'हनीफ़ मदार' की कहानी "ईदा" लाइव विडीओ
हनीफ मदार 428 2020-06-15
ईदा, गांव, गांव वाले, सब कुछ बस ऐसे ही चल रहा था । इस चलने में, गांव में सब एक दूसरे को बस आदमी के रुप में पहचानते थे । अचानक उन्नीस सौ बानबै के बाद इन्सान को हिन्दू-मुस्लिम के रुप में मिलती पहचान से यह गांव भी अछूता नहीं रहा था । बुद्धू ईदा के इस गांव में कुछ विद्वान अवतरित हो गये थे । वे कहां से ओर कैसे आये ? कौन लाया ? कोई नहीं जान पाया, हां गहराती शामों में अक्सर ही गांव के मन्दिर में, हिन्दुत्व की गौरवशाली परम्परा और गढ़ी की मस्ज़िद में, दीन की हिदायतों का ज्ञान लोगों को निशुल्क बंटने लगा था । ईदा को इस ज्ञान से कोई मतलब नहीं था । वह इस सब से बेखबर शामों में निपट अकेला-सा हो जाता तो कभी वह गढ़ी के दरवाजे पर जा बैठता और उकता जाता तो गांव की गलियों के चक्कर लगाता । गलियों में या चौक में पसरा सन्नाटा उसे परेशान करता तो वह खीझकर कहीं किसी चबूतरे पर जा बैठता ।॰॰॰॰॰