ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…?: संपादकीय (हनीफ मदार)

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…?: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 538 11/17/2018 12:00:00 AM

ऐसे में लेखक बेचारा करे भी क्या…? हनीफ मदार हनीफ मदार इधर हम छियासठवें गणतंत्र में प्रवेश कर रहे हैं | अंकों के लिहाज़ से इस गणतंत्र वर्ष के शुरूआत 1 जनवरी २०१६ से पूरे हफ्ते हमरंग पर एक भी पोस्ट या रचना प्रकाशित नहीं हो सकी | जबकि न लेखकों की कमी थी और न ही उनकी बेहतर रचनाओं की | तब ज़ाहिरन उनके ताने-उलाहने और शिकायतें सुननी ही थीं और मैं सुन भी रहा था ‘संपादक जी मेरी कविता, कहानी, व्यंग्य, आलेख, नाटक, रपट या अन्य विधाओं की रचनाएं जो रहीं कब तक प्रकाशित करेंगे | मेरी रचना तो नए साल के लिए ही थी और आपने पढ़ी होगी बेहद प्रासंगिक भी थी’ | और यकीन मानिए निश्चित ही वे सभी रचनाएं सामाजिक, राजनैतिक और खासकर साहित्यिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण थीं जो इस पूरे हफ्ते में निरंतर प्रकाशित होनी थीं | किन्तु हमारी बिडम्बना कि हमारे पास इन तमाम लेखक साथियों के सामने अफ़सोस ज़ाहिर करने, खुद में खिन्न होने और खीझने के अलावा कुछ नहीं था |

पुस्तक मेले से लौटकर…: संपादकीय (हनीफ मदार)

पुस्तक मेले से लौटकर…: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 359 11/17/2018 12:00:00 AM

पुस्तक मेले से लौटकर… हनीफ मदार हनीफ मदार एक दिन कटता है तो लगता है एक साल कट गया | भले ही यह एक किम्बदंती ही सही लेकिन वर्तमान में सच साबित हो रही है | आधुनिकता के साथ समय जिस तेज गति से आगे बढ़ रहा है उस गति से आधुनिक वैचारिक रूप में सामाजिक और राजनैतिक बदलाब दृष्टिगोचर नहीं हो रहे बल्कि इसके बरअक्श यह कहना कहीं ज्यादा उचित होगा कि वैचारिक दृष्टि से हम अपने समय को कहीं पीछे और बहुत पीछे धकेल रहे हैं | निश्चित ही यह बात एक बड़ा विरोधाभाष पैदा करती है लेकिन वर्तमान के इस सच से आँखें भी नहीं चुराई जा सकतीं | एक लेखक के रूप में यह सोचते हुए लगातार परेशान हूँ कि आखिर इस समय में क्या लिखूं , किस समाज, व्यक्ति या विचार की कहानी जिससे किसी की भावनाओं और संभावनाओं को ठेस न पहुंचे | इन शंका आशंकाओं से घिरा सोचता हूँ कि क्या विरोध, विद्रोह जैसे शब्द अपनी लेखनी से बाहर निकाल फैंकने चाहिए …, फिर वह लेखन ही क्यों ….? खासकर रचना का संकट तब और बढ़ जाता है जब, आर्थिक संकटों के अलावा शोषण की पराकाष्ठा के साथ कॉरपोरेट लूट युवाशक्ति की हताशा के रूप में नजर आ रही है | फासीवादी शक्तियों का खेल अब खुले आम होने लगा है फलस्वरूप साम्प्रदायिकता वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में एक बड़ी समस्या के रूप में उपस्थित हुई है | इन तमाम साम्राज्यवादी कारकों के प्रभाव में भारतीय सांस्कृतिकता और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल हासिये पर हैं | फिर लेखक सोचने को विवश है कि, ऐसे में हमारी रचनात्मक उदासीनता साम्प्रदायिक शक्तियों को अपनी सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक जीवन को और अधिक विखंडित करने का मौक़ा देती है | अतः वर्तमान की इन ज्वलंत समस्याओं से मुक्ति पाने के रचनात्मक रास्ते खोजने की जरूरत है |

अप्रभावी होता ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ (हनीफ मदार)

अप्रभावी होता ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 531 11/17/2018 12:00:00 AM

अप्रभावी होता ‘सांस्कृतिक आंदोलन’ हनीफ मदार हनीफ मदार आज जिस दौर में हम जी रहे हैं वहां सांस्कृतिक आंदोलन की भूमिका पर सोचते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एक दूसरे के पूरक दो शब्दों के निहितार्थाें के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता शिद्दत से महसूस होने लगी है। क्याेंकि आज सांस्कृतिकता का पूरक आंदोलन शब्द ही हाशिये पर जा पहुंचा है। तब इस पड़ताल की आवश्यकता इस लिए और बड़ जाती है जब इन दोनों शब्दों के बीच रिक्तता की खाई को बड़ी संजीदगी से,े वे बाजारू ताकतें अपनी चमकीली हलचलों को, सांस्कृतिक आंदोलन बताकर, पूरे वर्गीय संघर्ष को भरमाने और पलीता लगाने में जुटी हैं। जब देश के बड़े मध्य वर्ग के बीच नवजागरण का स्थान दैवीय जागरण ने ले लिया है और पूरा मध्य वर्ग आंखें मूंदे किसी समतामूलक समाज की कामना में तल्लीन है। ठीक उसी समय सांप्रदायिकता का खतरनाक खेल, बाज़ारबाद, निजीकरण और सबसे ऊपर विकास का नाम देकर अपने संसाधनों को, कॉर्पोरेट के लिए जमकर लूटने की खुली छूट देने के उभार बेचैन करते हैं।

नहीं टूटेगा आपका भरोसा….: संपादकीय (हनीफ मदार)

नहीं टूटेगा आपका भरोसा….: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 398 11/17/2018 12:00:00 AM

नहीं टूटेगा आपका भरोसा…. हनीफ मदार हनीफ मदार किसी भी लेखक की पूँजी उसका रचनाकर्म होता है | अपनी रचनाओं को संजोने के लिए लेखक अपनी जिंदगी के उन क्षणों को अपने लेखन के लिए आहूत करता है जो आम तौर पर अपने निजत्व या अपनों की छोटी-छोटी खुशियों के बायस होते हैं | बावजूद इसके अनेक अलिखित और श्रमसाध्य मुश्किलों से गुज़रकर लिखा जाने वाला साहित्य या रचनाएं लेखक की अपनी नहीं होतीं क्योंकि वह खुद ही अपनी संवेदनाओं के वशीभूत, सामाजिक और मानवीय उत्तरदायित्व समझते हुए अपना सम्पूर्ण रचनाकर्म समाज को सौंप देता है | लेखक पास रहता है तो बस अदृश्य आशाओं का एक किला जिसे वह अपने प्रति सामाजिक प्रतिक्रिया और सामाजिक बदलाव के रूप में देखता है | सामाजिक बदलाव की दिशा में उसकी यही आंशिक भागीदारी उसकी संतुष्टि की वाहक होती है |

365 दिन के सफ़र में “हमरंग”: संपादकीय (हनीफ मदार)

365 दिन के सफ़र में “हमरंग”: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 941 11/17/2018 12:00:00 AM

365 दिन के सफ़र में “हमरंग” (हनीफ मदार) हनीफ मदार साथियो जहाँ समय का अपनी गति से चलते रहना प्राकृतिक है, वहीँ वक्ती तौर पर चलते हुए अपने निशान छोड़ना इंसानी जूनून है | वक़्त के उन्हीं पदचापों के अनेक खट्टे-मीठे, अहसासों और घटना-परिघटनाओं से सीखते-समझते हुए ‘हमरंग’ ने आज एक वर्ष का सफ़र तय कर ही लिया | अंकों के लिहाज़ से यह “एक” भले ही सबसे छोटी इकाई हो लेकिन यह एक वर्ष 365 दिन की वह यात्रा है जिसका हर दिन कुछ नई उपलब्धियों, चुनौतियों, उर्जा और अवसाद लिए अलग-अलग रूप एवं कलेवर में प्रस्तुत होता रहा है | गोया आज हमरंग के इस एक वर्ष के सफ़र को, हम, जीवन की अविस्मर्णीय यादों की एक बेशकीमती पोटली के रूप में पा रहे हैं | समय की दृष्टि से यथा संभव हमरंग की लम्बी यात्रा के पहले पड़ाव पर पहुंचकर इस यात्रा के कुछ अनुभव मैं आपके साथ बाँट लेना चाह रहा हूँ | यह इसलिए भी कि इस सफ़र के हर दिन से जूझने, संघर्ष करने और दिशा देने की जिम्मेदारी भले ही हमारी थी लेकिन उन चुनौतियों पर काबिज़ होने की ताक़त और समझ आपके साथ होने, आपकी हौसला अफज़ाई और आपके अटूट विश्वास से ही मिली है |

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता: संपादकीय (हनीफ मदार)

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 1319 11/17/2018 12:00:00 AM

स्वतंत्रता दिवस के जश्न की सार्थकता (हनीफ मदार) सौ में सत्तर आदमी फ़िलहाल जब नाशाद हैं दिल पे रखकर हाथ कहिये देश क्या आज़ाद है | अदम गौंडवी साहब को क्या जरूरत थी इस लाइन को लिखने की | खुद तो चले गए लेकिन इस विरासत को हमें सौंप कर जिसके चंद शब्दों की सच बयानी या साहित्यिक व्याख्या आज किसी को भी देश द्रोही कहलवा सकती है | दरअसल यह लेख लिखते समय अचानक इन लाइनों ने आकर दस्तक दी है और परेशान किया है | जबकि हम सब पूरा देश स्वाधीनता दिवस की 69वीं वर्षगाँठ पर आज़ादी के जश्न की ख़ुमारी में डूबे हैं | यही समय है जब देशभक्ति हमारे रोम-रोम से फूट पड़ने को आतुर होती है | और यह होना भी चाहिए स्वाभाविक भी तो है क्योंकि आज़ादी खुद जश्न की वायस है ज़िंदगी का सर्वोत्तम है इसलिए यह लालसा न केवल इंसान को बल्कि हर जीव को होती है | फिर हमने तो इस आज़ादी के लिए बहुत बड़ी क़ीमत चुकाई है | हमें गर्व है कि हम दुनिया के एक मात्र ऐसे देश हिन्दुस्तान के बाशिन्दे हैं जहाँ विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग-समूह, भाषा-भूषा, कला-संस्कृति, पर्व-अनुष्ठान एक साथ सांस लेते हैं | हर वर्ष स्वतन्त्रता दिवस की वर्षगाँठ मनाते हुए हम समय के लिहाज़ से एक और वर्ष आगे बढ़ चुके होते हैं यानी व्यवस्थाओं और सुशासन में एक वर्ष आगे की प्रगति | वैसे भी यह दिन महज़ राष्ट्र ध्वज फहराकर इतिश्री करने का तो नहीं ही है बल्कि देश की आज़ादी के लिए कुर्बान हुए हज़ारों शहीदों के अरमानों में बसने वाले आज़ाद भारत के सपने की दिशा में बढ़ने का संकल्प लेने का भी तो है |

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं …? संपादकीय (हनीफ मदार)

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं …? संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 405 11/17/2018 12:00:00 AM

क्या हम भगत सिंह को जानते हैं …? हनीफ मदार हनीफ मदार ऐसे समय में जब पूंजीवादी व्यवस्थाओं के दमन से आर्थिक व सामाजिक ढांचा चरमरा रहा है जो सामाजिक राष्ट्रीय विघटन को तो जन्म दे ही रहा है साथ ही स्वार्थ और संकीर्णता जैसी विकृतियां पैदा कर मानव मूल्यों का संकट भी पैदा कर रहा है | क्यों हो रहा है यह सब..? क्या इसे बदलने का कोई रास्ता नहीं…? यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है उतना ही मुश्किल भी | सामाजिक और राजनैतिक रूप से यह सवाल वस्तुगत तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ गहन विश्लेषण की दरकार रखता है | ऐसे में हमेशा ही भगत सिंह की आवश्यकता जान पड़ती रही है | कि हम भगत सिंह से मिलें, जानें, और समझ सकें कि आखिर क्यों आज़ादी के बाद से भी अभी तक हमने कभी यह नहीं सोचा कि एक आदमी जो खेतों में अन्न उगाता है वही भूखा क्यों सोता है…? कपडे बुनने वाला नंगा और घर बनाने वाला बेघर यानी उत्पादन करने वाले हाथ ही उन तमाम भौतिक संसाधनों से दूर क्यों हैं …? हालांकि इधर भगत सिंह को, उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘राष्ट्रवादी’ ‘सरदार’ भगत सिंह’ को विशुद्ध रूप से एक ‘राष्ट्रभक्त’ के रूप में पुनर्स्थापित किये जाने की पुरजोर कोशिश जारी हैं | यूं तो इसे सुखद अनुभूति माना जा सकता है | किन्तु बिडम्बना है कि यह सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब युवाओं का एक बड़ा वर्ग भगत सिंह से या तो परिचित ही नहीं है या उसे महज़ एक क्रांतिकारी के रूप में ही जानता है, कि उसने देश के लिए अपनी जान दे दी | तब महज़ राजनैतिक स्वार्थों के लिए भगत सिंह को एक ‘आक्रान्ता’ ‘राष्ट्रवादी’ योद्धा के रूप में व्याख्यायित और पुनर्परिभाषित किया जाना युवा पीढ़ी को तो भ्रम के गलियारों में भटकाने जैसा है ही साथ ही भगत सिंह जैसे महान विचारवान व्यक्तित्व के प्रति भी अन्याय ही है |

मई दिवस एक ऑपचारिक चिंतन…!: ”हनीफ़ मदार”

मई दिवस एक ऑपचारिक चिंतन…!: ”हनीफ़ मदार”

हनीफ मदार 1081 11/17/2018 12:00:00 AM

कॉल सेंटर, माल्स, प्राइवेट बैंक, प्रिंट या इलैक्ट्रोनिक मीडिया जैसी आदि अन्य निज़ी कम्पनियों, में नौकरी करने वाले लोगों के पास समय नहीं है | मित्रों, रिश्तेदारों, पत्नी और बच्चों के लिए परिणामतः न केवल दाम्पत्य में ही दरारें उत्पन्न हो रहीं हैं बल्कि व्यक्ति खुद भी असंतोष का शिकार हैं | यह तो उनकी बात रही जो कहीं न कहीं नौकरी शुदा हैं | इसके अलावा देश में चालीस करोड़ से ज्यादा असंगठित क्षेत्रों मसलन ईंट भट्टों पर काम करने वाले या चाय की दुकान पर, बंगलों के सामने खड़े रहने वाले गार्ड या फिर ठेकेदारों के नीचे काम करने वाले दिहाड़ी मज़दूर आदि की स्थितियां भी इससे बेहतर नहीं हैं | इन मजदूरों का समय की परवाह किये बिना दिन रात अपने काम में शारीरिक और मानसिक श्रम में जुटे रहने के बाद भी दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल जान पड़ रहा है | अच्छे पैकेज पर प्लेसमेंट पाने की आत्ममुग्धता वाले युवा या फिर वर्षों से अच्छी सैलरी की आत्ममुग्धता में नौकरी करने वाले दम्पति, शहरी या इंग्लिश स्कूलों में अपने एक बच्चे को भी पढ़ा पाने की क्षमता में नहीं हैं | बारह से चौदह घंटे की मेहनत के बाद भी आर्थिक अभावों से जूझते मजदूर को देखकर क्या यह माना जा सकता है कि हम आधुनिक विकास के तकनीकी युग में जी रहे हैं ..? काम के असीमित घंटों और मानवीय क्षमताओं से बहुत ज्यादा काम के लक्ष्य निर्धारण पूर्ती के बाद आधा पेट भरने लायक मजदूरी….. तब यह लगने लगता है जैसे हम आधुनिक विकास के भ्रम की अवधारणा के साथ पुनः लगभग तीन सौ साल पीछे जा पहुंचे हैं या फिर यह कान को घुमा कर पकड़ लेने जैसा है| मजदूर की यह हालत अमेरिका, चीन, जापान, भारत या फिर पाकिस्तान आदि में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मजदूर वित्तीय पूँजी के शोषण के शिकार हैं |

वर्तमान राजनीति का माइक्रोस्कोप नाटक “साइकिल” (हनीफ़ मदार)

वर्तमान राजनीति का माइक्रोस्कोप नाटक “साइकिल” (हनीफ़ मदार)

हनीफ मदार 526 11/17/2018 12:00:00 AM

साइकिल एक साहित्यिक कृति से आगे एक जीवन की कहानी है | कहानी भी महज़ एक मुन्ना की नहीं अपितु देश दुनिया के हर गरीब मजदूर की कहानी है शायद इसीलिए दृश्य दर दृश्य देखते हुए दर्शक के रूप में यह लगने लगता है कि यह मेरी ही कहानी है | और लगे भी क्यों न भारतीय गणतंत्र को सात दशक पूरे होने को हैं सत्ता परिवर्तन होते रहे लेकिन इस गणतंत्र में गण के जीवन में कोई बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता | ऐसे में निश्चित ही यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि हमारी सरकारों को क्यों यह समझ नहीं आता कि आज भी अपने ही गणतंत्र में कोई भी आम जन या मजदूर क्यों यह सोचता है कि उसकी कोई सुनने वाला नहीं है | लगभग डेढ़ घंटे तक विभिन्न पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक घटनाक्रमों से गुजरते हुए चलने वाला यह नाटक इन्हीं सवालों से जूझता है ……

आखिर क्या लिखूं…..?: संपादकीय (हनीफ मदार)

आखिर क्या लिखूं…..?: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 672 11/17/2018 12:00:00 AM

आखिर क्या लिखूं…..? हनीफ मदार हनीफ मदार कितना तकलीफ़देह होता है उस स्वीकारोक्ति से खुद का साक्षात्कार, जहाँ आपको एहसास हो कि जिस चीज़ की प्राप्ति या तलाश में आप अपना पूरा जीवन और सम्पूर्ण व्यक्तित्व दाँव पर लगाए रहे, इस वक़्त में उसी चीज़ की अपनी सार्थकता ख़त्म हो रही है…| जीवन के महत्वपूर्ण पच्चीस साल इधर लगा देने के बाद आज रूककर सोचने को विवश हूँ कि मैं जो लिख रहा हूँ इसकी सार्थकता क्या है….? सिर्फ मैं ही नहीं सब लेखक इस यातना से गुज़रे हैं या गुज़र रहे होंगे और अपने लिखे की सामाजिक सार्थकता के साथ मुठभेड़ करते हुए मेरी ही तरह खुद से सवाल भी कर रहे होंगे कि मैं किसके लिए और क्यों लिख रहा हूँ….?

डा0 भीमराव अम्बेडकर को पढने की जरूरत है: संपादकीय (हनीफ मदार)

डा0 भीमराव अम्बेडकर को पढने की जरूरत है: संपादकीय (हनीफ मदार)

हनीफ मदार 455 11/17/2018 12:00:00 AM

डा0 भीमराव अम्बेडकर को पढने की जरूरत है हनीफ मदार दलित चिंतन के बिना साहित्य या समाज को पूर्णता न मिल पाना एक व्यावहारिक यथार्थ है कि बिना दलित समाज या उस वर्ग पर बात किये हम अपने समय समाज को गति प्रदान नहीं कर सकते | और यह इस लिए भी कि दलित वर्ग वस्तुगत रूप से श्रमिक वर्ग से सम्बद्ध रहा है | ग्रामीण भारतीय समाज में प्रारम्भ से ही दलित वर्ग की अद्धुतीय भूमिका को नकारा नहीं जा सकता, कारणतः समाज को उसकी अनुपस्थिति में सामाजिक विकास की गति ही नहीं मिल सकती | लेकिन विडम्बना रही है कि सदियों से इस वर्ग की न केवल उपेक्षा की गई बल्कि उसे इंसान होने का अधिकार भी नहीं दिया गया | मानव सभ्यता के विकास का युग कोई भी रहा हो किन्तु सत्ता और शासन ने भारतीय समाज की इस वर्णवादी व्यवस्था को बदलने की कोशिश नहीं की | बीसवीं शताब्दी तक अंग्रेज शासन भी वर्णवादी व्यवस्था के कर्णधारों से परोक्षतः परस्पर हितों के लिए स्वार्थी गठबंधन ही कर रहा था |

हाल ही में प्रकाशित

नोट-

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संपादक - हनीफ़ मदार । सह-संपादक - अनीता चौधरी
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