समकालीन हिंदी उपन्यास और आदिवासी जीवन: आलेख (कृष्ण कुमार)

शोध आलेख कानून

कृष्ण कुमार 12357 11/17/2018 12:00:00 AM

21वीं सदी में जब भूमण्डलीकरण, औद्योगीकरण अपने चरम पर है तथा विकास के नाम पर आदिवासी समुदाय को उसके मूलभूत आवश्यकताओं जल, जंगल, जमीन’ से बेदखल किया जा रहा ऐसे में संकट केवल उनके अस्तित्व पर ही नहीं उनकी संस्कृति पर भी है। इसी बात को केन्द्र में रखकर आदिवासी समुदाय पर केन्द्रित दो उपन्यासों का नाम है ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ तथा ‘गायब होता देश’ इन दोनों उपन्यासों का प्रणयन कथाकार रणेन्द्र ने किया है। उपन्यासकार रणेन्द्र का उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सिर्फ उपन्यास न होकर आदिवासी समुदाय खासकर ‘असुर’ का इतिहास भी प्रस्तुत करता है। जिसमें उन्होंने एक जगह पर अब तक असुरों के बारे में जनमानस में बनी धारणा पर प्रहार करते हुए लिखा है कि “सुना तो था कि यह इलाका असुरों का है, किन्तु असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लम्बे-चैड़े, काले-कलूटे, भयानक दाँत-वाँत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग लगे हुए होंगे। लेकिन लालचन को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा है।’’5 समकालीन हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जनजीवन को रेखांकित करने का सार्थक प्रयास कर रहे हैं शोधार्थी ‘कृष्ण कुमार’ …..

समकालीन हिंदी उपन्यास और आदिवासी जीवन 

कृष्ण कुमार

कृष्ण कुमार

यूरोप में उपन्यास को आधुनिक चेतना से जोड़ते हुए उसे आधुनिक युग का महाकाव्य (हेगल) कहा गया है। हिंदी में उपन्यास के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिताओं की अभिव्यक्ति की गयी है। आज के परिवेश में भारत में लोकतान्त्रिक निर्माण की प्रक्रिया में जो अस्मितायें छूट गयी हैं अर्थात् जिन्हें मुख्यधारा ने हाशिये पर डाल दिया वे अपने को प्रभावी ढंग से व्यक्त कर रही है। और उपन्यास विधा इसका सबसे कारगर विधा है। इसके माध्यम से दमित अस्मितायें (दलित, आदिवासी, स्त्री व अन्य) अपनी अभीव्यक्ति दे रही है।

21वीं सदी में जो अस्मिताऐं उभरकर सामने आयी न केवल सामने आयी बल्कि उन्होंने खुद को स्थापित कर मुख्यधारा के सामने चुनौती रखी कि उनका भी भारतीय सामाजिक लोकतान्त्रिक निर्माण में उतना ही अधिकार है जितना मुख्यधारा का। दलित अस्मिता ने अपने समता, स्वतन्त्रता, बन्धुत्व के भाव को लेकर साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी उपस्थिति को मजबूती के साथ दर्ज किया।

आदिवासी अस्मिता अथवा आदिवासी चिंतन भी 21वीं सदी का प्रमुख अस्मिता है जिसमें उपन्यासों के साथ-साथ साहित्य की अन्य विधाओं के माध्यम से आदिवासी समुदाय के जीवन, यथार्थ, संघर्ष व उनकी चुनौती को रेखांकित किया गया है।

उपन्यास के माध्यम से आदिवासी यथार्थ को उनके साथ हो रहे शोषण, दमन को केन्द्र में रखकर उनकी सच्चाई को सामने लाया जा रहा है। आदिवासी समुदाय जिनको पहचान के नाम पर वनवासी, जंगली कह दिया जाता है आज भूमण्डलीकरण के दौर में उनका निवास जंगल ही खतरे में है। आज विकास के नाम पर उनका विस्थापन किया जा रहा है। शोषण-दमन की परिस्थितियां पैदा की जा रही हैं इससे आदिवासी जीवन की न केवल स्वायत्तता, राष्ट्रीयता और सामूहिकता संकटग्रस्त हुई है बल्कि उसके अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगता जा रहा है। आदिवासी जीवन आज न केवल पुनः आन्दोलित है बल्कि वह अपनी सामाजिक अस्मिता के अन्वेषण के साथ अपनी क्षरणशील संस्कृतिक पहचान को भी बनाने की चिन्ता से भरा हुआ है, इसीलिए आदिवासी चेतना का साहित्य भी लिखा जा रहा है, तो दूसरी ओर हिंदी औपन्यासिकता में भी आदिवासी अस्मिता पहचान और संघर्ष को अभिव्यक्त करने की कोशिश भी दिखाई पड़ रही है।

सामाजिक बदलाव के दर्शन की औपन्यासिक यथार्थ में रूपान्तरित कर किस तरह पेश किया जाता है, इसका उदाहरण आदिवासी जीवन पर लिखे गये उपन्यास हैं। प्रारम्भिक हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन को केन्द्र में रखकर उपन्यास लिखे गये जिसमें प्रमुख रूप से रामचीज सिंह द्वारा कृत ‘वन विहंगिनी; 1909 ई., मन्नन द्विवेदी कृत ‘रामलाल‘; 1904ई., देवेन्द्र सत्यार्थी द्वारा लिखित उपन्यास ‘रथ के पहिये’, योगेन्द्र नाथ का वनलक्ष्मी देवेन्द्र सत्यार्थी ‘ब्रह्मपुत्र’, डॉ. रागेव राघव कृत कब तक पुकारू, नागार्जुन कृत ‘वरूण के बेटे’ आदि उपन्यास है।1 इन प्रारम्भिक हिंदी उपन्यासों में आदिवासी जीवन को केन्द्र में रखकर उनके रहन-सहन उनकी नैतिक स्थिति तथा भौगोलिक स्थिति का वर्णन किया गया है। बाद के आये उपन्यासों में उपन्यासकारों ने अपने उपन्यास का जो विषय लिया उसमें आदिवासी समुदाय के शोषण दमन का तथा ऐसी परिस्थितियों में  किस तरह से आदिवासी समुदाय अपने संघर्ष की धार को तेज कर निरन्तर संघर्ष कर रहा है, इसका वर्णन किया है। इस प्रकार के उपन्यासकारों में जिन प्रमुख उपन्यासकारों का नाम लिया जाता है उनमें प्रमुख है संजीव, मनमोहन पाठक, भगवान दास मोरवाल, राकेश वत्स, पुन्नी सिंह, तेजिन्दर और रणेन्द्र का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है।

      आदिवासी समुदाय के शोषण-दमन को रेखांकित करते हुए भूमण्डलीकरण के इस दौर में उनका जीवन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है इसका चित्रण संजीव अपने उपन्यासों ‘किसनगढ़ के अहेरी‘, ‘सर्कस‘, ‘धार‘, ‘सावधान नीचे आग है‘, ‘पाँव तले की दूब‘, ‘जंगल जहाँ से शुरू होता है‘, ‘रह गयी दिशाएँ इसी पार‘, इत्यादि उपन्यासों में किया है। उन्होंने ‘सावधान नीचे आग है’ एवं ‘धार’ उपन्यास में क्रमशः बिहार और बंगाल के कोयला अंचल में स्थित कोयला खानों में व्याप्त कोयला मजदूरों के नारकीय जीवन तथा इन क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासियों के शोषण का यथार्थ चित्र अंकित किया है। धार उपन्यास में उन्होंने मजदूरों की अपनी सहकारी खदान ‘जनखदान’ का विकल्प भी पेश किया है। ‘पांव तले की दूब’ की कथाभूमि छोटा नागपुर के पठारी इलाके का डोकरी अंचल है। इसी अंचल में सुदीप्त कोयला अंचल में इंजीनियर है साथ ही साथ वह जन-आन्दोलन से जुड़ा एक लेखक भी है। वह इस मानसिक जड़ता को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध है किन्तु अनेक अन्तर्विरोधों के चलने वह असफल होता है और घोर निराशा में आत्महत्या कर लेता है।2

साभार google से

साभार google से

मनमोहन पाठक का उपन्यास ‘गगन घटा घहरानी’ है जिसमें उन्होंने झारखण्ड के आदिवासी समुदाय के ऊपर सामन्ती उत्पीडन को लक्ष्य करके उसका उद्घाटन किया है।3 आदिवासी समुदाय को लक्ष्य करके लिखा गया भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘काला पहाड़’ है जिसमें स्वार्थी राजनेताओं के द्वारा लाभ पाने के लिए सांप्रदायिकता की आग में भोले-भाले आदिवासी समुदाय के साथ जो षडयन्त्र किया गया है उसकी कथा वर्णित है।4

पुन्नी सिंह कृत ‘पाथर घाटी का शोर’ राकेश वत्स कृत ‘जंगल के आस-पास’ मैत्रेयी पुष्पा का ‘अल्मा कबूतरी’ तेजिन्दर सिंह कृत ‘काला पादरी’ आदि ऐसे उपन्यास है जिसमें उपन्यासकारों ने आदिवासी समुदाय के शोषण-दमन का जो चक्र भूमण्डलीकरण में उद्योगपतियों तथा सरकार संघठित प्रतिष्ठानों द्वारा किया जा रहा है उसका वर्णन किया है। ये उपन्यास केवल आदिवासी समुदाय के शोषण-दमन का वर्णन ही नहीं करते अपितु आदिवासी समुदाय अपनी संस्कृति तथा अपनी भौगोलिक स्थिति को संरक्षित रखने के लिए जो संघर्ष करता है तथा जो चुनौतियाँ देता है उसका भी जीवन्त दस्तावेज है।

21वीं सदी में जब भूमण्डलीकरण, औद्योगीकरण अपने चरम पर है तथा विकास के नाम पर आदिवासी समुदाय को उसके मूलभूत आवश्यकताओं जल, जंगल, जमीन’ से बेदखल किया जा रहा ऐसे में संकट केवल उनके अस्तित्व पर ही नहीं उनकी संस्कृति पर भी है। इसी बात को केन्द्र में रखकर आदिवासी समुदाय पर केन्द्रित दो उपन्यासों का नाम है ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ तथा ‘गायब होता देश’ इन दोनों उपन्यासों का प्रणयन कथाकार रणेन्द्र ने किया है।

उपन्यासकार रणेन्द्र का उपन्यास ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सिर्फ उपन्यास न होकर आदिवासी समुदाय खासकर ‘असुर’ का इतिहास भी प्रस्तुत करता है। जिसमें उन्होंने एक जगह पर अब तक असुरों के बारे में जनमानस में बनी धारणा पर प्रहार करते हुए लिखा है कि “सुना तो था कि यह इलाका असुरों का है, किन्तु असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लम्बे-चैड़े, काले-कलूटे, भयानक दाँत-वाँत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग लगे हुए होंगे। लेकिन लालचन को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा है।’’5

इसी उपन्यास में रणेन्द्र ने असुरों का जो संघर्ष मुख्य धारा के साथ रहता है, वह संघर्ष केवल आज का नहीं है बल्कि सदियों से लगातार पीछे रहने के लिए विवश किए जाते रहे असुरों की कहानी का मर्म खोलता है। वे असुर लालचन के चाचा के पूजे (हत्या किए) जाने से इसे विगत हजारों वर्षों से चले आ रहे संघर्ष और मिटाए जाने के षडयन्त्र के रूप में देखते हैं और लिखते हैं यह केवल एक लालचन्दा के चाचा की हत्या का सवाल नहीं था। न वह पहली बार जमीन के टुकड़े के लिए हुई थी। यह तो हजारों साल से चल रहे घोषित-अघोषित युद्ध की नवीनतम कड़ी मात्र था। कटे सिर ने हमारी काल व देश की समझ को गडबड़ा दिया था।’’6

‘ग्लोबल गाँव के देवता’ असुरों का वैश्विक परिप्रेक्ष्य पेश कर उसका इतिहास प्रस्तुत करता है साथ ही साथ इस भूमण्डलीकरण के दौर में उनकी सांस्कृतिक पहचान के ऊपर हो रहे हमलों को भी उद्घाटित करता है। उपन्यास की एक पात्र ललिता के शब्दों में असुर संस्कृति को समझा जा सकता है हमारे महादनिया महादेव वह नहीं हैं लंगटा बाबा के है। हमारे महादेव यह पहाड़ है, जो हमे पालता है। हमारी सरना माई न केवल सखुआ गाछ में बल्कि सारी वनस्पतियों में समाई है। हम सारे जीवों से अपने गोत्र को जोड़ते है। छोटे जीवों, कीट-पतंगो को भी अपने से अलग नहीं समझते। हमारे यहाँ ‘अन्य’ की अवधारणा नही है जिस समाज के पास इतनी बड़ी सोच हो उसे किसी लंगटा बाबा या किसी और की शरण में जाने की जरूरत ही क्या है?‘‘7

रणेन्द्र ने अपने उपन्यास में ‘ग्लोबल गांव के देवता’ में आदिवासी समाज के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विविध पहलुओं पर हो रहे शोषण दमन को ग्लोबल सोच के साथ दिखाया है तथा इन तमाम यातनाओं के बावजूद भी आदिवासी समाज अपने संघर्ष को नहीं छोड़ता बल्कि वह निरन्तर संघर्ष के साथ विश्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है।

रणेन्द्र का दूसरा उपन्यास जो अभी हाल ही में प्रकाशित होकर आया है ‘गायब होता देश’ है। जिसमें उन्होंने ‘मुण्डा’ आदिवासी समुदाय को केन्द्र में रखकर उसके शोषण-दमन संघर्ष को कथा का माध्यम बनाते हैं तथा मुण्डा समाज की इतिहास संस्कृति को विश्लेषित करते हैं। प्रसिद्ध कथाकार, सम्पादक एवं विचारक रमेश उपाध्याय ने गायब होता देश के बारे में लिखा है कि ‘‘यह उपन्यास भूमण्डलीय यथार्थवाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।’’8 इस उपन्यास में रणेन्द्र ने मुण्डाओं के लाखो वर्ष पुराने इतिहास को दिखाया है। मुण्डाओं के वर्तमान को अतीत से जोड़ने के साथ-साथ विष्य से भी जोड़ने के लिए लेखक ने उपन्यास के प्रमुख पात्र सोमेश्वर के माध्यम से कहता है लेकिन इतना तो तय है कि लेमुरिया समुद्र में प्रकट हुआ, पुनः समुद्र में डूब गया, लेकिन नये युग के उदय के साथ वह पुनः प्रकट होगा’’।9

रमेश उपाध्याय लिखते हैं कि ‘‘इस उपन्यास में वर्तमान व्यवस्था विकास के नाम आदिवासियों की इन उन्नत, सुन्दर और टिकाऊ सभ्यता संस्कृति को समूल नष्ट करने पर तुली है। देशी, विदेशी, कारपोरेट, विल्डर, भू-माफिया, मीडिया खदान कम्पनियाँ और केन्द्र तथा राज्य सरकारें सभी आदिवासियों की जमीनें, जंगल और जल हडपने, उनके पहाड़ो में छिपी सम्पदा को लूटने तथा उन्हें मार-पीटकर उजाड़ने, गाने और दरिद्र बनाने पर तुले हुए हैं।’’10

मुण्डाओं को अपने देश से कितना प्यार है यह उनके शब्दों में ‘सोने जैसा देश’ से प्रकट हो जाता है और वही सोने जैसा देश गायब होता जा रहा है जिसका दर्द सोमेश्वर कि शब्दों से उभरती मर्मान्तक चीज को सुनकर जाना जा सकता है ‘‘थोड़ी देर के लिए सोचिए बच्चू! अगर लुटियन दिल्ली के नीचे कोयला निकल आये, इलाहाबाद सिविल लाइन्स के नीचे बाक्साइट, यूरेनियम चण्डीगढ के नीचे आयरन, लखनऊ, चेन्नई, बेंगलुरू के नीचे तो क्या उजाडेगा लोग उसे? होगा वहाँ विस्थापन? नहीं कभी नहीं ऐसा कभी नहीं होगा क्योंकि वहां रहने वाले एलीट सम्माननीय नागरिक है। भारत माता के अपने खास बेटे। फिर हम क्या हैं? केवल लाभुक, कोई टार्जेट ग्रुप या फिर किसी शोध के लिए एक ठोस केसर। क्या हैं हम? क्या मुआवजा के रजिस्टर के बस एक नम्बर, या कि कल्याण विभाग के फाइल की फटी हुई झोली, फादर हाफमैन, वरियर एल्विन जैसो की किताबों की ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीरें। क्या हैं हम? सच बात है कि उनकी नजर में हम हैं ही नहीं। फिर यह हमारी साँस लेती हुई जिन्दगी क्या है? क्या हम आपके सौतेले बेटे हैं भारतमाता।’’11

उपन्यासकार रणेन्द्र ने जहाँ ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ में असुर समुदाय के ऐतिहासिक सामाजिक सांस्कृतिक पहचान को उद्घाटित किया वही पर इन्होंने ‘गायब होता देश‘ में आदिवासी मुण्डा समुदाय के जीवन को केन्द्र में रखकर उनके ऐतिहासिक दस्तावेज के साथ-साथ उनके शोषण दमन के जो षडयन्त्र औद्योगिक घरानों व प्रतिष्ठानों द्वारा हो रहे हैं उसका वर्णन किया है तथा इन समुदायों के संघर्ष को भी बखूबी चित्रित किया है।

इस प्रकार हिंदी साहित्य में जो उपन्यास अब तक आये हैं उनमें जहाँ प्रारम्भिक उपन्यासों में आदिवासी समुदाय के बाह्य स्वरूप को कथा का आधार बनाया जाता था उसमें विस्तार हुआ अब जो उपन्यास 21वीं सदी में आदिवासी समुदाय को केन्द्रित कर लिखे जा रहे हैं।

उनमें आदिवासियों के शोषण-दमन तथा मुख्यधारा के साथ खासकर औद्योगिकीकरण के होने से उसके अस्तित्व के खतरे को लेकर काफी लिखा जा रहा है। आदिवासियों ने अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जो संघर्ष का रास्ता अपनाया है उसे उनकी भाषा में ‘उलगुलान‘ कहा जाता है अब वे इस भूमण्डलीकरण में अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक खतरों के खिलाफ ‘उलगुलान’ के नारों के साथ संघर्ष कर रहे हैं और उनके इस संघर्ष से साहित्य भी अछूता नहीं है।

संदर्भ-

  1. 1. सं, डॉ., एम. फिरोज, अहमद, वाङ्मय (त्रैमासिक पत्रिका) अक्टूबर 2013, मार्च 2014 आदिवासी विशेषांक 2 पृष्ठ 17
  2. 2. सं. तिवारी, रामचन्द्र, हिंदी का गद्य साहित्य, पृष्ठ 199
  3. 3. सं. डॉ., एम. फिरोज अहमद, वाङ्मय, त्रैमासिक पत्रिका आदिवासी, विशेषांक-2 पृष्ठ 33
  4. 4. वही, पृष्ठ 31
  5. 5. रणेन्द्र, ग्लोबल गाँव के देवता, भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली, पृष्ठ 11
  6. 6. वही, पृष्ठ 32
  7. 7. वही, पृष्ठ 72
  8. 8. सं. लीलाधर मंडलोई, नया ज्ञानोदय, जुलाई 2014 अंक 137 पृष्ठ 110
  9. 9. रणेन्द्र, ‘गायब होता देश’, पेग्विन इंडिया, पृष्ठ 131
  10. 10. सं0 लीलाधर मंडलोई, नया ज्ञानोदय, जुलाई 2014ए अंक 137 पृष्ठ 110

11. रणेन्द्र, गायब होता देश, पेग्विन इंडिया, पृष्ठ 263

कृष्ण कुमार द्वारा लिखित

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