फ़िरोज़ी रेखाओं की नीड : कहानी (हुस्न तबस्सुम 'निहाँ')

कथा-कहानी कहानी

हुश्न तवस्सुम निहाँ 1128 12/6/2019 12:00:00 AM

शैफाली का ओहदा क्या बढ़ा उसके कद में खुद ब खुद इजाफा हो गया। प्रेस की ओर से उसे एक स्कूटर भी मिल गई। वेतन भी बढ़ां संपादक संजय वर्मा की नजरें उस पर कुछ ज्यादा मेहरबान रहने लगीं। उसके खाने पीने और प्रेस के कामों का भी काफी ध्याान रखते। जितनी बार काॅफी चाय खुद के लिए मंगवाते उसे भी भिजवाते। खाली समय में उसके केबिन में जा कर गप्पें लड़ाया करते। और ऐसे ही वह नजदीकियों की पराकाष्ठा पार करने का प्रयत्न करने लगे। इस दरम्यान उसका बादल से मिलना जारी रहा। किन्तु बादल, बादल जेसा ही ठण्डा और बेगाना बंजारा सा बना रहा। एक दिन शैफाली संपादक की कुटिल हरकतों से उक्ता कर बड़े आवेश में बादल के पास गई और.................

फ़िरोज़ी रेखाओं की नीड

प्रेम हमेशा स्थिर नहीं रहता। यह चंद्रमाओं की कलाओं की तरह घटता रहता है...बढ़ता रहता है। 

‘‘ बादलवो देखो दूर क्षितिज पर झुका जा रहा है पीला आसमां....धरती को आलिंगनबद्ध कर लेने को आतुर...‘‘  -सांवली शैफाली ने आषाढ़ के बादलों को धीमे-धीमे नीचे उतरते देखा तो मुग्ध हो गई। मगर बादल कहीं नेपथ्य में खोया अपने में ही डूबा हुआ था-

‘‘शैफालीवो देखो दूर एक पंछी दम तोड़ रहा है फट-फट-फट-फट करता हुआ। बंदूकें नाच रहीं हैं। भूखे नग्न बच्चे कलप रहे हैं।...वो देखो धुंएं से अटा पड़ा नीला आकाश कलछऊँ होता जा रहा है।‘‘

     बादल खिड़की के समीप खड़ा निरंतर शून्य में देखे जा रहा था। चेहरे पर मार्कसवाद का पूरा तेज था। अपने आस पास की अव्यवस्थाओं से त्रस्त व पूरी तरह से लस्त-पस्त।...निःशंक बादल। शैफाली नितांत रोमानियत से भरी उसके चेहरे को टुक-टुक देखती भर रही और सोचती रही ‘‘ किस रूप में होगी हमारे प्रेम की परिणति....बादल की आँखों से कब उतरेगा मार्कसवाद का चश्मा। कब खिलेंगे उसके भीतर लाल गुलाबी फूल। कब देखेगा वह फालसायी सपने.....कब बुनना शुरू करेगा वह फिरोजी रेखाओं के नीड़...उफ् बादल....‘‘

     बादल गांव का पढ़ा लिखा सांवला सलोना बेरोजगारी से उक्ताया हुआ प्रतिभशाली नवयुवक। परिवार के नाम पर सिर्फ बूढ़ी माँ। गांव के बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर व कुछ खेती-बाड़ी कर रोजी-रोटी चलती है। और उतने में ही संतुष्ट। शैफाली आम गंवई लड़कियों से थेाड़ी ऊपरछोटी सी पत्रकार है। बेबाक और हद भर स्पष्टवादी। अपने इलाके में उसकी बड़ी इज्जत है। नाम है। लेकिन भीतर-भीतर बादल को ले कर एक फूल भी खिला रहता है और भय खाती है इस फूल के मुरझा जाने की एक अव्यक्त आशंका से। कहीं..... नहीं नहींवह बादल के लिए सब त्याग सकती है।....बिना बादल के कहाँ रह पाएगी। ये मोह एकतरफा भी नहीं। अगर एक दिन भी शेफाली बादल के घर नहीं आती है तो वह विचलित हो उठता है दिन का उजाला देख-देख कर समय आंकता रहता है...

‘‘......अब तक तो आ जाना चाहिए शेफाली को............‘‘

कमरे में देर तक चहलकदमी करता है। और जैसे ही उसके आने की आहट पाता है एक ठण्डी नर्म धारा में बहने लगता है। मन ही मन बड़बड़ाता है-

‘‘......धन्य भगवान आ गई मेरी हंसिनी”

-अभी वह कागज पर कुछ नोट्स तैयार कर रहा था कि शैफाली ने प्रवेश किया-

‘‘...मेरे चंद्रमा...‘‘ कहते हुए बादल के गले में बांहें डाल दीं उसने। वह पुलक उठा-

‘‘...........मेरी हंसिनी....‘‘

‘‘ बादलदेखो ना कितनी नर्म हवा बह रही हैचलो चलते हैं नदी किनारे। नाव की सवारी करेंगे। रेतों पर प्रेमपत्र लिखेंगे ‘‘

-बादल ने पीछे हाथ फैला के उसकी बांहें पकड़ के उसे सामने मेज पर बैठा लिया और उसकी गोद में सिर रख दिया-

‘‘ शैफालीचर्दा में सवर्णों ने पूरा चमरौटा फुंकवा दिया। कितनी महिलाएं व बच्चे स्वाहा हो गए। कितना वेदित और आहत करने वाला हे ये सब। रोने को मन करता है। काश! में इन सबको रोक पाता।‘‘

शैफाली बुझ गई।

‘‘खाना खाया था आज दिन भर क्या करते रहे ?‘‘

‘‘कुछ नहींतुम्हारे लिए रिपोर्टिंग की है। वहाँ जा कर लागों का दर्द सुना हैं।...ये लो...‘‘-कहते हुए बादल ने दो पेज उसे थमा दिए। वह चुपचाप देखती रह गई। फिर उसके सिर पे हाथ फेरती बोली-

‘‘बादल कुछ अपनी भी चिंता किया करो। देखो कितने दुबले हो गए हो। कपड़े कितने मैले हो गए हैं। क्या गढ़ते रहते हो सुद-बुध खो कर। कैसे हो तुम?‘‘

‘‘दुनिया में कितनी विषमता है। कितनी नीरवता है। अकर्मण्यता और बिखराव है। लोग स्वार्थी हो रहे हैं। एक दूसरे पर होड़ लगाए हैं।.......कैसा है ये हाहाकार। ऐसे में कोई अपनी चिंता क्या करे। इसके लिए समय कहाँ ?‘‘

‘‘उठोमैं ही कुछ लाती हूँ। बातो से ही पेट भर लेते हो।...‘‘ कहते हुए शेफाली ने उसे परे किया और बाहर आ गई।

‘‘अम्मा जरा बादल को खाना खिला दूँ । ‘‘-गेंहूँ छानती अम्मा ने हाँ मे हाँ मिलाई-

‘‘हाँबेटी खिला दे मुझे तो बहलाता रहता है....जाने क्या मंसूबे बनाता रहता है।‘‘

-वह खाना खाते हुए बोला -

‘‘शैफालीहमनेसरजू भैय्यापटेसर दद्दा और बाकी लोगों ने मिल कर एक छोटा सा संगठन बनाया है। इसका नाम दिया गया है पीस ग्रुप। हम सब मिल कर समाज के लिए काम करेंगे। अन्याय के विरूद्ध लड़ेंगे।‘‘

‘‘हुं....ह इसमें खर्च भी आएगा‘‘

‘‘...पता हैउसके लिए हम बड़े तबके के लोगों से जो बड़े व्यवसायीव्यापारी इत्यादि हैं उनसे सहयोग लेंगे।‘‘

‘‘तो ये है तुम्हारा मार्कसवाद उन्हीं पूंजीपतियों के खिलाफ आवाज उठाओगे और उनके आगे ही हाथ फैलाओगे। रहने दो ये सब‘‘ वह भन्ना गई। तो वह धीमे से हँसा-

‘‘तुम तो बस्स...नाक पर ही गुस्सा रखे रहती हो। मेरे सिवा तुम्हें कुछ सूझता ही नहीं।‘‘

‘‘भला इसका तो एहसास हुआ।‘‘ कहते हुए शैफाली का गला भर आया।

‘‘शैफाली....‘‘ उसने चैंक कर शैफाली को देखा।

‘‘मुझे कमजोर मत बनाओ। मेरा मनोबल मत तोड़ो।‘‘ वह खा चुका था। शैफाली ने बर्तन समेटे और बाहर चली गई। कुछ देर बाद कमरे में आई और आंचल में हाथ पोंछती बोली-

‘‘...अब चलती हूं बादल। थेाड़ा आराम कर लूं। शाम आठ बजे प्रेस भी जाना है।

‘‘ठीक है जाओ अपना ख्याल रखना।‘‘

घर आ कर शैफाली पलंग पर निढाल सी फैल गई। थकान से शरीर चटख रहा था। सांवली शेफाली दिखने में अमलतास जैसी। देह की टहनियाँ मौसमी फूलों से लदी पड़ी हैं। कभी कभी वह अनायास ही किसी भयावह पतझड़ की आगत की आशंका से कांप जाती है। यही रोज का मामूल। फिर करवटें बदलते हुए जाने कब सपनों में ढल जाती हैं। घर में बेहद स्नेह करने वाला एक मात्र भाई तथा भाभी। माँ-पिता कब के स्वर्ग सिधार गए।

सरयू के तट पर अनमना सा बैठा बादल पानी में ईंर्टे उछाल रहा था कि शैफाली ने पीछे से आ कर आँखें भींच लीं। वह मुस्कुरा दिया-

‘‘ मेरी हंसिनी ‘‘

‘‘मेरे चंद्रमा...‘‘-शैफाली की बांहें उसके गले से लिपट गईं।

‘‘बादलवो देखो दूसरे छोर पर।  बादल नदी की ओर झुक रहा है....कैसा सुरमय दृश्यबादल बस चूमना ही चाहता है जलधारा कों।‘‘

‘‘.........नहीं जीये बादल तो अपनी इस जीवन-धारा को चूमना चाहता है।‘‘ कहते हुए बादल ने उसे समीप बैठा लिया और उसके माथे को चूम लिया-

‘‘मेरी शैफाली, ....मुझसे दूर मत जाना।‘‘ कहते कहते वह कुछ उदास हो गया।

‘‘ये तुम कहते हो तुम तो मेरे जहान के कण-कण में व्याप्त हो गए हो। अब ये शंकाएं ही निरर्थक हैं।

वह कुछ सोचता सा बोला-‘‘शैफालीकल मैं लखनऊ चला जाऊँगा। वहाँ हम बैठकें करेंगे और पीस ग्रुप से औेर लोगों को जोड़ेंगे। तुम यहाँ माँ का और अपना ख्याल रखना।‘‘

‘‘क्या?‘‘-वह चौंक कर उसे देखती रह गई। सहसा विश्वास ना हुआ। आँखें भर आईं। मगर आँसू पी गई। उसे पता है बादल को आँसुओं से नफरत है। आँसू देखके ही वह उग्र और विक्षिप्त जेसा हो जाता है। उसे नफरत है आँसुओं से। वह खामोश रह गई। बादल ने पुकारा-

‘‘क्या हुआबोलोगी नहीं?‘‘

‘‘नहीं‘‘ कहती हुई शैफाली उठी और चली आई। बादल मौनउधर पीठ किए बैठा रहा। वह घर आ कर बहुत रोई। कैसा है ये बादल.....ये निर्मोही।...क्षण भर को स्वर्ग में ले जाता है फिर नर्क में धकेल के चलता बनता है।...एकदम भावों से रिक्त...संवेदनाओं से मुक्त। वह पुनः उससे नहीं मिल सकी। वह चला गया। जाने के बाद फोन जरूर किया उसने। फौरी बात चीत भी की। शैफाली को इतने से ही राहत। लखनऊ जा के वह कुछ अघिक ही व्यस्त हो गया। आए दिन बैठकें करना। रैलियां निकालना और जनसमूह को सम्बोधित करना। इस दरम्यान बादल का पीस ग्रुप कई शहरों के चक्कर लगा चुका था। हाँरात के तीसरे पहर शैफाली से बात करना नहीं भूलता।

     पूरे दो महीने बाद बादल अपने कस्बे में लौटा। देखते ही शैफाली उससे लिपट गई और देर तक रोती रही। बादल दूर-दूर तक अपना परचम फहरा कर आया था। चेहरे पर गहरा आत्मविश्वास ठाठें मार रहा था। स्वास्थय भी काफी सुधरा हुआ था। वापस आने के बाद वह फिर से अपने खेती-बाड़ी और बच्चों को पढ़ाने के काम में लग गया था। मगर उससे कहीं ज्यादा वह अपनी बैठकों और रेलियों में व्यस्त रहता। एक रोज वह घर से लगी अपनी अमराई में बैठी थी। वह उसके कांधे पर सिर धरे आकाश ताक रहा था। शैफाली यूं ही जमीन पर आड़ी तिरछी रेखाएं खींचती सी बोली-

‘‘ बादलकुछ अच्छा नहीं लगता। नौकरी भी नहीं भाती।‘‘

‘‘पागल हो तुमकैसे अच्छा लगेगा। घिसी पिटी खबरों तक ही सीमित रह गई हो। खाली वक्त में बैठ कर मार्क्स को पढो। मार्टिन लूथर को पढ़ो। सूकी की नीतियां पढ़ो। पूंजीवाद के खिलाफ हल्ला बोलो।.....सामंतवाद को उखाड़ फेंकने का संकल्प लो।...हमारे साथ आ जाओ सब ठीक हो जाएगा।‘‘

‘‘तो क्या मैं अभी तक तुम्हारे साथ नहीं थी?‘‘

‘‘ थीं मगर इस तरह नहीं। छोटे मोटे अखबार की नौकरी छोड़ो....पीस ग्रुप में आ जाओ। तुममे जोश हैप्रतिभा हैरोष है....एक बार मंच से दहाड़ दोगी तो साला सामंतवाद चकनाचूर हो जाएगा। जमीन में घिसटते मुर्दों में भी जान आ जाएगी। वे उठ-उठ कर चिल्लाने लगेंगे । आज अगर घुटनो के बल समाजवाद चल रहा है तो कल सीधा खड़ा हो जाएगा। पूरे देश में फैल जाएगा समाजवादमार्कसवाद लाल सलाम....‘‘ कहते हुए उसने शैफाली के कांधे से सिर उठाया और उसकी आँखों में देखने लगा। शैफाली यूं ही बैठी रही आँखों में एक अनचाहा सूनापन तैर गया। एक शब्द भी नहीं बोला गया। बादल ने ही बुलकारा-

‘‘क्या हुआनाराज हो गईंबोलो कुछ?‘‘

‘‘क्या बोलूंजिसका स्वप्न गगन-चुम्बी पताकाएं हैं उससे चाँद मांगने बैठी हूँ ।‘‘

‘‘ मैं तुम में चाँद से खेलने वाली अल्हड़ युवती नहींतूफानों से खेलने वाली मजबूत चट्टान देखना चाहता हूँ...चंद्रमा की झूठी गोधूलि में कितनी देर रमी रह पाओगी प्रिये..?‘‘

-शैफाली खामोश रही। फिर उसे परे करती हुई बोली-

‘‘चलो चलती हूँ। हाँबताना भूल गई अखबार के संपादक संजीव वर्मा ने मेरी पदोन्नति कर दी हैं मुझे सह-संपादक का पद दे दिया है।‘‘

‘‘ ओह गुड। इतनी अच्छी खबर इतनी देर में। कहता था ना तुममें  बहुत सम्भावना हैतुम्हीं खुद को पहचान नहीं पातीं।‘‘

‘‘ मगर,....मैं ये नहीं चाहती। मैंने ये नहीं चाहा था। मैं सिर्फ अपना संसार चाहती हूँ...जहाँ सिर्फ हम होंहमारा प्रेम हो।.....तुम समझते क्यूं नहींभैय्या को मेरे विवाह की बड़ी चिंता है।‘‘

-बादल अचानक कहीं शून्य में खो गया। फिर निःश्वास सी छोड़ता बोला-

‘‘शैफालीभूखे पेट प्रेम नहीं होताइन्कलाब होता है‘‘

‘‘हम भूखे नहीं मरेंगे।‘‘

‘‘हमें इतना स्वार्थी नहीं हो जाना चाहिए प्रिये।..........हमारे कितने ही भाई बन्धू भूख से कलप रहे हैं। चटखती पीड़ाओं से दोहरे हुए जा रहे हैं।.....मेरठ में एक वर्ग के लोगों ने कितने दूसरे वर्ग के लोगों के घर यूंही फूंक दिए। उन्हें इंसाफ नहीं मिल रहा। प्रशासन आँखें मूंदे बैठा है। मीडिया सरकार द्वारा खरीदा जा चुका है । उसका आईना वैसा ही चेहरा दिखाता है जैसा सरकार देखना चाहती है। अब ऐसे कठिन समय में अगर हम पढ़े लिखे नवजवान भी आँख मूंद कर बैठे रहेंगे तो ....तब तो हम मृतप्रायः ही माने जाएंगे।‘‘

-शैफाली ने एक जम्हाई सी ली-

‘‘ठीक हैचलती हूँ ‘‘-कह कर वह झल्ल से उठी और जाने के लिए मुड़ गई।

शाम को जब प्रेस जाने के लिए तैयार हो रही थीकमरे में भैया ने प्रवेश किया। कुछ पल उसे देखा फिर बोले-

‘‘शैफालीमेने एक लड़का देखा है।‘‘

‘‘प्लीज भैय्या‘‘-उसने खीझते हुए उन्हें वहीं चुप करवा दिया। वह कुछ सोचते रहे फिर बोले-

‘‘बादल तुम्हें पसंद हैउसकी माँ से बात करूँ?‘‘

‘‘नहीं......अभी नहीं....‘‘

‘‘...वह तुमसे ब्याह करेगा तो...?‘‘

‘‘शायद नहीं...‘‘

‘‘क्या...तो क्या वह...?‘‘

‘‘प्लीज भेय्याकुछ मत पूछो....अभी नहीं...कुछ भी नहीं।‘‘

‘‘ठीक हैजैसी तुम्हारी मर्जी.....तुम स्वतंत्र हो..‘‘-कहते हुए वह कमरे से बाहर चले गए।

शैफाली का ओहदा क्या बढ़ा उसके कद में खुद ब खुद इजाफा हो गया। प्रेस की ओर से उसे एक स्कूटर भी मिल गई। वेतन भी बढ़ां संपादक संजय वर्मा की नजरें उस पर कुछ ज्यादा मेहरबान रहने लगीं। उसके खाने पीने और प्रेस के कामों का भी काफी ध्याान रखते।  जितनी बार काॅफी चाय खुद के लिए मंगवाते उसे भी भिजवाते। खाली समय में उसके केबिन में जा कर गप्पें लड़ाया करते। और ऐसे ही वह नजदीकियों की पराकाष्ठा पार करने का प्रयत्न करने लगे। इस दरम्यान उसका बादल से मिलना जारी रहा। किन्तु बादलबादल जेसा ही ठण्डा और बेगाना बंजारा सा बना रहा। एक दिन शैफाली संपादक की कुटिल हरकतों से उक्ता कर बड़े आवेश में बादल के पास गई और उसे झिंझोड़ डाला। इस वक्त बादल कुछ लिख रहा था। अचानक झिंझोड़ने से बादल का हाथ इधर-उधर बहका और कागज पर टेढ़ी मेढ़ी लकीरें खिंच गईं। वह तड़प कर बोली-

‘‘बादलहम ब्याह कब करेंगे ?‘‘

-बादल चौंक कर चेयर से उठा और उसका कंधा पकड़ कर अपनी चेयर पर बैठा दिया। फिर बाहर चला गया। कुछ देर बाद आया। उसके हाथ में पानी से भरा गिलास था। उसने शैफाली की तरफ बढ़ा दिया। शैफाली ने गिलास थामा थोड़ा सा पानी पिया और उसे टेबिल पर रख दिया। बादल टेबिल पर बैठते हुए बोला-

‘‘हाँअब बोलो।‘‘

-शैफाली ने बगैर कुछ कहे उसकी गोद में सिर रख दिया-

‘‘मैने जो बोलना था बोल  दिया बादल ‘‘

‘‘शैफालीतुम भी ना बच्चों की सी बातें करती हो। शैफालीहमहमारा प्रेम इस पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त है। हमारी प्रेमासक्त संवेदनाएं सार्वभौम हैं। हमारा प्रेम आत्मा से परमात्मा में विलीन होने जैसा है।....वो आदम-हव्वा वाला प्रेम नहीं हमारा कि जिसमें दैहिक-आग्रह हों। अपने इस सार्वभौमिक प्रेम को तुम संकुचित करना क्यूं चाहती हो अपने प्रेम को मात्र दो चार दीवारोंदो चार मनुष्यों तक ही क्यों सुकुचित कर देना चाहती हो। तुम्हारे प्रेम की आवश्यकता इस सारे संसार को हैं....विवाह संस्था का जन्म इसलिए हुआ कि मानव एक सीमित दायरे में रह कर प्रकृति के नियमों का निर्वाह करे। बच्चों को जन्म दे। उनका लालन पालन करे। जिससे आगे चल कर इस ब्रह्मांड का विस्तार हो। किंतु हमें इसकी आवश्यकता नहीं है। हमारे पास पहले ही हजारों अबोध पड़े हुए हैं जिन्हें हमारी आवश्यकता है। तुम्हें पता हैहमने एक अनाथालय खोला है। उसमें अब तक चार सौ अबोध बालक-बालिका आ चुके हैं अगर हम स्वयं संकुचित हो जाएंगे तो उन्हें कौन देखेगा। मानव-सेवा ही हमारा सच्चा धर्म है प्रिये। विवाहपरिणयगृहस्थीये सब तो ओछी और सांसारिक बातें हैं। हमारा प्रेम इनसे कहीं ऊपर है।‘‘

-लम्बा भाषण सुनते-सुनते शैफाली के आंसू सूख चुके थे। उसे विश्वास हो गया था कि उसका बादल कोई ऐसा वैसा बादल नहीं है जो अपनी कामनाओं को फलीभूत करने के खातिर बरसे।...उसका बादलवो बादल है जो सारी दुनिया के गले तर करता है। वह थकी सी उठी ओर बगैर कुछ बोले वापस चली गई। बादल उसे जाता हुआ देखता रहा। बाहर आई तो माँ ने उसे बोलकारा-‘‘ शैफालीइतनी जल्दी जा रही है बेटवा‘‘ उसकी आँखें भर आईं और बिना जवाब दिए बाहर निकल गई। माँ ने कमरे में जा कर देखा तो बादल गुमसुम सा खड़ा था-

‘‘क्यूँ रेक्या कह दिया उसे।‘‘

‘‘कुछ नहीं माँ वह खुद को पहचानती ही नहीं। समझना ही नहीं चाहती। आम लड़कियों की तरह हठ कर बैठती है।‘‘

‘‘ठीक ही तो हैये रोज की दौड़ भाग कहाँ तक करे वह। उसे ब्याह कर घर क्यूँ नहीं ले आता।‘‘

‘‘तू भी माँतुम औरतों को ब्याह के सिवा भी कुछ सूझता है क्या ?‘‘

‘‘तो क्या उसने भी.....?‘‘

‘‘उफ्नहीं कुछ भी नहीं। तुम जाओ।‘‘ माँ उसे घूरती सी बाहर चली गईं।

     दूसरे दिन बादल कोलकाता चला गया। इस बार उसने बहुत बड़ी-बड़ी व सफल रैलियाँ निकालीं। बादल ग्रुप एण्ड कम्पनी नामक एक संस्था का गठन भी किया। इसके अंतर्गत बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों के लिए बड़े स्तर पर काम किया जाने लगा था। जल्दी ही इस संस्था ने पूरी तरह से अपने पैर जमा लिए थे। यहां तक कि कुछ अवार्ड भी इसके हिस्से में आ गए थे। बादल की ख्याति तेजी से बढ़ रही थी। यद्यपि उसे ना अवार्ड की कामना थी ना दौलत की हवस और ना ही ख्याति की लालसा। वह तो नितांत संतों का सा जन सेवा में लगा हुवा था। 

     शैफाली को बादल से मिले कई दिन हो गए। वह घर गई तो पता चला वह कोलकाता चला गया हैं। क्षण भर को वह सोचती रह गई। बादल इस कदर बदल गया। मिलना तो दूरजाने की सूचना तक ना दे सका। खैर वह जातीमाँ से मिल कर चली आती। एक दिन वह औफिस  पहुँची तो पेपर पर नजर पड़ी। पहले पेज पर बादल की फोटो देख वह पुलक उठी। बादल की संस्था को किसी अवार्ड के लिए नामित किया गया था। फौरन बादल का नं0 डायल किया। पर हर बार नं0 व्यस्त जाता रहा। झुंझला कर मोबाईल बंद कर दिया।

         चार दिन बाद बादल का फोन आया। वह वापस आ गया था। चूंकि रात हो गई थी इसलिए उसने दूसरे दिन आने का वादा किया और सुबह होते ही संपादक को छुट्टी के लिए फोन किया। लेकिन संपादक ने कुछ जरूरी काम कह कर एक घण्टे के लिए उसे घर पर ही बुला लिया। उसने हिसाब लगाया-‘‘अभी तो बादल सो रहा होगा। दस बजे तक आराम से वापस आ सकती हूँ। तब तक वह जाग जाएगा। वह संपादक संजीव वर्मा के फ्लैट पर पहुँच गई। फ्लैट का दरवजा बंद नहीं था। कॉलबेल बजाने पर भीतर से आवाज आई-

‘‘खुला हैआ जाओ।‘‘

और भीतर कदम रखते ही संजीव वर्मा ने उसे बांहों में भर लिया।  

‘‘तुम्हारी कामनीय सुंदरता अब सहन नहीं होती शैफाली ।‘‘

शैफाली गुस्से और आश्चर्य से भर गई। उसने स्वयं को मुक्त कराने का भरसक प्रयत्न किया किंतुनहीं.......

     ठीक 11 बजे शैफाली बादल के कमरे में थी। देखते ही उसे बादल ने बांहों में भर लिया-

‘‘मेरी शैफालीतुम्हारे प्रेम की शक्ति ने मुझे क्या-क्या बना दिया।‘‘

‘‘बसवही ना बना सका जो मेरे दिल ने चाहा।‘‘ कहती हुई वह उससे अलग हो गई।

‘‘ओह...गुस्सा...‘‘ वह यूँ ही सा हँस दिया।

‘‘बादल...‘‘ कहते-कहत उसकी आँख भर आई। बादल विचलित सा हो उठा।

‘‘अ....अरे आँसू....ये क्या...नहींये मुझे बिल्कुल नहीं पसंद हैरोना मत...रोना मत...‘‘

‘‘तुम्हें क्या पसंद है मैं आज तक ना समझ पाई। लेकिन आज मेरी बात सुनो। आज....आज....‘‘

‘‘क्या आज...आगे कहो।‘‘

‘‘आज संजीव वर्मा ने मुझे पूरी तरह से खत्म कर दिया।‘‘

‘‘क्या मतलब हैसाफ-साफ कहो।‘‘

‘‘उसने मेरा बलात्कार......‘‘

‘‘ओह.....हे भगवानये क्या बच्चों की सी बातें करती हो। शैफालीइस समय तुम्हारी आयु क्या है?‘‘

‘‘तीस वर्ष।‘‘

‘‘गुड...इस उम्र में बलात्कार नहीं होता। संयोग होता हैं। समागम होता है। तुम बालिग होतुमने ही तो कहा था एक बार कि देह के भी अपने आग्रह होते हैं। कभी तुमने ध्यान दियाअपने इर्द-गिर्द घूमती-घामती आवृत्तियों की तरफ़ । अपने भीतर गमकती ऋतुओं का कभी आभाष कियातुम उसका दम घोंटना क्यूँ चाहती होउन अह्लादित-क्षणों को बलात्कार का नाम दे कर अपने साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हें तो उसका भरपूर आनंद लेना चाहिए था। ऐसा कौन सा अपराध हो गया जो तुम अपराध-बोध से दोहरी हुई जाती हो।‘‘

‘‘....बादल..‘‘ वह पूरी ताकत से चीख पड़ी।

‘‘प्रिये ...आवेश में नहीं।‘‘ कहते हुए उसने अपना सफेद कुर्ता उसकी ओर बढ़ाया-

‘‘जरा इसमें बटन टांक दोटूट गया है।‘‘

वह चकित सी देखती रह गई। कैसा है ये आदमी। इसके अंदर पौरूष नाम की कोई चीज भी हैं। खामोशी से उसके हाथ से कुर्ता ले लिया और सूंईं में धागा पिरोने लगी। वह आगे बोला-  

‘‘यहाँ बलात्कार कौन नहीं करता शैफाली । क्या तुम नहीं करतींक्या मैं नहीं करता?‘‘

-उसने क्षण भर को रूक कर बादल को देख और फिर अपने काम में लग गई। वह हँसा-

‘‘और नही तो क्या। बलात्कार का अर्थ है बलपूर्वक‘ किया गया कार्य। क्या मैं तुम पर अपनी इच्छाएं थेाप कर तुम्हारा बलात्कार नहीं करतातुम मुझे जबरन अपनी धारा पर नचाना चाहती हो क्या ये मेरा बलात्कार नहीं?कितने ही दिल ढहते हैं। ढहाए जाते हैं। कितने ही रिश्ते स्वार्थी हो जाते हैं.........जाने कितने रंग के बलात्कार आए दिन होते रहते हैं। मानसिक बलात्कारसामाजिक बलात्कारराजनीतिक बलात्कार....इन सब के सामने संजीव वर्मा द्वारा किया गया कुकृत्य  तो निहायत मामूली है। क्या पति बलात्कार नहीं करतातुम्हें अपने मन से अपराधबोध और ग्लानि जैसी भावनाएं निकाल कर उसका आनंद लेना चाहिए था शैफाली ....यही सच है।‘‘

‘‘शटअप....दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा।‘‘

कहते हुए उसने बटन से धागा तोड़ कर अलग किया और सुईं मेज पर फेंक कर फूट फूट कर रोने लगी-

‘‘हे भगवान, ...मुझे मौत ही दे दे। प्रेम के लिए मुझे ऐसा ही आदमी देना था।‘‘

बदल ने उसका हाथ पकड़ना चाहा पर उसने झिड़क दिया-

‘‘दूर रहो मुझसे.....छूना मत...‘‘ बादल ने सहम कर पीछे हाथ कर लिया। वह उठी और पांव पटकती हुई बाहर निकल गई।

     उसके बाद उसने बादल से मिलने की कभी भूल नहीं की। मन इस कदर वीरक्ति से भर गया कि उसने स्वयं को सारी दुनिया से काट लिया और स्वयं को संजीव वर्मा उर्फ जनमानस (दैनिक पत्र) को समर्पित कर दिया। ये खबरें बादल तक भी जाती थीं किंतु उसका कभी साहस ना हुआ शैफाली का सामना करने का। यद्यपि उसने खुद को जनसेवा के क्षितिज पर भींगी वाष्प की तरह फैला दिया था अैर अंतरिक्ष में विलीन होता गया था। किंतुरात के तीसरे पहर जब वह दुनिया के सारे झंझावात से टकरा कर अपने बिस्तर पर जाता तो देर तक मोबाईल पर शैफाली का नं0 तकता रहता। डायल करने का कभी साहस ना हुआ।

दस वर्ष बाद-

वो अषाढ़ की ही साँझ थी। घोर बरसात के बाद नभ कुछ साफ हुआ था और एक इंद्रधनुष खिंच गया था। शैफाली जनमानस‘ के कार्यालय के अपने केबिन में बैठी किसी न्यूज का ड्राफ्ट तेयार कर रही थी। तभी पीछे से एक नितांत मुलायम स्वर लहराया-

‘‘शैफाली,.....मेरी हंसिनी‘‘

शेफाली शाॅक्ड रह गई । क्षण भर को वह बुत सी बनी रही फिर एक झटके से खड़ी हो गई और पीछे घूमी। सामने बादल बाँहें फेलाए खड़ा था। चेहरे पर फैली बेतरतीब दाढ़ीआँखों में पीला उजाला। मटमैले कपड़े।........बिल्कुल उसका वाला बादल। एक पल को उसका जी भींग गया। मन की बाँहें फैल गईं उसे दिल से लगाने के लिए। मगर जाने कौन सी शक्ति ने उसे रोक दिया। वह बुत बनी खड़ी रह गई। बादल ने निराश हो कर बाँहें समेट लीं और बोला-

‘‘शैफालीमैं खो गया हूँ। थक गया हूँ.....संभालो मुझे।...मैं ऊब चुका हूँ इस भीड़ सें। मैं लौट आया हूँ तुम्हारी आँखों में खुद को ढूंढ़ने के लिए।‘‘

‘‘.....पर कुछ रास्ते ऐसे होते हें बादल जहाँ से लौटा नहीं जा सकता। अब इन आँखों में बादलों के मंजर नहीं रहे।  यहाँ रेत की चट्टानों ने जगह बना ली है। ऐसी चट्टानें जिन्हें वक्त की आँधियाँ बादलों की  तरह उड़ा कर कहीं दूर नहीं ले जा सकतीं। ये चट्टानें स्थायी ओ स्थिर हैं। इन चट्टानों पर सारे मौसम सिर पटक-पटक कर लौट चुके हैं।‘‘

‘‘शैफाली.....‘‘ बादल के चेहरे पर एक दर्द सा फैल गया जैसे।

शैफाली कहती हुई आगे बढ़ गई और खिड़की के पास जा कर बाहर देखने लगी-

‘‘..........वो देखो बादलभूखी माँओं के शव क़व्वे नोच-नोच के खा रहें हैं और शिशु उनके सीने पे सिर पटकते स्तन-पान के लिए मचल रहे हैं।.....साम्यवाद चीख रहा है.....वो देखो...कितने ही मार्क्स हाथों में लाल पीले नीले झंडे लिए दौड़े जा रहे हैं जिस पर सामंतवाद के रक्त से लिखा गया है लाल सलाम‘‘। आज ...रिलायंस क्लब में ‘‘जन चेतना और समाजवाद‘‘ पर मेरा भाषण है...तुम जरूर सुनने आना।‘‘ कहते हुए वह पीछे मुड़ी। किंतु कहाँबादल अपनी आहत वेदनाओं के साथ निराश लौट गया था। 

-प्रतीकात्मक चित्र google से साभार 

हुश्न तवस्सुम निहाँ द्वारा लिखित

हुश्न तवस्सुम निहाँ बायोग्राफी !

नाम : हुश्न तवस्सुम निहाँ
निक नाम :
ईमेल आईडी : nihan073@gmail.com
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ऑथर के बारे में :

जन्म -08 जनवरी, रानी बाग, नानपारा जिला बहराईच, उत्तर प्रदेश।

पिता- श्री अनीस अहमद खां

माँ- श्रीमती हुस्न बानो

शिक्षा-

 अंग्रेजी, हिंदी, समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर । स्त्री अध्ययन और गांधीयन थॅाट में पी0जी0 डिप्लोमा, एम0फिल0, पी-एच.डी.महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र से

सम्मान-

समाज रत्न, सरस्वती साहित्य सम्मान, महादेवी वर्मा स्मृति सम्मान, स्व0 हरि ठाकुर स्मृति सम्मान। विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा मानद उपाधि विद्यावाचस्पति (2011) से सम्मानित।

भारत एवं हिंदी प्रचारिणी सभा मोरशस द्वारा अंतरराष्ट्रीय सम्मान (2016) से सम्मानित।

अंतरराष्ट्रीय अवधी महोत्सव (नेपाल) में अंतरराष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित (2018)

कविता संग्रह-चाँद ब चाँद, शीला सिद्धांतकर स्मृति सम्मान (2014) द्वारा पुरस्कृत।

कहानी संग्रह-नीले पंखों वाली लड़कियाँ, स्पेनिन साहित्य गौरव पुरस्कार-(2014) से पुरस्कृत।

कहानी संग्रह- नर्गिस फिर नही आएगी , डाॅ विजय मोहन सिंह स्मृति (प्रथम पुरस्कार) पुरस्कार--(2017)

प्रकाशन-

कविता संग्रह-     मौसम भर याद,

              चाँद-ब-चाँद

कहानी संग्रह-     नीले पँखों वाली लड़कियाँ,

             नर्गिस फिर नहीं आएगी,

             सुनैना! सुनो ना....

             गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता

 

उपन्यास-    फिरोजी आँधियाँ

          कामनाओं के नशेमन

शोध पुस्तक-  धार्मिक सह-अस्तित्व और सुफीवाद

सपादित पुस्तक-

                कविताओं में राष्ट्रपिता

                आदिवासी विमर्श के विभिन्न आयाम

‘‘साहित्य में मुस्लिम महिलाओं के मुद्दे (विशेष संदर्भ: हुस्न तबस्सुम निंहाँ )‘‘लघु शोध प्रबंध सुश्री मंजू आर्या द्वारा प्रस्तुत।(स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्व विद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र द्वारा)

सम्पर्क-महात्मा  गांधी अंतरराष्ट्री य हिंदी विश्वा विद्यालय गांधी हिल्स वर्धा महाराष्ट्र

      मो0-09415778595

                    09455448844,

      ई-मेल-nihan073@gmail.com

 

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