“यूँ तो उम्र का तकाजा है मियाँ, और इसका कोई मलाल भी नहीं. आधी उम्र बुत बनाने में गुजर गई, और आधी उसे गिराने में.”
वह बारिश के मौसम की उमस से भारी एक शाम थी. पंखे चलने के बावजूद घुटन लग रही थी. सांस ले पाना मुश्किल हो रहा था. सरकारी दवाखाने की कतार में खड़े मरीजों को देखना और उन्हें जरुरी दवाइयां लिखना रोजमर्रा का ही काम था. आज भी कतार थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी.
अब की बार स्टूल पर जो बूढा मरीज आकर बैठा था. उसका कमीज –पायजामा गंदला था. उसके झुर्रियों भरे चेहरे से लगता था कि वह अस्सी के करीब का रहा होगा. वह बार –बार अपनी आँखों को मिचमिचा रहा था. शायद उसे देखने में दिक्कत हो रही हो. एक हाथ लगातार हिल रहा था. उसके बेतरतीब सफेद और सूखे बाल फैले हुए थे. चेहरे पर एक फीकी हंसी थी. पर उसकी आवाज में एक अजीब सी ठसक भरी खनक थी. उसने बैठते ही कहा – “यूँ तो उम्र का तकाजा है मियाँ, और इसका कोई मलाल भी नहीं. आधी उम्र बुत बनाने में गुजर गई, और आधी उसे गिराने में.” मुझे उसके शायराना अंदाज़ ने प्रभावित किया था पर ऊपर से चिढ़ते हुए मैंने कहा – “ ठीक है बाबा, पर यहाँ सिर्फ मर्ज देखे जाते हैं. आप बताइए कि क्या हुआ है.
“वही तो बताया हुजूर आपको. अब इस उम्र का कोई इलाज नहीं होता, जानता हूँ. पर मन समझाने चला आया हूँ. यूँ तो जमाने भर के मर्ज पाल रखे हैं हमने, पर जिसमें भी राहत मिल जाए, उतना ही काफी है.”
बूढ़े पर अब गुस्सा आने ही वाला था कि न जाने क्यों गुस्सा जज्ब हो गया. मैंने बूढ़े से कहा कि आप थोड़ी देर रुकिए. कुछ और मरीज देख लूं. फिर आपके साथ इत्मीनान से बात करता हूँ. बूढ़े ने कुछ नहीं कहा, बस स्टूल छोड़कर बेंच पर बैठ गया. मरीजों का सिलसिला थमा तो मैंने बूढ़े की ओर इशारा किया – “हाँ, चाचा तो अब बताइए.. “
तभी मेरा ध्यान उनकी पर्ची पर लिखे नाम पर गया. अब्दुल मजीद. दिमाग में कुछ कौंधा लेकिन दूसरे ही पल खारिज भी हो गया. वे यहाँ कैसे.. ? फिर भी बात को आगे बढ़ाने के लिए पूछ ही लिया – “चाचा एक अब्दुल मजीद हमारे कस्बे में भी हुआ करते थे. शायद सत्तर –अस्सी के दौर में. जब वहां लोगों ने पेंट और बेलबाटम पहनना शुरू किया था. तब वो पहले दर्जी थे वहां के. हुनरमंद दर्जी. उनके हाथ के शादी के सूट तो इलाके के हर दुल्हे ने पहने और रफूगर तो गजब के थे.”
हम लोग उनसे अपने पिता की पहनी हुई पेंट को अल्टर, उसे हमारे नाप की छोटी कराने या कपड़ा गल जाने पर उसको रफू कराया करते थे. वे ये सब इतनी सफाई और कलाकारी से करते थे कि कोई पहचान तक नहीं पाता था. बारीकी से और धागे से धागा मिलाते हुए. यहाँ तक कि कई बार कपड़े के मालिक को भी ढूँढना पड जाता कि फटा कहाँ था या रफू कहाँ किया गया है.
वे अचानक गुस्से से लाल हो उठे. वे बेंच से थरथराते हुए खड़े हो गए और चिल्लाने लगे –“मर गया वह अब्दुल मजीद. अब कहीं नहीं है उस तरह का आदमी. कभी कोई अब्दुल मजीद था ही नहीं. अब कभी नहीं लौटेगा वह. मर गया वह अब्दुल मजीद.”
अब चौंकने की बारी मेरी थी. मुझे समझते देर नहीं लगी कि ये वही अब्दुल मजीद हैं, लेकिन मैं जिन अब्दुल मजीद को जानता था, वे तो बड़े दिलचस्प आदमी हुआ करते थे. खांटी किस्सागो और मसखरे. चौक में उनकी दुकान पर हमेशा महफ़िल जमी रहती. अब्दुल मजीद सिलाई मशीन पर अपना काम करते रहते और सुनने वालों के लिए किस्से चलते रहते. वे जिसके किस्से सुनाते, उसीके अंदाज़ में संवाद और लटके –झटके भी. कई लोग तो किस्से सुनने ही आ जुटते. कोई काम नहीं होने पर भी उनकी दुकान के आसपास बने रहते. वे हमेशा खुश रहते और उनके आसपास का माहौल भी खुशफहम रहा करता. वहां जिंदगी हमेशा चहकती रहती थी.
वे मुड़कर जाने लगे तो मैंने कुर्सी से उठकर रोका और फिर से बैठाया. वे अब भी गुस्से में थे और उनसे अब इस बाबत बात करने की मेरी हिम्मत नहीं थी. मैंने कहा –“कोई बात नहीं, मुझे इस लायक समझें तो मर्ज बताएं, मैं इलाज की कोशिश करूंगा.
वे कुछ शांत हुए पर चुप्पी साधे रहे. अब गहरी उदासी और लाचारी ने उन्हें जकड लिया था. वे बिना मेरी ओर देखे बेंच से उठे और भारी कदमों से दरवाजे से निकल गए. इस बार मैंने उन्हें नहीं रोका. उमस और बढ़ गई थी.
मैं जब दवाखाने से बाहर निकला तो सड़कों पर शाम घिर आई थी. शहर के बाज़ार लकदक थे और दुधिया रोशनी में नहा रहे थे. मेरा मन कहीं नहीं लग रहा था. रह –रह कर अब्दुल मजीद याद आ रहे थे. तब कस्बे के उस छोटे से चौक में उनकी दुकान हुआ करती थी. ऐसी दुधिया रोशनी तो नहीं थी पर उनकी हँसी –खुशी के उजाले फूटते रहते थे.
फिर कई दिन बीत गए. मैं भी उन्हें फिर से भूलने लगा था कि अनायास एक दिन वे मस्जिद के पीछे वाली गली के एक खंडहर के पास बैठे नजर आए. वे बीडी के छोटे –छोटे कश ले रहे थे और धुआँ उनके आसपास था. लौटती धूप की कुछ किर्चियाँ उनके बेतरतीब बालों में खेल रही थी. मैं लपक कर उनके पास जा बैठा. उन्होंने एक पल गौर से देखा और शायद पहचान गए.
कुछ देर की चुप्पी के बाद वही ठसक भरी खनकदार आवाज़ गूंजी थी –“क्या हुआ, अब्दुल मजीद मिला. नहीं मिला न... ! क्यों उसे ढूँढना चाहते हो मियाँ, अब तो वक्त ने भी उसे रफू कर दिया. वक्त से बड़ा कोई रफूगर नहीं होता. बरखुरदार, हमें गुमान होने लगता है कि हम बड़े रफूगर हैं पर वक्त सबसे बड़ा रफूगर है दोस्त. सब कुछ बदल देता है, सब कुछ.”
एक फीकी मुस्कान बिखेरते हुए बीडी के टोटे को जमीन पर रगडा. फिर पनीली सी आवाज में रिरियाते हुए कहा -“जानना चाहते हो कि कहाँ गया अब्दुल मजीद. क्या होगा इससे.” उनकी आवाज में अब वह ठसक नहीं रह गई थी.
फिर वे उन दिनों में लौटने लगे. उनकी आँखों में मंजर चढने –उतरने लगे. वे कहे जा रहे थे, मानो किसी और का किस्सा सुना रहे हों. अब्दुल मजीद को गुमान था अपने काम पर और फख्र था अपने हूनर पर. अपने उस्ताद से सीखा था उसने ये गुमान भी. बीस सालों तक खूब काम किया. दौलत और शोहरत दोनों मिली. पर नब्बे के दशक के बाद धीरे –धीरे दुकानदारी फीकी होने लगी. बेटे ने कई बार कहा कि अब्बा, वक्त बदल रहा है. लोग दर्जियों के सिले कपड़े पसंद नहीं करते. अब बाजारों में रेडीमेड कपड़ों के साथ बड़ी और दुनियाभर में कारोबार करने वाली नामी कंपनियां उतर रही है. अब दुकान से मशीने हटाकर रेडीमेड का धंधा शुरू कर देते हैं.
उनके तो सिर चढ़कर बोलता था गुमान. डपट देते बेटे को- “तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है मैंने. रेडीमेड कपड़ों में ऐसी फिटिंग कहाँ, हूनर की बारीकी सीखो. जानते हो तुम्हारी पूरी जिंदगी इसी पेढी पर सिर्फ तुम्हारे वालिद के नाम से ही कट जाएगी.”
कभी नहीं लगता था कि ऐसा दौर भी आएगा, लेकिन आया और इतनी बेरहमी से आया कि उन्हें और उनके हूनर को कुचलते हुए नेस्तनाबूद कर गया. कुछ नहीं बचा. काम नहीं बचा तो दुकान बैठने लगी. पहले दुकान की बरकत उडी या घर में दो जन का खाना मोहताज हुआ या दोनों शायद साथ –साथ हुए. पता नहीं. चौक की दुकान बेचने के लिए धमकाया जाने लगा. कहा गया कि हिन्दू इलाके में दुकान नहीं रहने देंगे. पूरी जिंदगी में कभी नहीं लगा, पहली बार लगा कि कस्बे में हिन्दू भी हैं. अब तक तो सब अपने ही लगते रहे.
शरीके हयात बीच से ही चल बसी थी. बेटा भी काम की तलाश में दुबई चला गया था. पर उनकी खातिर लौट आया. अब दो वक्त की रोटी की जुगत भी बेटे के जिम्मे थी. बेटे से कभी पूछा नहीं उन्होंने और न कभी उसने कुछ बताया. वे उससे शर्मिंदा थे. उसने आगाह किया था, उसने जमाने की चाल को पहचाना था पर वे ही नहीं समझ पाए. अब वह ज्यादातर दोस्तों के साथ रहता. घर में बहुत कम बोलता. कभी कुछ पैसे दे जाता और फिर हफ्तों तक नहीं लौटता.
दुकान पर कभी –कभार ही कोई काम आता. फिर भी वे सुबह –शाम चौक का एक चक्कर लगा आते. पुराने लोगों से मेल –मुलाकात हो जाया करती. हुआ ये भी कि रेहमान, शफी, भग्या, छीतू और रईस की दुकानें छुडा ली गई. वे सब को हकाल कर वहाँ मार्किट बनाना चाहते थे. करोड़ों कमाने का सपना था उनका. अफसर, नेता, पुलिस सब उनके थे. वे कहते –“अब वक्त का छेद इतना बड़ा हो गया कि रफू के लायक भी नहीं बचा.”
अपने काम का गुमान भले ही टूटा था पर अपने खुद पर गुमान अभी कायम था. उन्हें लगता था कि वक्त फिर लौटेगा और इसी दुकान पर उनके बेटे के हाथों में हुनर चमकेगा, इसी आस में न दुकान बेची और न ही रिश्तेदारों के साथ शहर गए. वहीं बने रहे. हालाँकि वे शिद्दत से महसूस करते कि सब कुछ तेजी से बदल रहा है. जैसे कोई बनैला जानवर फुंफकार रहा हो कस्बे को अपने सींगों पर उठाने को.
एक दिन खबर आई कि उनके बेटे को पुलिस ने पकड लिया है, जेहादियों से जुड़ने का आरोप था उस पर. उनके पैरों तले से जमीन खिसक गई थी. उन्हें यकीन था कि उनका बेटा ऐसा नहीं हो सकता पर क्या करते.. थाने भी गए थे पर धाराओं के सामने उनकी किसी ने नहीं सुनी. कस्बे के पुराने लोगों से मिले पर अब उनकी ही कहाँ चलती थी. कुछ वकीलों से भी मिले पर पैसा कहाँ से लाते. वकील बता रहे थे कि कोई ठोस सबूत नहीं है फिर भी इन धाराओं में दस साल से कम की कैद नहीं होती.
कस्बे में जितने मुंह, उतनी बातें थीं. कोई कुछ कहता तो कोई कुछ. उन्हें लोग अजीब निगाह से देखते. उसी रात दुकान में आग लग गई. अब वहां मार्किट बन गया है. वे उसी काली रात चल पडे थे वहां से, फिर कभी न लौटने के लिए.
सच कहूं तो वे उसी पल मर गए थे. उसी अब्दुल मजीद की मिट्टी ढो रहा हूँ तब से अब तक.
आसपास गाढ़ा अँधेरा छा गया था. वे उठे और खंडहर में कहीं समा गए.