वर्तमान सांस्कृतिक परिदृष्य में रंगकर्म की चुनौतियाँ: आलेख (राजेश कुमार)

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राजेश कुमार 326 11/18/2018 12:00:00 AM

लेखक और कलाकार आम जनता से अलग-थलग होने लगे। एकांकी जीवन व्यतीत करने लगे। सामूहिकता व्यक्तिवाद में तब्दील होने लगा। मुगालते में रहने लगे कि जनता के बीच जाने की जरूरत क्या है? अगर जनता के विचार की जरूरत भी होगी तो यहां के बदले कहीं और से भी आयतित किया जा सकता है। साम्प्रदायिकता, जनतंत्र का अस्तित्व, विज्ञान की समसामयिकता पर अगर बल देना भी हो तो उन्हे मिथक या किसी और वाह्य प्रतीकों द्वारा कलात्मक ढंग से लाकर प्रगतिशीलता बरकरार रखी जा सकती है। आज जमीनी सच्चाई के यथार्थ से बचकर कहीं और की सच्चाई दिखाने का साहित्य-कला में खूब प्रचलन है। और ऐसी कला की खूबी ये है कि प्रगतिशील और प्रतिगामी दोना पक्ष एक साथ इस्तेमाल कर रहे हैं। जनता पहचान ही नहीं पाती है कि कौन कलाकार हमारे पक्ष का है, कौन सी कलाकृति हमारी बात कर रही है? इस तरह का जो संशय आज है, इसको तोड़ना भी आज के सांस्कृतिक आंदोलन की जबरदस्त चुनौती है………..|

वर्तमान सांस्कृतिक परिदृष्य में रंगकर्म की चुनौतियाँ

राजेश कुमार

देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में अरूचि, अलगाव, व्यक्तिवाद व विचारशून्यता का जो दीमक फैला हुआ है, आवश्यक है इसका पुनर्मूल्यांकन हो कि आखिर इस सीलन का प्रवेश हुआ कहां से? तटस्थ होकर, भावुकता से परे होकर उन तमाम गतिविधियों और कार्यकलापों की जांच-परख हो, आलोचनात्मक विश्लेषण हो। क्योंकि कोताही बरती गयी, भ्रामक विचार व सिद्धांतों के लकीर के फकीर बने रहे तो आने वाले दिनों में वो जमीन जिस पर अभी पैर टिके हैं, खिसकते देर नहीं लगेगी। संघर्षों, आंदोलनों से जो प्राप्त किया है, जिस क्रांतिकारी परंपरा पर फख्र है, उसे इतिहास के पन्नों तक सीमित रहने के सिवा कुछ शेष नहीं रहेगा। कहने में हिचक नहीं है कि इन दिनों हालात कुछ अच्छे नहीं है, बद से बदतर होते जा रहे हैं । प्रतिगामी शक्तियों ने अपने सीने में इतनी हवा भर ली है कि जरा सा वे फुफकार मारते हैं कि कमजोर लोगों की जमीन हिलने लगती है। कुछ तो ऐसे हैं जो बिना फुफकार के हवा में उड़ रहे हैं। पाला बदलने वालों की तो जैसे होड़ लगी है। व्यर्थ ही उन्हें जड़ वाले समझते थे।

हताशा की इस बेला में केवल रोने और छाती पीटने से भी काम नहीं चलने वाला। बल्कि जो जहां है, जिस जगह है, वहीं से खुद को तैयार करना होगा। अगर सांस्कृतिक मोरचे पर हैं तो वहीं से उस तंत्र को विस्थापित करने का प्रयास करना होगा जो अंध राष्ट्रवाद के कंधे पर चढ़कर केवल बांसुरी ही नहीं बजा रहा है बल्कि ऐसी तान छेड़ रहा है जिसके सम्मोहन में लोगों का हुजूम उस अंधेरी सुरंग की तरफ चला जा रहा है। हसीन सपनों में इस कदर खो गया है कि कोई भी तर्क और विज्ञान समझने को तैयार नहीं है। ऐसे में केवल राजनीतिक रूप से आवाज लगाने से काम नहीं चलेगा, सांस्कृतिक स्तर से भी झकझोरना होगा। बल्कि दोनों मिलकर और परस्पर कंधा से कंधा मिलाकर कोई मुहिम चलायें तो सार्थक होगा। इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हाल के दिनों में राजनीति और संस्कृति के बीच तालमेल घटा है। दोनो इस मुगालते में रहे हैं कि जरूरत क्या है परस्पर करीब आने की। राजनीति क्षेत्र से जुडे़ लोग सस्कृतिकर्मियों को जहां अराजनीतिक का मुलम्मा जड़कर किनारे कर दे रहे हैं, वहीं संस्कृतिकर्मी इस ऐंठ में रहते हैं कि राजनीतिकों को कला-साहित्य की क्या तमीज है? जब कि यथार्थ ये है कि पहले जब-जब भी कोई परिवर्तनकामी आंदोलन हुए, दोनो ने कंधा से कंधा मिलाकर, बल्कि पर्याय के रूप में संघर्ष को तीव्र करने में योगदान दिया। और ये मंजर केवल अपने देश में नहीं, दुनिया में जहाँ कहीं भी जनता की लड़ाई लड़ी गयी, देखने को मिलता है।

 भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद, परिवारतंत्र, निर्णयहीनता को आधार बनाकर जो राष्ट्रवादी विचारधारा सत्ता तक पहुंची है वो कोई नया आदर्श स्थापित नहीं करने वाली है। कुछ ही दिनों में जिस तरह भ्रष्टाचार व व्यक्तिवाद के नमूने सामने आये हैं, वे उनके मूल चरित्र को उद्घाटित करने के लिए काफी हैं। भले कुछ दिन अभी और बुलेट ट्रेन, स्मार्ट सिटी, आठ लेन की सड़के, खूबसूरत विश्वस्तरीय कारें क्लब, पब, होटल और अपार्टमेंट, हैतरअंगेज उपभोक्ता वस्तुओं से अच्छे दिन का भ्रम पैदा कर लें, संस्कृति के नाम पर अंधराष्ट्रवाद का राग अलाप कर लोगों को जमीनी हालात से काट लें, गांधी और अम्बेडकर का जबरन अधिग्रहण करने का नकली प्रयास कर लें, जल्द भ्रम का जाल तार-तार हो जायेगा। लेकिन ये केवल हताशा में बैठने से नहीं होगा। हम बिखर गये हैं, हमें फिर से एक नये सिरे से एकजुट होना होगा। उन चुनौतियों का सामना करना होगा। ये चुनौतियां केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं, सभी क्षेत्रों में हैं। सांस्कृतिक क्षेत्र में तो और। राजनीतिक लोग जो संस्कृति को हल्के में लेते हैं, वे बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।

सांस्कृतिक आंदोलन ने जब-जब जोर पकड़ा है, सत्ता ने भरमाने का खूब प्रयास किया है। चाहे आजादी के पूर्व बंगाल में साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा उत्पन्न कृत्रिम अकाल में लाखों लोगों के भूख से मरने के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर छेड़ा जाने वाला इप्टा का आंदोलन हो या नक्सलबाडी आंदोलन के तहत सामंतवाद के विरूद्ध छेड़ा गया सांस्कृतिक संघर्ष, थोपे गये आपातकाल के दौर में सड़कों पर उतर आये छात्रों किसानों-मजदूरों के स्वर को जन-जन तक ले जाने वाला नुक्कड़ नाटक आंदोलन, सबों को व्यवस्था ने पहले तो दमनात्मक गतिविधियों से तोड़ने की पुरजोर कोशिश की, जब यह खत्म होने के बजाय और तेज हो गया तो इस आंदोलन के अंदर घुसकर, छद्म ढंग से न केवल आत्मसात् कर लिया बल्कि इसका रूप इतना विकृत कर दिया कि नाट्य विधा का यह रूप सत्ता के दलाल का पर्याय हो गया। नुक्कड़ नाटक आंदोलन का क्या हश्र हुआ, सर्वविदित है। आजादी के पूर्व और बाद के दिनों के इप्टा का मूल्यांकन करेंगे तो अत्यंत निराशा हाथ लगेगी। ऐसा नहीं है कि आंदोलन के क्षरण का कारण केवल तत्कालीन सत्ताधारी वर्ग रहा है।

हमारी राजनीति करने वालों की संस्कृति के प्रति उदासीनता, थोड़ी हठधर्मिता और कुछ-कुछ वैचारिक भटकाव भी रहा है जिसे स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं है। अगर इसको लेकर कोई आलोचना भी करता है तो उसे इजाजत देने में हिचक नहीं होनी चाहिए। आलोचना की संस्कृति का हर हाल में सम्मान होना चाहिए।

अपने देश में भूमंडलीकरण की प्रक्रिया अभी खत्म नहीं हुई है, जारी है बल्कि वर्तमान में तो बिल्कुल नये और खतरनाक मोड़ पर है। अगर एक तरफ प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट की इन्तहा है तो संस्कृति को दुहने में भी कोई कमी नहीं है। कला-साहित्य सब कुछ इस विषय पर केंद्रित है कि इससे मुनाफा क्या हो? फिल्म बनाना मुनाफा कमाने का एक जरिया हो गया है। जो फिल्में करोड़ों का व्यापर कर रही है, वो सफल कहला रही है। इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं रहता कि उसका समाज से क्या सरोकार है? वो कितना जनोपयोगी है? कमोबेश यही दशा रंगमंच की भी है। आज कारपोरेट घराने के लोग किस तरह खेत-खलिहान, नदियां, पहाड़, जंगल लूट रहे हैं, बिजली, पानी, हवा, भोजन और मकान जैसी सुविधाओं को हड़प जाना चाह रहे हैं, किसानों की जमीन का जबरन अधिग्रहण कर उन्हे गांवों से बेदखल कर रहे हैं, बेरोजगार बना रहे हैं, आत्महत्या करने के लिए विवश कर रहे हैं, इन सब जलते हुए सवालों से आज कितने संस्कतिकर्मी जूझ रहे हैं? जितनी तादात में कुंठा, हताशा, संत्रास पर कविता-कहानी-नाटक लिखे और किये जा रहे हैं, उनकी अपेक्षा किसानों की आत्महत्या, पानी के अकाल पर लड़ने वाले किसानों की लड़ाई पर कितने नाटक लिखे जा रहे है? बल्कि इन पर लिखने वालों पर अतिवाद का आरोप लगा कर इनके साहित्य को खारिज करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसे हालात में दलितों और आदिवासियों पर हो रहे जातिगत हमले को विषय बनाना तो दूर की बात है। वे तो सामाजिक जीवन की तरह साहित्य की दुनिया में भी अस्पृश्य हैं। हाल के दिनों में दलितों पर भले कुछ जोर है, आदिवासी तो अब भी  अंजान लोक की तरह है। स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास से लेकर संस्कृति के क्षेत्र में भी दलितों और आदिवासियों को वो स्पेस नहीं मिला, जिसके वे हकदार हैं। ये केवल संयोग की बात नहीं है कि असमानता, अस्पृश्यता और शिक्षा को लेकर फुले ने जो सांस्कृतिक स्तर पर आंदोलन चलाया, प्रेमचंद के समकालीन अछूतनानंद ‘हरिहर’ ने अपने नाटकों में जो सवाल खडे़ किए, दलित रंगकर्मियों को लेकर दलित थियेटर की नींव रखी जिसे बाद के वर्षों में अम्बेडकर ने वर्णवादी व्यवस्था के खिलाफ हथियार की तरह इस्तेमाल किया, उसकी चर्चा करते हुए नाट्य समीक्षक जरा सकुचाते हैं। उन पर लिखने में कंजूसी बरतते हैं।

आज यही सारे सवाल चुनौती बन कर हमारे बीच घने बादलों की तरह गड़गड़ा रहे हैं। भूमण्डलीकरण और नव उदारवाद ने केवल खेतों, जंगलों और कारखानों से किसानों, आदिवासियों और मजदूरों को ही नहीं उखाड़ा है, संस्कृतिकर्मियों को भी अपनी जड़ों से विलग कर दिया है। लेखक और कलाकार का अब जनता से वो गहरा रिश्ता नहीं रहा। उन्हें न तो किसानों, आदिवासियों और मजूदरों की कोई जानकारी है, न इसकी कोई जरूरत समझते हैं। बल्कि एक धारणा तो अत्यंत प्रचारित है कि जो भी अपनी कृति में इनको लायेगा, शाश्वतता प्राप्त नहीं करेगा। आंदोलन, संघर्षों से जो राजनीतिक विचार कलाकारों को रचना को उर्वर बनाने हेतु प्राप्त हुआ करता था, उसका भी पिछले दिनों राजनीतिक बिखराव, परस्पर तालमेल की कमी के कारण अभाव रहा। जिसका परिणाम यह रहा कि लेखक और कलाकार आम जनता से अलग-थलग होने लगे। एकांकी जीवन व्यतीत करने लगे। सामूहिकता व्यक्तिवाद में तब्दील होने लगा। मुगालते में रहने लगे कि जनता के बीच जाने की जरूरत क्या है? अगर जनता के विचार की जरूरत भी होगी तो यहां के बदले कहीं और से भी आयतित किया जा सकता है। साम्प्रदायिकता, जनतंत्र का अस्तित्व, विज्ञान की समसामयिकता पर अगर बल देना भी हो तो उन्हे मिथक या किसी और वाह्य प्रतीकों द्वारा कलात्मक ढंग से लाकर प्रगतिशीलता बरकरार रखी जा सकती है। आज जमीनी सच्चाई के यथार्थ से बचकर कहीं और की सच्चाई दिखाने का साहित्य-कला में खूब प्रचलन है। और ऐसी कला की खूबी ये है कि प्रगतिशील और प्रतिगामी दोना पक्ष एक साथ इस्तेमाल कर रहे हैं। जनता पहचान  ही नहीं पाती है कि कौन कलाकार हमारे पक्ष का है, कौन सी कलाकृति हमारी बात कर रही है? इस तरह का जो संशय आज है, इसको तोड़ना भी आज के सांस्कृतिक आंदोलन की जबरदस्त चुनौती है। जिन विषयों को नाटक, कहानी, कविता में उतारने से बचा जा रहा है, कन्नी काटकर बगल से निकलने का प्रयास हो रहा है, उस जोखिम को उठाना होगा। भले कुछ लोगों को ऐसी रचना असहज लगे, लेकिन लाना होगा। सबको खुश रखने की चाह में सच को दरकिनार नहीं कर सकते। किसी के नाराज होने के डर से मुँह पर जाब नहीं लगाया जा सकता है।

आज पूंजीवादी समाज जलती हुई सच्चाइयों के साक्षात्कार को टाल देने के कितने भी निपुण प्रयास करता हो, वह प्रतिरोधी चेतना को लम्बे समय तक मूर्छित नहीं कर सकता है, उसका टूटना तय है। और यह तभी संभव है जब संस्कृतिकर्मी अपनी जड़ता तोडे़गा। वर्तमान में जो सांस्कृतिक चुनौतियां है, उसमें निष्क्रिय नहीं रहेगा, हस्तक्षेप की जरूरत महसूस कर सामने आयेगा। किसान-मजूदर-दलित-आदिवासी के बीच जाना होगा। उनकी भाषा, उनका कथ्य, उनका दर्द, उनके बीच ही जाकर जाना जा सकता है। कमरे में बैठकर, केवल कल्पना का सहारा लेकर अगर कोई कृति रच भी ली गयी तो वो स्वाभाविक नहीं होगी। भूमण्डलीकरण ने पूंजी के आधार पर समाज में लोगों के बीच वर्ग भेद उत्पन्न किया है, सामंतवाद ने वर्ण व्यवस्था को यथावत रखते हुए जातिगत श्रेष्ठता का कुचक्र जारी रखा है, उस व्यूह को तोड़कर कलाकारों को डिक्लास करना होगा। इस संकोच से बाहर आना होगा कि निम्नतर लोग हमें क्या सिखा सकते हैं? जिसका जीवन आप रच रहे हैं, बगैर उनके बीच उठे-बैठे, कला-साहित्य-रंगमंच पर उतारना संभव नहीं है। अगर रचा भी तो वो नीरस, कृत्रिम होगा।

जिस तरह वे छात्रों के बीच दलित सवालों को उठाने पर प्रतिबंध लगा दे रहे हैं, किसी ने गर उनकी साम्प्रदायिकता पर सवाल खड़े कर दिये तो पूरे तंत्र के साथ उसे भ्रष्ट व अपराधी साबित करने पर तुले हैं, प्रेम को भी जाति-धर्म के बंधन में बांधने पर अमादा हैं, उसका प्रतिरोध हर मोर्चे पर करने की जरूरत है। बल्कि प्रतिरोध के मोर्चे पर समकक्षीय विचार वालों से साझा मंच बनाने की जरूरत पड़े तो वो भी कर लें क्योंकि आज की यह जरूरत है। अलग-अलग बोलने के बजाय अगर एक साथ समवेत् स्वर में बोला जाए तो आवाज दूर तलक जायेगी।

हस्तक्षेप अगर बाहर जरूरी है तो अंदर भी उतना ही। अगर अंदर वही सामंती सोच, पूंजीवादी नजरिया बैठा होगा तो वह भी उतना ही रोढ़ा अटकायेगा। सांस्कृतिक नीति की उदासीनता के लिए अगर सत्ता वर्ग पर अंगुली उठाते है तो अपने लोग इस बिंदु पर कितने स्पष्ट हैं, हस्तक्षेप के तहत इसका भी विश्लेषण होना चाहिए। कोई भी कला माध्यम केवल राजनीतिक पार्टी का भोंपू बनने के लिए नहीं है, कोई भी सांस्कृतिक संगठन केवल पार्टी वर्कर्स बनाने की फैक्ट्री नहीं है, इसे जितनी जल्दी समझना हो, समझ लेना चाहिए नहीं तो अभी जो हालात हैं, सालों साल बदतर बने रहेंगे। हम और कमजोर और बिखरते जायेंगे। वे मजबूत और मजबूत होते जायेंगे। वेसे भी प्रेमचंद की वो बात कैसे बिसरा सकते है कि साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। मशाल का स्थान जूलूस के आगे ही होना चाहिए। पीछे कर देंगे तो उसमें शामिल लोगों को आगे का रास्ता कैसे दिखेगा? किधर जाना है, लोगों को पता कैसे चलेगा? लोग राह से भटक न जाए इसलिए जरूरी है मशाल आगे रहें। आगे रहेगा तभी अंधेरे को चीर सकेगा, अंधेरे के विरूद्ध हस्तक्षेप कर सकेगा।

राजेश कुमार द्वारा लिखित

राजेश कुमार बायोग्राफी !

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