जड़वत: कहानी (शालिनी श्रीवास्तव)

कथा-कहानी कहानी

शालिनी शिरिवास्तव 603 11/18/2018 12:00:00 AM

विचार, व्यवहार और हकीकत को परत दर परत उधेड़ती और एक सामाजिक सच्चाई का रचनात्मक ढंग से विवेचन करते हुए बेहतर कथ्य और शिल्प के साथ कैनवस पर उतरती कहानी शालिनी श्रीवास्तव को एक संभावनाशील लेखक होने की गवाही देती है | संपादक

जड़वत

यूँ तो ये शहर मेरे लिए अज़नबी नहीं था, इस शहर से एक पुराना रिश्ता रहा है मेरा। कुछ भी तो नहीं बदला है यहां, बस हवा थोड़ी और मैली हो गई है। रास्तों पर लोगों की भीड़ कीड़े-मकौड़ों-सी बिखरी हुई है। सुबह होते ही सभी अपने-अपने कामों के लिए सड़कों पर दौड़ रहे है……। सुबह का शांत वातावरण ट्रैफिक की आवाज़ से जाग उठा है, गलियां और संकरी हो गर्इं हैं, बिजली के खंभों पर तारों का वो झुंड, वो जाल आज भी छाया हुआ है जिसे लोग सुबह का उजाला होते ही खींच लेते हैं और अंधेरा होते ही फिर वहीं टाँग देते हैं। अपने नाजुक कंधों पर भविष्य की उम्मीदों का बोझ लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ में शामिल हो रहे हैं……।
सब कुछ वैसा ही है जैसा मैं तीन साल पहले छोड़कर गई थी। वो गलियां, वो रास्ते, खेल-कूद, स्कूल जाना, चाट खाना, साइकिल से गिरना, पहली बार सलवार-सूट पहनने पर लड़कों का चिढ़ाना, बचपन से जवानी तक का हर किस्सा और…… और गिरीश…! लोगों की इस भीड़ में लगता है बस अभी गिरीश से टकरा जाऊँगी अभी…… बस अभी वह मुझे आवाज़ देकर रोकेगा….. बस अभी मेरा हाथ पकड़ेगा…..। शहर का शहर दौड़ रहा है, हजारों चेहरे आँखों के सामने आकर ओझल हो जा रहे हैं पर वही चेहरा नहीं दिखता…….। पता नहीं वह अब कहाँ होगा..? मेरी पुरानी यादों में उसकी यादें अहम है और भला हाें भी क्यों ना, कोई भी व्यक्ति अपने जीवन के पहले प्रेम को कैसे भुला सकता है ? और शायद इसीलिए आज भी वह मेरे जीवन की एक अनसुलझी पहेली, एक गांठ है जो रह-रहकर मुझे सताती हैं……। आखिर वह मुझे छोड़कर क्यों चला गया..?
‘‘राधिका यहां खड़े होकर क्या सोच रही हो…? चलो काम शुरू करते हैं.. आज ही आज में सारा सामान सैट करना है.. क्योंकि मुझे कल इस शहर के आॅफिस में रिर्पोट करनी है…।’’
रोहित (मेरे पति) ने आकर मेरे सोच के इस क्रम को तोड़ दिया.. और अच्छा ही हुआ जो उसने मुझे उस टीस से बाहर निकाल लिया। आज भी और उस वक्त भी……. जब मैं गिरीश के जाने के बाद दुख से घुली जा रही थी, पिताजी की बीमारी के कारण मेरी शादी जल्दबाज़ी में रोहित के साथ हो गई और उनके साथ और प्यार ने मुझे कुछ हद तक उस तकलीफ से उबारा तो सही पर फिर भी गिरीश की याद किसी पुराने ज़ख़्म-सी टीस करती है। मन आज भी उसका इंतजार करता है, उससे सिर्फ अपने चंद सवालों का जवाब चाहता है……..।
दो कमरों का मकान है, सामान अभी भी अच्छी तरह सैट नहीं हो पाया है। थकान से शरीर टूट रहा है, मैंने रोहित से बाहर से खाना मंगवाया और घर की छत पर ठण्डी हवा खाने आ गई। हमारा मकान चौथी मंजिल पर है, ये सबसे ऊपर की मंजिल है इसलिए छत का आनंद भी हमें मिल रहा है। दूर-दूर तक तारों की तरह टिम-टिमाता शहर चमक रहा है। सड़कों पर गाडि़यां अपनी रफ्तार से दौड़ रही हैं, हवा के स्पर्श से मन ताज़गी का अनुभव कर रहा है।
मैं और गिरीश घंटों इसी तरह छत पर बैठे बातें किया करते थे… वह हमारे यहां पेइंग गैस्ट था। दूसरे शहर से नौकरी करने आया था। मेरी और उसकी मुलाकात एक फिल्मी स्टाइल में हुई थी…. बाज़ार के बीचो-बीच मेरा आॅटो पलट गया था और वह मुझे किसी हीरो की तरह अपनी बाइक पर बैठाकर डॉक्टर के पास ले गया था, पैर में फ्रैक्चर आया था। तीन महीने के लिए घर में रहने के लिए मजबूर हो गई थी पर इस घटना ने मेरे जीवन को एक नया मोड़ दे दिया था। गिरीश मेरी मलहम-पट्टी कराने के बाद मुझे घर छोड़ने आया था और बाबा ने उसे खाना खाने के लिए रोक लिया। गिरीश किराये पर कमरा लेने की तलाश में निकला था और रास्ते में मुझसे टकरा गया और बाबा के आग्रह पर हमारे घर में एक किरायेदार की तरह रहने लगा। गिरीश का मेरे घर में आना मानो खुशियों का कोई खजाना-सा खुल गया था…….। गिरीश ने चंद दिनों में ही अम्मा और बाबा से एक रिश्ता कायम कर लिया था। बाबा रिटायर्डमैंट के बाद सुबह की पूजा अर्चना से निवृत होकर पूरा दिन खाली बैठे रहते थे पर अब हमारे घर में शाम के वक्त जब गिरीश आॅफिस से वापस आता तो घण्टों चैश की बाजि़या चलतीं। मेरे भाई के असमय देहांत के बाद मानो गिरीश के रूप में उन्हें उनके बुढ़ापे का सहारा मिला हो……। अम्मा भी अब हम तीनों को एक साथ बैठाकर खाना खिलातीं और बाद में, मैं और गिरीश छत पर अक्सर टहलने जाते और बातों-बातों में, मैं किसी न किसी वज़ह से उससे नाराज़ हो जाती और वो मुझे मनाने के भरसक प्रयास करता, तरह-तरह से मुझे हंसाता और आखिरकार मुझे मना ही लेता सच तो ये था कि मैं उससे नाराज़ ही नहीं होती थी, मुझे अच्छा लगता था जब वह मुझे मनाने के तरह-तरह के जतन किया करता था…….।
रोहित ने शायद आवाज़ दी है, पुरानी यादों का सिलसिला थोड़ा थम गया। रोहित खाना लेकर आ चुका था मैंने नीचे आकर खाना प्लेट में लगाया और साथ बैठकर खाना खाया। थकान से शिथिल हुए शरीर को, खाना खाने के बाद कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। अगली सुबह रोहित को आॅफिस जाना था, मैंने जल्दी से नाश्ता बनाकर टेबल पर लगा दिया और लंच भी पैक कर दिया। रोहित नाश्ता कर आॅफिस जा चुका था। घर का सामान सैट करना था… अकेले कैसे होगा ? पर करना तो था ही इसलिए धीरे-धीरे सारा सामान अपने मन मुताबित जगह पर सजाने लगी। शाम को चाय का प्याला लिए मन बहलाने के लिए बालकनी में आई तो देखा, लोग अपने-अपने कामों से यहां से वहां दौड़ रहे हैं…………..।
अपने कामों के लिए तो सब परेशान होते हैं पर गिरीश……… गिरीश तो उन इंसानों में से था जिसे पूरे मौहल्ले के लोगों की फिक्र रहती थी। किसी के ऊपर कोई मुसीबत आ जाए तो ज़नाब को न खाने की भूख लगती और न पानी की प्यास…., कभी-कभी तो मैं खूब नाराज़ होती- ‘‘लोगों की मदद करनी है तो करो, मगर खाने से कैसी दुश्मनी…..?’’ पर वह अपना एक प्यार भरा हाथ मेरे गाल पर फिराते हुए कहता- ‘‘राधिका देर हो जायेगी….।’’ और चला जाता। जब तक काम पूरा न हो जाये, वह किसी की नहीं सुनता….। मेरे मन में कब उसके लिए प्रेम का बीजारोपण हो गया पता ही नहीं चला…….। मैं हमेशा उसके लिए परेशान रहती और जब तक वो खाना न खा ले मैं भी नहीं खाती थी। जब शाम को वह घर आता तो थाली लिए मुझे खाने के लिए मनाता…..। हमारे बीच प्रेम को लेकर कभी कोई संवाद नहीं हुए न मैंने कभी अपने प्रेम की अभिव्यक्ति की और न ही उसने कभी अपने प्रेम को शब्दों से जताया और शायद मैं भी कभी उससे इस भावना को व्यक्त नहीं करती अगर उस रात वो घटना न घटी होती…..। गिरीश को बहुत तेज़ बुख़ार था। दवाई देने पर भी, बुख़ार था कि उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था। बाबा लगातार उसके माथे की पट्टियां बदल रहे थे, पर बुख़ार कम ही नहीं हो रहा था। मैं दरवाजे पर खड़े -खड़े ही बाकी के जतन किए जा रही थी और जब कुछ समय बाद बुख़ार कुछ कम हुआ तो अम्मा और बाबा उसे आराम करने के लिए अकेला छोड़कर अपने कमरे में चले गये आधी रात जब मुझसे नहीं रहा गया तो मैं गिरीश को देखने उसके कमरे में चली गई। गिरीश सोया हुआ था, उसका चेहरा बुख़ार की वजह से पीला पड़ गया था होठों की नमी सूख गई थी, उसकी ऐसी हालत देख कर मेरी आंखों से आंसू रुक नहीं रहे थे और मैंने अपने होठों से गिरीश के माथे को चूम लिया, मेरी आंख का एक आंसू उसकी आंखों में समा गया….. मेरे होठों के स्पर्श से गिरीश आश्चर्य के साथ उठ बैठा, वह कुछ घबराते हुए बोला-‘‘राधिका तुम इतनी रात को यहां………..?’’
‘‘तुम्हे देखने आई थी….!’’
‘‘तुम्हें इस वक्त यहां नहीं आना चाहिए था, तुम्हारा इस वक्त यहां आना ठीक नहीं है, तुम यहां से चली जाओ…..।.’’
‘‘मैं……. मैं तुमसे प्रेम करती हूँ….. गिरीश… और तुम्हें इस हालत में नहीं छोड़ सकती ……।’’
पता नहीं, पर गिरीश मेरे इस अचानक किये हुए इकरार से परेशान हो गया जबकि मैं उम्मीद कर रही थी कि शायद वह खुशी से फूला नहीं समायेगा…… खुशी के साथ मुझे अपने सीने से लगाकर मेरे आँसू पौंछेगा….. पर इसके विपरीत, वह पलंग से उतर कर दूर खिड़की से बाहर झांकते हुए बोला-‘‘राधिका तुम यहां से चली जाओ तुम नासमझ हो…… मेरे मन में तुम्हारे लिए ऐसा कुछ भी नहीं है…….।’’ आशा के विपरीत ये व्यवहार मुझे अंदर तक तोड़ गया था……….। क्या गिरीश मुझसे प्रेम नहीं करता………? वो मनाना… बातें करना…. मेरी परवाह करना….. वो सब क्या था…..? वो मेरी ज़रा सी परेशानी के लिए खुद को परेशान कर लेना वो सब क्या था…..? नहीं….. नहीं….. एक स्त्री मन इस एहसास में कभी धोखा नहीं खा सकता…. गिरीश ऐसा कैसे बोल सकता है…..? और इन्हीं सवालों के साथ मैं अपने बिस्तर पर चली गई।
सुबह सब शांत-शांत-सा महसूस हुआ गिरीश के कमरे का दरवाज़ा खुला था, अम्मा-बाबा दुखी से आंगन में बैठे हुए थे। मैंने साहस करते हुए गिरीश के कमरे में कदम रखा, गिरीश का सामान नहीं था वह घर छोड़कर जा चुका था…. पर क्यों……? सिर्फ इसलिए कि मैंने अपना प्रेम, अपनी भावनाओं को उस पर ज़ाहिर कर दिया…. या फिर कोई और भी कारण हैं…..? गिरीश अपने साथ बहुत कुछ ले गया था…. मेरी खुशियां….. बाबा का सहारा….. और मां का प्यार और बदले में बस एक सवाल छोड़कर चला गया था, वो क्यों हमें इस तरह छोड़कर चला गया……? अभी भी उस पल को सोचती हूँ तो आँखों में आँसू आ जाते हैं… मन बेचैन हो जाता है पर रोहित के प्रेम ने उन घावाें को भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी …..।
रोहित के आने का समय हो चुका था, मैं खाना बनाकर उसके आने का इंतजार करने लगी। रात हुई शहर की भाग-दौड़ रुकी तो नहीं पर थोड़ी धीमी ज़रूर हो गई थी। रोहित अपने लैपटॅाप पर काम कर रहा था और मैं बार-बार उससे लैपटॉप बंद करके सोने की जि़द कर रही थी पर रोहित ने मुझे बताया कि वह अपने कॉलेज के फ्रैंड्स को नेट पर फेसबुक के ज़रिये ढू़ँढ़ रहा है तो मन में एक उत्सुकता-सी हुई और रोहित को देखती रही….. । इसी शहर में रहने वाले दोस्तों को ढूंढ़कर रोहित उनसे बातें करता रहा और मैं न जाने कब नींद के गहरे पाताल में उतर गई….।
रोहित के जाने के बाद पूरा दिन खाली घर में बैठे-बैठे बस गिरीश के बारे में ही सोचती रहती हूँ। लाख चाहने और कोशिश करने के बावजूद हर बार उसकी याद से हार जाती थी, समझ नहीं आ रहा था इस दर्द से कैसे छुटकारा पाऊं…. ? जब कोई राह न सूझी तो मैंने अपने लिये भी एक जॉब तलाश ली…. शायद इससे काम में व्यस्त रहूं तो दर्द से कुछ राहत हो। अब हम दोनों रोज सुबह तैयार होकर एक साथ अपनी-अपनी जॉब्स पर जाते…. नये-नये लोगों से मिलना होता था बहुत कुछ सीखने को मिल रहा था पब्लिक डीलिंग भी एक कला है, जिसमें मैं कुछ ही दिनों में एक्सपर्ट हो चुकी थी…। सब कुछ बहुत अच्छे से चल रहा था, शाम के खाने के वक्त मैं और रोहित अपना-अपना बीता हुआ दिन शेयर करते ज़्यादातर मैं ही बोलती, रोहित बस अपनी मुस्कराहट को सजाये मेरे चेहरे में पता नहीं क्या ढूंढ़ता रहता और कहता- ‘‘जब मैं बोलती हूँ तो मेरी आँखें और चमकीली हो जाती हैं और मेरे चेहरे के हाव-भाव उसे गुदगुदा जाते हैं।’’
दिनभर की थकान के चलते रोहित आज जल्दी सो गया था पर मुझे नींद नहीं आ रही थी अपनी जॉब की वज़ह से मैं गिरीश की यादों से कुछ हद तक दूर तो हुई थी पर जब भी इस तरह का खाली समय मिलता…….गिरीश की याद जैसे किसी जिन्न की तरह बंद बोतल से बाहर आ जाती। दिमाग में फिर से वही सवाल गूँजने लगता ‘वह मुझे छोड़कर क्याें चला गया…? अगर वह मुझे प्रेम नहीं भी करता था तो क्या हम दोस्त की तरह भी नहीं रह सकते थे….? कितना प्रेम और सम्मान दिया था अम्मा-बाबा ने उसे… और बेरहमों की तरह बिना कुछ कहे ही चला गया….! दूसरों की इतनी परवाह करने वाला, हमारे लिए इतना पत्थर दिल क्यों बन गया……?’ दिमाग की नसों का खून जम-सा गया था। मेरे सोचने समझने की शक्ति क्षीण हो चुकी थी मैं अपना ध्यान गिरीश की यादों से मोड़ लेना चाहती थी उसकी वो अधूरी यादें किसी पके फोड़े-सी टीस किया करतीं थीं। एक बार गिरीश से मुलाकात हो जाये तो शायद जीवन के इस नासूर को खत्म कर पाऊँगी…….।
सामने टेबल पर रोहित का लैपटॉप रखा था, शरीर उठकर उसे चलाना चाहता था परन्तु मैं तो अपने-आप से उलझी हुई थी…… गिरीश इसी शहर में है या कहीं बाहर….? अगर वह मुझे मिल भी गया तो मुझे पहचानेगा भी या नहीं…..? शरीर बिल्कुल शिथिल, निष्प्राण हो गया था, मेरे मन की शक्ति मुझे उठने के लिए कह रही थी, पर मन का कोई दूसरा कोना बार-बार उठने के लिए मना कर रहा था.. उसको मिलना होगा तो यूं ही कभी टकरा जायेगा… मैं उसकी तलाश क्यों कर करूँ….? वह दर्द है मेरा कोई खुशी नहीं जो मैं उसके पीछे जाऊं…..। नहीं….नहीं…. मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगी….. पर अचानक एक बिजली-सी शरीर में कौंध गई और मैं लैपटॉप उठाकर बैड पर ले आई…। रोहित के फोन का हॉटस्पॉट आॅन करके मैंने नैट चालू किया और अपने फेसबुक एकाऊंट को ओपन कर सर्च बॉक्स में जाकर गिरीश का नाम टाइप कर दिया, कुछ ही समय बाद ढेरों गिरीश मेरे सामने थे, मुझे बस अपने गिरीश को ढ़ूंढ़ना था, कुछ नामों के साथ तो फोटो थे पर कुछ के साथ तो फोटो भी नहीं थे उन सब का प्रोफाइल्स चैक करना पड़ रहा था…. हिम्मत बार-बार अपना हाथ पीछे खींच रही थी पर कुछ था जो दृढ़ता से मेरे अंदर खड़ा था और उसी के भरोसे में आगे बढे़ चली जा रही थी ।
पंद्रह-बीस प्रोफाइल्स चैक करने के बाद आखिरकार मुझे गिरीश मिल ही गया। वह इसी शहर में है उसका आॅफिस शहर के दूसरे छोर पर है…. वहाँ आने-जाने में कम सेे कम आधा दिन लग जायेगा और जाऊँगी भी कैसे ? सुबह आॅफिस जाना है पूरा दिन तो वहीं निकल जाता….! लेकिन जाना तो है….. यहां तक आकर मैं हार नहीं मान सकती.. अब इतना पता कर लिया है तो उससे मिलने की हिम्मत भी जुटा ही लूँगी…..। मैंने कागज पेन लेकर उसकी कंपनी का नाम नोट कर लिया और लॉग आऊट किया, लौपटॉप को वापिस उसी जगह पर रख दिया और आकर लेट गई पर नींद……नींद तो अभी आंखों से कोसों दूर थी, हां एक उत्सुकता और डर था। मैंने मन ही मन कुछ निश्चय-सा किया और अपनी आंखें कसकर बंद कर लीं, ऐसा लग रहा था कि गिरीश की आंखे मुझे घूर रहीं हैं मैं उनसे बचना चाहती थी आंखे बंद होने के बावजूद उसकी नजरें मेरे शरीर को भेद रही थी…। इसी लुका-छुपी में न जाने कब नींद आंखों में समा गई। सुबह अलार्म के साथ मेरी आंखें खुलीं…. रोहित पहले ही जाग चुका था, मेरे लिए चाय बनाकर बैड के पास पड़ी मेज़ पर रखकर शायद वह बाथरूम चला गया था। मैंने जल्दी से फ्रैश होकर रोहित के लिए नाश्ता तैयार कर दिया -‘‘क्या बात है आज आॅफिस नहीं जाना क्या……?’’
‘‘नहीं….. वो मुझे तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही है और जरूरत का कुछ सामान भी मार्केट से लाना है….।’’
‘‘ओ.के. टेक रैस्ट…. और कोई परेशानी हो तो कॉल मी… चलता हूँ…।’’ रोहित ने अपने गर्म होठों से मेरा माथे को चूमा और चला गया…। रोहित मुझसे कितना प्रेम करता है… उससे झूठ बोलकर कुछ अच्छा नहीं लग रहा था पर अपने मन की इस गांठ को सुलझाये बिना भी तो रोहित के साथ सुकून से नहीं जी सकती मुझे ये करना ही है…। रोहित के जाने के बाद मैंने घर को लॉक किया और गिरीश की तलाश में निकल गई और थोड़ी मुश्किलों के बाद आखिरकार मैं उस कम्पनी के आॅफिस पहुँच ही गई…. रिसैप्शनिस्ट से बात हुई-‘‘मैम आपने अपॉइंटमैंट लिया है क्या……?’’
‘‘अपॉइंटमैंट………? नहीं……. वो.. तो… नहीं है पर आप उनसे बोल दीजिए कि राधिका शर्मा उनसे मिलना चाहती हैं……..।’’
‘‘ओ.के. मैम… आप प्लीज बैठ लीजिए मैं बात करती हूँ…..।’’ गिरीश से मिलने के लिए मन व्याकुल था पर खुशी लेश मात्र को नहीं थी….। किसी पके हुए घाव को जब आप कुरेदते हैं तब उसमें केवल और केवल दर्द ही हासिल होता है ….।
‘‘मैम…… आपको सर ने अंदर बुलाया है…..!’’
‘‘थैंक्स….!’’ मेरा एक-एक कदम मानो सदियां ले रहा था…… चंद कदमों की ये दूरी तय करने में मानो शरीर का दम निकल रहा था, होठों पर पपड़ी-सी पड़ गई थी, दम फूल रहा था……।
मुझे अचानक इस तरह सामने पाकर मुझे लगा कि गिरीश घबरा जायेगा पर इस बार भी उसने मेरी आशा के विपरीत ही व्यवहार किया। गिरीश मेरी मांग में सिंदूर और गले में पड़े मंगलसूत्र को गौर से देख रहा था और मैं उसे नम आंखों से निहार रही थी। कितने वर्षो बाद हमारी मुलाकात हुई है पर सब कुछ बदल चुका है जो नहीं बदला है वो है मेरा उसके लिए प्यार और उसका वो शालीन चेहरा, मेरे चेहरे के भाव बदले हुए थे और वह हमेशा की तरह आज भी ठहरे हुए पानी-सा शांत और साफ था….। ‘‘कैसी हो राधिका….?’’ मैं हैरान थी उसने कितनी सरलता से मुझसे पूछ लिया और मैं बात शुरू करने के लिए शब्द तलाश रही थी…… मैं आवेश में थी… तड़प और गुस्से को दबा नहीं पाई… -‘‘आज क्यों पूछ रहे हो….? मुझे छोड़कर जाते नहीं सोचा…….?’’ मैंने गुस्से से जवाब दिया पर वह अब भी बिल्कुल सामान्य था।
‘‘राधिका तुम उस वक्त भी नासमझ थीं और आज भी नासमझ हो….., क्या तुम्हें मुझसे मिलकर खुशी नहीं हुई…..?’’ उसने बड़े शांत स्वर में कहा। ‘‘नहीं…….. बिल्कुल नहीं…. कैसी खुशी गिरीश…….? अपने किए हुए उस व्यवहार के बाद भी तुम्हें लगता है कि मुझे तुमसे मिलकर खुशी होगी…….?’’ मैंने बिना सांस लिए अपनी सारी कड़वाहट उगल दी…. मेरा गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था मैं अंदर उबल रही थी… और मेरे गुस्से को किस तरह शांत किया जाता है गिरीश अच्छी तरह जानता था… बेशक मेरी ये कड़वाहट भरी जुबान मेरी मनःस्थिति के विपरीत थीं…. दिल तो तो चाहता था कि मैं उससे लिपट कर खूब रोऊं……और कहूं कि गिरीश मैं तुमसे बहुत प्यार करती थी…. आज भी उतना ही प्यार करती हूं…..फिर….. फिर आखिर क्यूं…..? परन्तु मैं ऐसा कर न सकी और उसी कड़वाहट के साथ फिर बोलना शुरू किया…….।
‘‘तुम मेरे प्रेम से मँुह फेर कर चले गये… तुमने एक बार भी मेरे बारे में नहीं सोचा….. मेरे अम्मा-बाबा ने तुम्हे अपने बेटे जैसा प्यार दिया और तुम….. तुम उन्हें भी बिना बताये चले गये सिर्फ इसलिए कि मैं तुमसे प्रेम करती थी और तुम मुझसे प्रेम नहीं करते थे……।’’ कहते-कहते मेरे शब्द लड़खड़ा गये… आँखे डबडबा गईं और माहौल में एक अजीब-सा सन्नाटा छा गया.., मैं सुबकने लगी.. कुछ देर तक गिरीश यूंही चुप बैठा रहा, जब उसने महसूस किया कि मेरे अंदर का जो सैलाब था वह बाहर आ चुका है तो उसने अपने वही चिरपरिचित अंदाज में बड़ी ही नम्रता से अपनी बात कहना शुरू किया-‘‘ राधिका जितना प्रेम तुम मुझसे करती थीं मैं भी उतना ही प्रेम आज भी तुमसे करता हूँ। तुम्हारे अम्मा-बाबा ने मुझे अपने बेटे की तरह प्यार किया था सिर्फ इसलिए किसी को कुछ भी कहे बिना चला गया था…….।’’ इतना कहते हुए गिरीश की भी आँखे नम हो आईं , उसका स्वर पसीज गया था। गिरीश का जबाव सुनकर मैं निःशब्द थी…. एक पल के लिये तो मैं कितनी खुश थी इसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं…… ‘गिरीश मुझसे प्यार करता है….. गिरीश मुझसे प्यार करता था।’ मैं मन ही मन सोच कर पागल हुई जा रही थी….. परन्तु एक झटके में ही मैं यथार्थ के कठोर धरातल पर आ गई….. आखिर अब… स्वीकारोक्ति में गिरीश ने कितनी देर कर दी…..? मेरे मन के अन्दर इस समय भूचाल आया हुआ था…. ‘ओह गिरीश!’…. परन्तु अब तो सवाल और भी विकट हो गया था। मैं अपने भावों को संयत करते हुये जैसे-तैसे कह पाई-
‘‘तुम मुझसे प्रेम करते थे…….! फिर भी…..फिर भी मुझे यूं छोड़कर चले गये…..? तुम किस बात से डरते थे……? क्या परेशानी थी……? गिरीश प्लीज टैल मी…. गिरीश प्लीज़ टैल मी…!’’ मैंने अपना धैर्य खो दिया था बदला हुआ सवाल ज्यादा दुखद था। एक असहनीय खामोशी….
‘‘राधिका…. मैं….. बाल्मीकि हूँ….. और बचपन से ही इस जाति में पैदा होने की सजा भुगत रहा हूँ……जानती हो राधिका…… सालों पहले चाचा जी भी गांव की ज़लालत भरी जि़दगी से तंग आकर शहर आये थे कि पढ़-लिख कर कुछ दूसरा काम अपनाऐंगे पर….. उन्हें सफलता नहीं मिली जहां भी जाते, जाति आड़े आती पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और सरकारी नौकरी के लिए मेहनत करते रहे… और आखिरकार वो सफल भी हो गए। उन्हें यहां के डिग्री कॉलेज में क्लर्क की नौकरी मिल गई थी…. परन्तु जानती हो राधिका वहां काम करते हुए उन्हें कभी भी वो सम्मान नहीं मिला जो शायद उनकी जगह काम कर रहे किसी और व्यक्ति को मिलता। उनके आॅफिस में काम करने वाला चपरासी भी उन्हें फाइलें दूर से फेंक कर दिया करता था। आॅफिस में रखे वाटरकूलर से वो पानी नहीं पी सकते थे, अगर वे गलती से भी उसे छू लेते तो कोई भी दूसरा व्यक्ति तब तक पानी नहीं पीता जब तक उसे मांझकर, दोबारा पानी न भर जाये…..। इतना अपमान… राधिका मैं कैसे बताऊं कि ये दर्द क्या होता है जब एक जीते-जागते इंसान को इंसान न समझकर उसके साथ जानवरों जैसा बर्ताव हो….।’’ चेहरे पर उभर आए विदू्रपता के भाव को संभालते हुए एक लम्बी और गहरी सांस लेने के बाद गिरीश ने फिर कहना शुरु किया- ‘‘ राधिका चाचा जी ने ही मुझे मेरे सर नेम में कुमार लिखने को कहा ताकि आगे चलकर मेरी जाति, मेरी तरक्की में बाधा न बने….. कितनी अज़ीब बात है न राधिका लोग अपना सरनेम अपनी पहचान के लिए इस्तेमाल करते हैं वहीं मुझे, मुझसे मेरी पहचान बदलने के लिए कहा गया ताकि मैं अपनी एक नई पहचान बना सकूं…….।
मैंने यहीं अपनी पढ़ाई पूरी की और यहीं नौकरी भी मिल गई। इसी बीच मेरे चाचाजी के बेटे हरिया की शादी हो गई, पहले तीनों मर्द एक कमरे में रह लिया करते थे पर हरिया की शादी होने के कारण मुझे चाचा जी का घर छोड़ना पड़ा और किराये पर कमरा ढूंढने लगा, इसी बीच मेरी मुलाकात तुम से हुई ये मेरे जीवन की सबसे हंसी घटना थी जिसने मुझे तुमसे मिलाया…….। तुम्हारा सुगंधित गौर-वर्ण मुझे आकर्षित करता था… तुम्हारा मेरे करीब आना मुझे मदहोश कर जाता था….. तुम्हारा वो रूठना, शरारत करना, गुस्सा करना और मुझे डांटना सब अच्छा लगता था…….। अम्मा और बाबा के रूप में तो जैसे मुझे मेरे स्वर्गवासी माँ-बाप मिल गये हाें…… मैं बहुत खुश था राधिका…..बहुत खुश…. मेरी जिंदगी में इतनी खुशियां आऐंगी, मैंने कभी सोचा भी नहीं था……। तुम्हें याद है… जब मैं तुम्हें छत पर बैठकर तुम्हें पढ़ाया करता था और तुम जानबूझकर गलत ज़वाब देतीं और जब मैं गुस्सा करता तो तुम हंसते हुए मेरे कंधे पर झूल जातीं थीं…. मैं सब कुछ भूल गया……. मैं भूल गया था कि मैं जिस सपने को देख रहा हूँ वह सिर्फ और सिर्फ सपना है और एक सच सामने आने पर यह मुझसे छीन लिया जायेगा…… परन्तु उस वक्त इन सब के बारे में, मैं सोचना नहीं चाहता था…… मुझे यकीन हो गया था कि शायद यहां मेरी जाति मेरे मेरी खुशियों के आड़े नहीं आएगी मैं, बाबा से बात करने का मन बना चुका था। मैंने बाबा से इन सब बातों को लेकर बात करना शुरू कर दिया था कि किस तरह कोई जाति ऊँची और नीची नहीं होती……. मैंने तमाम बातें बाबा से कीं खूब समझाय…….. बाबा मेरी हर बात पर हाँ में सर हिला देते कभी मेरी बात का विरोध नहीं करते, मुझे उम्मीद थी शायद बाबा अब हमारे रिश्ते के लिए मान जाऐंंगे………. पर एक दिन सिंह साहब अपनी बेटी की शादी का कार्ड देने आये….तब बाबा ने उन्हें आंगन में ही बैठाया…. मुझे कुछ अज़ीब लगा और जब अम्मा चाय लेकर आयीं तो मुझे सब कुछ समझ आ गया चाय की ट्रे में सिर्फ तीन ही कप थे जिनमें से एक कप अलग डिजायन वाला था और बड़ी सफाई से अम्मा ने अलग डिजायन वाला कप सिंह साहब के सामने रख दिया। बाद में वह कप रसोईघर की बजाय बरामदे के आले में रख दिया गया। मैंने बाबा को कहते सुना-‘पढ़-लिखकर ये स्स्स्सा………समझते हैं हमारी बराबरी कर लेगें, ज़रा-सी भी शर्म या झिझक नहीं हुई, हमारे घर कार्ड देने चला आया……..।’ उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि पकी हुई डाल को सिर्फ तोड़ा जा सकता है उसे झुकाया या मोड़ा नहीं जा सकता मेरी वो सारी बातें शायद बाबा ने सिर्फ सुनी थीं मगर कभी समझी नहीं……….। और जब मैंने यही घटना तुम्हारे साथ शेयर की तो तुम भी बाबा की बात से सहमत थीं… तुम्हारे अनुसार भी शास्त्रों में जो व्यवस्था दी गई है हम सभी को उसी के सम्मत व्यवहार करना चाहिए और उस लिहाज़ से तथाकथित निचली जातियों को सर उठाकर जीने का अधिकार नहीं है……… नहीं हैं उन्हें अधिकार इस समाज में सर उठाने का………?’’ गिरीश ने तेज़ आवाज में कहा, इतना तेज़ स्वर…. ! गिरीश कभी इतनी तेज़ आवाज़ में और गुस्से से नहीं बोलता………. गिरीश की तकलीफ उसके शब्दों से साफ झलक रही थी……।
‘‘तुमने कभी सोचा नहीं होगा राधिका कि कितनी टीस होती है जब कोई आपसे, आपकी जाति की वज़ह से घृणा करता है…….. क्या हालत होती होगी उस इंसान के स्वाभिमान की जब सिर्फ और सिर्फ किसी को उसकी जाति के लिए प्रताडि़त किया जाता होगा…..। वर्षों से हम लोग इस दर्द को सहन करते आये हैं….. यहां तक कि लोगों की जूठन और उतरन तक पहनी है हमने तुम नहीं समझ सकती राधिका……. तुम नहीं समझ सकती…..।’’
गिरीश कहते-कहते रुक गया जैसे किसी दर्द को शिद्दत से महसूस कर रहा हो…..। ‘‘मैं असमंजस में था कि क्या करूँ पर जब उस रात तुमने मुझसे अपने प्रेम का इज़हार किया तब मुझे लगा कि मुझे तुम्हारी और अम्मा-बाबा की जि़दंगी से चले जाना चाहिए और इसलिए सुबह होने से पहले ही मैं तुम्हारे घर से चला गया था……. ये सही था या गलत मैंने नहीं सोचा…… अगर बता के जाता तो अम्मा-बाबा शायद मुझे जाने नहीं देते और मैं अब ये सब जानने के बाद अपना सच छुपाकर तुम्हारे घर में रह नहीं पाता…… इसलिए चला गया था…….. मैं तुम्हारा अपराधी हूँ राधिका तुम जो चाहे सजा दे सकती हो मुझे….. तुम्हारी कसम मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कहूंगा……. कुछ भी नहीं कहूंगा…।’’ मैं निःशब्द थी….. समझ के सारे रास्ते बंद हो चुके थे शरीर जैसे सांस लेना भूल चुका था…. गिरीश सच कह रहा था उसकी उस तकलीफ का एहसास शायद मैं कभी नहीं कर सकती… एक उच्च जाति में पैदा होने वाला व्यक्ति कभी भी इस जाति के संर्घष की पीड़ा को समझ ही नहीं सकता मेरे मन के सारे सवाल पस्त हो चुके थे पर एक नये सवाल ने अपना फन फिर उठा लिया था जो बार-बार मुझे डंस रहा था….. अगर मुझे गिरीश की जाति के बारे में पहले पता होता तो क्या फिर भी मुझे उससे प्यार होता……? या ये प्यार भी जात-पात देखकर होता है ? पर सच तो यही है कि गिरीश का सच जान लेने के बाद मन में एक अज़ीब तरह की खटास जरूर महसूस हो रही है…. शायद ये खटास बचपन से सींचे गए उन धार्मिक संस्कारों की वज़ह से है जिन्होंने इंसानों की सोच को इतना खोखला और बद्दिमाग बना दिया है कि हम नया कुछ सोच ही नहीं सकते। सोच के इसी समुंदर में डूबे हुए मैं घर तक कब आ गई पता ही नहीं चला……….।

शालिनी शिरिवास्तव द्वारा लिखित

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