम् को प्रस्तुत करूं, मैं नहीं जानती.... हे विधाता.... मेरे पग आगे नहीं बढ़ते.... किस प्रकार मैं उस अनजान के सम्मुख स्वयम् को प्रस्तुत करूं। मैं क्या निर्जीव प्रस्तर हूं या केवल देह हूं.... यूं अनिच्छा और पूर्ण अस्वीकार के साथ.... विवशता वश देह समर्पित कर मैं कौन सा धर्म का पालन कर रही हूं... हे दैव मेरी रक्षा करो। मैं इसके चेहरे पर दृष्टिपात नहीं कर सकती। मैंने इतना संवेदनहीन... प्रस्तर मुख कभी नहीं देखा। मैं इसकी देह तले आकर जीवित नहीं बचूंगी... हे देवताओं मेरी रक्षा करना....।

-     देवि, आगे आओ। तुम क्यों इतना कांप रही हो। आओ। मेरी विशाल भुजाओं में समा जाओ। मेरे शरीर में सहस्त्र हाथियों का बल है अंबिके। मैं तुम्हारी कोख को वीर्यवान पुत्रों का दान दूंगा। मेरा पौरूष अक्षय घट है... मेरे समीप आओ। देवि, तुम इतनी पीली क्यों पड़ गयी हो। तुम्हारा रक्तविहीन मुख मेरे विषाद का कारण बन रहा है। तुम क्यों भयभीत हो...। देवि अंबिके। मैं तुम्हारा हितैषी हूं। हस्तिनापुर राज्य का हितैषी हूं। इस संसार में केवल यही संबंध सत्य है। यह क्षण, यह अवसर, यही शाष्वत है। स्त्री और पुरूष... मात्र इसी में सृष्टिकर्ता का मंतव्य निहित है। सभी दर्शन चिन्तन, इसी शाष्वत क्षण की सार्थकता पर आधारित हैं। राज्यधर्म में केवल कर्तव्य होता है। कोई संबंध, कोई रिश्ता नाता नहीं होता। प्रेम, संवेदना सब दर्शन के वाक्विलास हैं। भ्रम हैं। हृदय की दुर्बलता है। बुद्धि और तर्क वितर्क स्त्रीधर्म में अंगीकार नहीं किये जाते। बुद्धि से विवेक और विवेक से कर्तव्य पालन ही राज्यसत्ता का धर्म है। भावनाएं धर्म भ्रष्ट करती हैं। संवेदना और भावुकता सबसे बड़े शत्रु हैं राजसत्ता में। इनका त्याग करो और कर्तव्य हेतु अपनी देह प्रस्तुत करो। यही धर्म है... राज्यसत्ता और धर्मसत्ता का समागम ही सर्वश्रेष्ठ सत्ता में रूपान्तरित होता है... आओ देवि। सामान्य स्थिति में आओ अंबिके और वरण करो इस पुरूष को। अक्षय सुखों की स्वामिनी बनो।

’ ’ ’ ’ ’ ’ ’ ’ ’ ’’

-     हां तो इस तरह डर के मारे पीली पड़ गई अंबिका के पुत्र पांडु हुये। छोटी अंबालिका की जिस रात बारी आई तो उस ने डर के मारे ऋषि व्यास का चेहरा ही नहीं देखा। वह पूरी रात आंखें बन्द किये रही।

-     ..............

-     हां, पूरी रात वह ऋषि से पुत्र प्राप्ति का दान ग्रहण करती रही लेकिन उसने आंख खोलकर एक बार भी उनका चेहरा नहीं देखा। उसने सोचा कि अगर उसने उनकी ओर देखा तो डर के मारे अवश्य उसके प्राण चले जायेंगे।

-     क्या व्यवस्था थी दीदी उस ज़माने में। इससे तो आज हम मामूली औरतें भली हैं। क्यो ? ऐसी जबरदस्ती कोई करके तो देखे।

-     इसीलिये अंबालिका की कोख से अंधे धृतराष्ट्र पैदा हुए और अंबिका की कोख से पांडु हुए।

-     दीदी, अब एक बात कहूं।

-     कहो

-     आपकी कहानी पूरी हो गयी न !

-     हां, बिन्नो, इसे साफ करना है बस। आज दोपहर तक जरूर इसे रवाना कर देना है।

-     दीदी, कहानी तो बाद में साफ होगी, पहले तैयार हो जाइये घर-सफाई के लिये। मेरी तो क्लास है दस बजे से इसीलिये मैं इस काम में आपकी कोई मदद नहीं कर सकती।

-     क्यों क्या हो गया। हमें क्यों सफाई करनी है।

-     इसीलिये कि आपका गंगू आज काम पर नहीं आयेगा........ उसका छुटकू कह गया है अभी !

-     अब क्या हुआ उसे। उसके रोज़-रोज़ के नागे। मुझे तो यह कहानी आज भेजनी है-रोज फोन आ रहे हैं।

-     आपका गंगू पड़ोस के गांव में गाय को हरी कराने गया है।

-     अरे बाप रे। अब .....

-     किस सोच में पड़ गई दीदी.... आप थोड़ी बहुत सफाई कर लो जितना जरूरी है। बाकी शाम को मैं आकर कमरे और आंगन झाड़ दूंगी।

-     नहीं रे.... मैं गंगू के मिशन के बारे में सोच रही थी।

-     मिशन कैसा दीदी! मनुष्य हो या जानवर। औरत की कोख अपनी नहीं होती और न ही अपनी मर्जी से होती है। औरतजात तो मादा है। चाहे अंबिका, अंबालिका या उन जैसी और रही हों या अब ये हमारी गाय भैंसें। सब एक बराबर हैं।

 

'नमिता सिंह' की कहानी पर टिप्पणी -

`कोख `स्त्री जीवन  का समूचा विमर्श :- 'नीलम कुलश्रेष्ठ'

             मैं  बारह  तेरह  वर्ष पहले `कोख `कहानी `को अपने द्वारा  सम्पादित पुस्तक `धर्म  की बेड़ियाँ खोल रही है औरत `में ले चुकीं हूँ | जब सन २०१६ में  वनिका पब्लिकेशंस से प्रकाशित ` रिले रेस `कहानी संग्रह सम्पादन की योजना बनाई  तो नमिता जी ने आश्चर्य से पूछा था कि तुम स्त्री अंगों की कहानियां लेकर कैसे एक संग्रह  सम्पादित करोगी ?``

          मैंने उनसे कहा था ,``आपकी भी तो एक कहानी `कोख `स्त्री अंग पर है ,मुझे दोबारा चाहिए। ``

        मैंने इसे दो पुस्तकों में लिया और इतने वर्षों बाद इस को पढ़ रहीं हूँ ,गुन रहीं हूँ।  बहुत स्तब्ध हूँ कि  ऐसी विलक्षण कहानी सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे आग्रह पर मेरी प्रथम पुस्तक के लिये आदरणीय नमिता जी ने लिखी थी ? कहानी पढ़ना और उसका मूल्यांकन करना दो अलग चीज़ें हैं ?

नीलम कुलश्रेष्ठ

ई -मेल ---kneeli@rediffmail.com

मो. ----9925534694

      अपनी इस बात की भूमिका बता दूँ ,हुआ ये कि बड़ौदा में श्री हरियशराय  जी ने बैंक ऑफ़ बड़ौदा के सौजन्य से एक सेमीनार आयोजित की थी जिसमें सिंह साहब व नमिता जी आमंत्रित थे। मैंने इन्हें  अस्मिता ,महिला बहुभाषी साहित्यक मंच द्वारा आयोजित व मेरे  द्व्रारा  निदेशित  विशेष थीम कवयित्री सम्मेलन की प्रेस रिलीज़ की क्लिप्स  दिखाईं थीं। इसका विषय था  `पौराणिक स्त्री चरित्र आधुनिक स्त्री के दृष्टिकोण से`। मैंने ये क्लिप्स दिखाते  हुये कुछ संकोच से पूछा था कि मैं इस विषय पर एक पुस्तक सम्पादित करना चाहतीं हूँ। नमिता जी ने बहुत प्रोत्साहन दिया कि ऐसा ज़रूर करना। बाद में उनसे आग्रह किया कि आपकी कहानी भी चाहिए। वाकई अदना सी मैं ,और मेरे  कहने  पर उन्होंने` कोख`लिखी थी। शिल्पायन प्रकाशन के ललित कुमार असमंजस में थे ये पुस्तक प्रकाशित करें या न करें लेकिन आप दोनों ने ही उन्हें समझाया था कि  ये विषय चिंतनीय व महत्वपूर्ण है।

      बाद में मैंने दो पुस्तकें इस विषय पर और सम्पादित कीं। मैंने हमेशा कहा है कि इनकी प्रेरणा अस्मिता ,बड़ौदा है लेकिन ये सदियों से चली आ रहे  करोड़ों स्त्रियों के  विरोध के स्वर हैं । उदाहरण है न सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों का प्रवेश। इतने बरस  बाद नमिता जी ने फ़ोन पर बताया ,``हमारा पारम्परिक,धार्मिक परिवार था तब भी मेरी घरेलु माँ कहती थी कि कैसा पाखंड फैला रक्खा है। कोई खीर या फल खाने से बच्चे पैदा होते हैं ? ``

             इसी कहानी से -` स्त्री और पुरुष --मात्र इसी में सृष्टिकर्ता का मंतव्य व  निहित है। सभी दर्शन ,चिंतन इसी शाश्वत  क्षण की सार्थकता पर आधारित हैं।`ये  क्षण `कोख `से ही  सम्पूर्णता पाता  है  और जिस कोख से सारी सृष्टि रची जाती है और प्राकृतिक रूप से जिसे कोख उपहार में मिली है वह ?उस स्त्री की समाज में स्थिति का आंकलन `कोख `का लक्ष्य है। आपको कैसा लगे कि  आपके मकान के एक कमरे पर आपका हक़ ही नहीं है। चाहे जो कोई भी रह सकता ,उसे चाहे तो कितना ही गंदा कर सकता है।

महलों की रानियां भी सारे विलास के बीच एक उन्मुक्त जीवन जीने की चाह रखतीं हैं जैसे कि हस्तिनापुर के महाराजा विचित्रवीर्य की पत्नी  अम्बालिका जो छटपटा रही थी  कि पति की मृत्यु के बाद किस तरह से उसकी सास महारानी सत्यवती ने एक जाल  बुना था अपने बेटे की दोनों पत्नियों अम्बा और अम्बालिका ,जो कि  बहिनें भी थीं,को गर्भवती कराने का।

      इससे पहले का षणयंत्र क्या क्षमा योग्य है ?भीष्म थोक के भाव में तीनों बहिनों अंबा ,अंबिका व अम्बालिका   स्वयंवर समारोह से  अपहरण करके ले आये थे क्योंकि इन बहिनों के रूप व कमनीयता की चर्चा सुनी थी व इनके सौतेली माँ सत्यवती के बेटे  को मात्र एक कन्या चाहिए थी विवाह  के लिये। आज भी स्त्रियों के अपहरण या ज़बरदस्ती शादी के मण्डप में बिठा देना कहाँ बंद हुआ है ?

        कल्पना में भी सोचना  भी एक कष्ट है जिससे  संतानोत्पत्ति  करनी है वे भीमकाय ,प्रकांड विद्वान,बलिष्ठ  चेहरे की घनी सफ़ेद दाढ़ी मूंछों वाले अधिक आयु के ऋषि  व्यास हैं।   अम्बालिका हो या कोई आज की साधारण स्त्री। वो छटपटाने लगती है कि सत्ता के लोह कपाटों से कैसे निकल कर आज़ाद हो अपना मनपसंद जीवन जीए।  इसी आज़ादी की कल्पना करता स्त्री मन चिड़िया बनकर गगन में उड़ना चाहता है। तभी हमें अक्सर स्त्री कविता में चिड़िया व पंखों के उल्लेख मिलते हैं .

      अंबालिका  ही इस कहानी में नहीं सोच रही ,अब भी बहुत सी स्त्रियों को इस पीड़ा  से गुज़रना पड़ता है ,सोचना पड़ता है ,``हमारी देह पर क्या तनिक भी हमारा अधिकार नहीं है। देह धर्म की नीति और व्यवहार दूसरे तय करेंगे ?हम क्या निर्जीव भावशून्य पिंड भर  हैं,जहाँ चाहा,जिसे  चाहा  परोस दिया।  ``

        इस कहानी का  कलात्मक  पक्ष और भी उभरता है जब  अंबालिका अपनी बहिन अम्बिका से मिलने जाती है ----`अंबिका अपने कक्ष में वीणा के सुरों में खोई हुई थी। -----वे दोनों अब न पटरानीं  थीं और न महारानी ,न ही अब वे सौतें थीं --अब वहां सिर्फ़ दोनों बहिनें थीं --सिर्फ़ दो नारियां ----सम्पूर्ण नारी जाति के प्रतिनिधि के रूप में सिमट आईं थीं एक दूसरे के समीप। `

        ये कहानी एक महत्वपूर्ण बात के लिए संकेत करती है कि संतानों पर उन मिलन के क्षणों ,मिलन करने वालों के  व्यक्तित्वों का भी बहुत बड़ा प्रभाव  पड़ता है जैसे कि युवा सत्यवती को बूढ़े होते जा रहे उसके प्रेम में डूबे महाराजा  शांतनु से जबरन  विवाह करना पड़ा  था. हठ में उसने मांग लिया था  उसकी  संतान ही हस्तिनापुर की राजगद्दी  संभालेगी। उसे क्या पता था कि बड़ी उम्र के महाराजा उसे कैसे स्वस्थ संतान दे सकते हैं ?उसे संतान ऐसी मिली कि सारे भोग विलास में डूबकर सन्तानोत्पत्ति की क्षमता ही खो चुकी थी।

       सत्यवती बहुत बुद्धिमत्ता से अपने विवाह की ग़लती को ऋषि व्यास से अपनी बहुओं का मिलन करके सुधारना चाहती है लेकिन स्त्री की मन;स्थिती भी कुछ होती है जो मिलन के क्षणों में क्या कुछ कर गुज़र जाती है। अम्बालिका ने पहले तो ऋषिवर को अपने शयनकक्ष में आने से प्रतिबंधित कर दिया था। उनके शयन कक्ष में जाने की बात मान ली थी। फिर बहुत चतुराई से उनकी सेवा में दासी भेज दी थी लेकिन बलि का बकरा कब तक ख़ैर मनाता ?  कहानी अम्बा अम्बालिका के पुत्रों जैसे कि पांडु के बीमार रहने का या धृतराष्ट्र के अंधे हो जाने के तर्क को  बहुत सशक्तता से अभिव्यक्त करती है। 

       अंबिका तो विशालकाय ऋषि को देखकर डर कर कांपने लगी थीं  ,पीली पड़  गई इसलिए उसके पीले पड़े बीमार रहने वाले पुत्र पांडु  हुये।छोटी  अंबालिका तो डरकर इतना भयभीत  हुई कि उसने सारी रात अपनी ऑंखें नहीं खोलीं। उसे डर  था कि यदि उसने ऋषि व्यास को देख लिया तो उसके प्राण निकल जाएंगे। इसीलिये धृतराष्ट्र अंधे पैदा हुये।

        कुछ और पंक्तियाँ देखिये -`ऋशि  श्रेष्ठ आतुर थे ---जैसे किसी रणस्थल की सेना के  सम्मुख अपनी शक्ति प्रदर्शन करने के लिये तत्पर  हों ``----[न कि अभिसार के लिये आतुर व  भावुक ].उस दासी की स्थिति ऐसी थी या अम्बालिका की ---`जैसे विशाल अजगर के मुंह में समाया कोई पशु `--यानि कि स्त्रियों को अक्सर एक पशु की तरह प्रयोग में लाया जाता है।  कहानी हमें  वर्तमान समय से जोड़ते हुये गाय का उदाहरण देकर `कोख `के सम्बन्ध में एक सार्वभौमिक कर्कश कानून  प्रतिपादित करतीं हैं ,``मनुष्य हो या जानवर !औरत की कोख अपनी नहीं होती और न ही अपनी मर्ज़ी से होती औरतज़ाद तो मादा होती है। चाहे अंबा ,अम्बालिका हो या उन जैसी रहीं  हों  या  हमारी गाय भैंसे।  सब एक बराबर हैं।  ``

        यही तो है स्त्री विमर्श या स्त्री सशक्तीकरण के लिए बिगुल बजाती स्त्रियों की करुण स्थिती दिखाता , गिनाता नमिता जी की लेखनी का चमत्कार।  और चमत्कार को देखना हो तो ये कहानी पढ़नी पड़ेगी कि राजप्रासादों का राजसी  माहौल या उनकी भाषा या उनके षणयंत्र क्या होते हैं। ग़नीमत है कि  इस  विमर्श से कुछ स्त्रियां अपनी स्थिति बदल रहीं हैं।

 

'नमिता सिंह' की कहानी पर 'डॉ० सुनीता' की टिप्पणी:-

“मनुष्य हो या जानवर ! औरत की कोख अपनी नहीं होती और न ही अपनी मर्ज़ी से होती है। औरतजात तो मादा है।” 

कहानी प्रतीक के परतोक से शुरू होती है, वर्तमान के कंक्रीट की भूमि पर कांच के मानिन्द तड़कती है। मिथ के आलोक में मौजूदा वक्त के दिग्दिगन्त औरोहों को तोड़ने की पहल करती है। 

डॉक्टर सुनीता 
drsunita82@gmail.com

सूत्रधार के गवाक्ष से स्त्री स्वाभिमान की गवाही एवं वक्त की शिनाख्त शामिल है। अतीत की ड्योढ़ी से फिलवक्त के हालात से रूबरू होते हैं। ऐसे में चिंतन की गिरहें खुलती हैं और सामाजिक मूल्यों के केंद्र में अवस्थित राजसत्ता, धर्मसत्ता और देहसत्ता का दर्शन विन्यस्त होता है। यहां जड़ता को तोड़ने की कोरी ललक नहीं है बल्कि पौराणिक चरित्रों के ओटो से वर्तमान की कड़ी भी खुलती है और बहुतेरे स्थानों से जाकर जुड़ती भी है। “उसका दोष - ? शायद उसका स्वाभिमान था॰॰॰ अपनी इच्छानुसार अपने जीवन अस्तित्व का बोध था।”

कहानी का केंद्रीय भावाबोधक बिंदु- अंबे, अंबिका और अम्बालिका हैं। “गेंद की तरह लुढ़कती रही वह अपने आत्मसम्मान के लिये॰॰॰” 

उपरोक्त तीनों किरदार को हम सूचना प्रद्यौगिकी के दौर में तीन नये स्वरूप में देख सकते हैं। नियोग वर्सेज आईवीएफ, किराये का कोख वर्सेज सेरोगेट मदर, दत्तक वर्सेज मानद संतान है। 

कहानी अपने मूल में जिस मर्म को लेकर आगे बढ़ती है दरअसल वह हमारे भारतीय समाज का सबसे कड़वा सच है। कहानी में स्त्री चरित्र को 'वेदों में वर्णित' भाव से, 'पुराणों में चिन्हित' पात्रों के बरक्स एवं वर्तमान में घटित घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में समाज के क्रूरतम चेहरे को उजागर करती है। 

“वे दोनों अब न पटरानी थीं और न महारानी, न ही अब सौतें थीं। अब वहाँ सिर्फ़ दो बहनें थीं॰॰॰ सिर्फ़ दो नारियाँ, नितांत अकेली। निजता के स्तर पर एक-दूसरे की हमजोली, सखी॰॰॰। सम्पूर्ण नारी जाती के प्रतिनिधि के रूप में सिमट आईं थीं एक-दूसरे के समीप॰॰॰”

स्त्री अरण्य में दारुण रूदन पाथर पिघलाने में सक्षम है लेकिन ह्रदय परिवर्तन में मात खा जाती है। मस्तिष्क विद्रोह विगुल फूँकता है तब जिह्वा दगा दे जाती है और जब मन केंद्रित होता है तब चक्षु चंचल हो उठते हैं। 

भावशून्य बेला में संवेदित सपने, पल्लवित आँगन और स्पंदित दिल कोमलता के कठोर कारावास में क़ैदी बन जाता है। विधि-विधान के बने, रचे, गढ़े  नियम ध्वस्त हो रहे हैं लेकिन उसके पैताने शोषणकथा भी रची जा रही है। रक्षित में भक्षित ध्वनियाँ धड़कन को दूरस्थ के अभेद्य दीवार को ढहा देती हैं। “याचक बनी नारी एक बार फिर दरबार से तिरस्कृत होकर लौटी थी।” यह लौटना या दुतकारा जाना ही नियति की तरह इक्कीसवीं सदी में भी परम्परा की तरह ही थोड़ा बदले अंदाज में संग चल रही है।

प्रणय निवेदन में पराजित स्त्री विवेकी बनती है या फिर विद्रोही। कथा-नायिका सूक्ष्मदर्शी यंत्र की तरह महीन जाल से विद्रोह गाथा गढ़ती है।

कहानी का मनोवैज्ञानिक स्वर- बारीक व्यंग्य, वेदोक्त पावस, मृग-मरीचिका, भावशून्यता, एकांतवास और बीहड़ की भयातुरता में पारंपरिक होते हुये भी पारदर्शिता के साथ खंडित करके नये परिप्रेक्ष्य में खुलती है। “क्या व्यवस्था थी दीदी उस जमाने में, इससे तो आज हम मामूली औरतें भली हैं। क्यों ? ऐसी ज़बरदस्ती या कोई करके तो देखे।” कहानी मज़बूत टोन के साथ ख़त्म नहीं वरन शुरू होती है।

 (प्रयुक्त प्रतीकात्मक चित्र google से साभार)      

नमिता सिंह द्वारा लिखित

नमिता सिंह बायोग्राफी !

नाम : नमिता सिंह
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ऑथर के बारे में :

जन्म - 4 अक्टूवर 1944 लखनऊ


पूर्व संपादक - वर्तमान साहित्य


प्रदेश अध्यक्ष - 'जनवादी लेखक संघ' उत्तर प्रदेश


प्रकाशित कृतियाँ -
कहानी संग्रह - खुले आकाश के नीचे, राजा का चौक, नील गाय की आँखें, जंगल गाथा, निकम्मा लड़का, मिशन जंगल और गिनीपिग, उत्सव के रंग
उपन्यास - अपनी सलीबें, लेडीज क्लब, हाँ मैंने कहा था, स्त्री प्रश्न, आदि 

संपर्क-
अवंतिका, एम्0 आई0 जी0 -28
रामघाट रोड, अलीगढ

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