बसेरे से दूर: विजन, शिल्प एवं भाषा: आलेख (नितिका गुप्ता)
नीतिका गुप्ता 642 11/17/2018 12:00:00 AM
“डाॅ. हरिवंशराय ने अपनी आत्मकथा का तीसरा खंड ‘बसेरे से दूर‘ 1971 से 1977 के दौरान लिखा। इस खंड में उनके इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में अध्यापक होने, देश-परिवार से दूर जाकर ईट्स के साहित्य पर शोध कर केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पीएच.डी. की उपाधि लेने, इसके बाद स्वदेश वापसी एवं इलाहाबाद छोड़कर विदेश मंत्रालय में नियुक्त होने (अर्थात् 1952 से 1954) तक की घटनाओं को समेटा गया है। इसमें मुख्य रूप से बच्चन जी एक अध्यापक, शोधक एवं आलोचक के रूप में पाठकों के समक्ष आए हैं। बच्चन जी के लिए उनके विद्यार्थी कितने महत्त्वपूर्ण रहे और अध्यापन के प्रति वे स्वयं कितने गंभीर रहे हैं, इस बात को निम्न कथन द्वारा समझा जा सकता है-“मैं अपने पढ़ाने में इस बात का विशेष प्रयत्न करता कि मैं विद्यार्थियों में स्वयं पढ़ने की रुचि जमाऊँ, शायद इसलिए भी इससे मेरे पढ़ाने में जो कमी हो उसकी पूर्ति हो जाये। लेक्चरर लोग स्वाध्याय के लिए पुस्तकों की लम्बी-चैड़ी सूची का इमला तो जरूर बोल देते थे, पर विद्यार्थियों को पुस्तकें सुलभ न होती थीं……..विद्यार्थियों की इस असुविधा का हल निकालने के लिए मैंने एक सेक्शन लाइब्रेरी की स्थापना की। प्रथम वर्ष में विद्यार्थियों ने मिलकर जितना चंदा दिया उतना मैंने स्वयं उसमें मिलाकर कुछ जरूरी सहायक पुस्तकें खरीदकर क्लास की अलमारी में रख दीं।…….14 वर्ष बाद जब मैंने युनिवर्सिटी छोड़ी पूरी अलमारी, काफी बड़ी, किताबों से भर गयी थी……हर पुस्तक और हर विद्यार्थी को एक निश्चित नम्बर देकर मैंने एक ऐसी सरल विधि बनाई कि लगभग 60 विद्यार्थियों को केवल 5 मिनट में पुस्तकें इशू करने का काम मैं समाप्त कर देता था। सदस्यता सीमित रहने से निश्चय मेरे बहुत-से विद्यार्थियों ने उन पुस्तकों से लाभ उठाया, शायद उससे अधिक जितना मेरे क्लास में व्याख्यान देने से।”3 वस्तुतः वर्तमान में जब अध्यापन सिर्फ एक व्यवसाय बनकर रह गया है और अध्यापकी जीवन की शुरुआत में तैयार किए गए नोट्स ही साल-दर-साल पढ़ाए जाते हैं, ऐसे समय में यह प्रसंग अध्यापकों को अपनी शिक्षण पद्धति पर विचार करने के लिए मजबूर करता है।” शोधार्थी ‘नितिका गुप्ता’ का आलेख …….